24.एम॰बी॰एम. (जोधपुर) फ्रेंड्स, रेजोनेन्स (कोटा) एवं आई॰आई॰टी.
राजस्थान का होने के बावजूद भी मुझे कभी कोटा देखने का मौका नहीं मिला था। याद नहीं आ रहा है, सन 1986 या 1987 की बात होगी, जब कभी कोटा के बुद्धि राजा ने सारे भारत में आई॰आई॰टी में प्रथम स्थान प्राप्त किया था,तब से कोटा देखने की सुषुप्त लालसा मन में जाग उठी थी। साथ ही साथ,कोटा का न्यूक्लियर बिजली घर देखने की भी इच्छा थी। मगर सैंतीस साल तक यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। जीवन में पहली बार वह घड़ी आई,जब इसे मूर्तरूप प्रदान हुआ, बेटे हिमेश को ग्यारहवीं कक्षा में रेजोनेन्स में दाखिला करवाने के उद्देश्य से मुझे वहाँ जाना पड़ा। सौभाग्य से,मेरी पहली विजिट एक अभूतपूर्व यादगार बन गई, हमारे 1992 बेच के गोल्ड-मेडलिस्ट रहे नंदू बॉस और अन्य परम मित्र देवेन्द्र गौड़ से मिलकर। दोनों मगनीराम बांगड मेमोरियल इंजिनयरिंग कॉलेज ,जोधपुर में मेरे सहपाठी थे। उन्हें देखते ही कॉलेज-जमाने के भारत-भ्रमण के दिन याद आने लगे,कितने शरारत भरे दिन हुआ करते थे वे! देखते-देखते ऐसा लगने लगा,जैसे वार्धक्य की ओर अग्रसर हो रहा जीवन ने यहीं विराम ले लिया हो और अल्मोड़ा-नैनीताल के पहाड़ों पर घूमते, नक्की-झील की ओर ताकते,अपने अतीत को पीछे धकेलकर फिर से टीन एज की नई ऊर्जा,नई स्फूर्ति का संचरण होने लगा हो।
गोवा के दृश्य भी आँखों से हट नहीं रहे थे। वास्को-बीच,अंग्रेजों का जमघट,समुद्र की लहरें। राजेश अरोरा, महेश गर्ग और सुनील शर्मा की 'तिकड़ी'। मुकेश गुप्ता, अंजनी और अनुभव का 'झारखंड मुक्ति मोर्चा' जैसा घनिष्ठ संपर्क। नंदू बॉस, संजय खटोर, भगवान सिंह सोढ़ा, भानुप्रताप, सुभाष चौधरी का ध्रुवीकरण। महेश माथुर, महेश शर्मा, बाबूलाल भाटी और महेश गर्ग का 'जोधपुरी-गिरोह'। सबके सब बंटे हुए थे, मगर हृदय से एक साथ। अन्यथा,व्हाट -अप पर "एम॰बी॰एम फ्रेंड्स" ग्रुप दो दशकों के बाद उस जमाने की कक्षा की तरह फिर से नया जन्म लेता ? नहीं, आज भी वहीं ऊर्जा है, मगर जीवन की दौड़ में हम बहुत आगे निकल आए हैं। हमारा स्थान हमारे बच्चे ले रहे हैं। ऊधर, वेद प्रकाश मेहंदीदत्ता का बेटा अमेरिका में नए-नए कीर्तिमान स्थापित करते हुए धूम मचा रहा होता है,तो इधर भानु के बेटे अर्चित ने आई॰आई॰टी में अच्छी रेंक प्राप्त कर हम सभी का सम्मान आगे बढ़ाते हुए नजर आता है।
सोनू (हिमेश) की आवाज सुनकर मैं फिर से लौट आया यथार्थ की दुनिया में। भारत के कोने-कोने से बच्चे आए हुए हैं कोटा में। गली-नुक्कड़, सड़क, चौराहे पर सब तरफ बच्चे-ही बच्चे। मानो यह जगह बच्चों का साम्राज्य हो। इस शहर में सरस्वती की पूजा लक्ष्मी करती है। प्रोफेशनल शिक्षाविदों के हाथों में लक्ष्मी की पूजा? उनका वेतन सुनकर आप दांतों तले अंगुली दबा देंगे। सालाना एक करोड़ से लगाकर आठ करोड़ तक। रॉबिन शर्मा ने मल्टीनेशनल कंपनी के सी॰ई॰ओ के लिए फेरारी गाड़ी की तरह यहाँ भी मरसीडीज़ में आते-जाते अध्यापकों को देखना कोई बड़ी बात नहीं है। खैर, जो भी हो, "एजुकेशन फॉर बेटर टुमारों" वाली उक्ति अवश्य चरितार्थ होती है यहाँ ।
'ड्रीम-रेजीडेंसी' के सामने सायबर-कैफे की दुकान पर बैठे एक वयोवृद्ध ने मेरा रेलवे-टिकट बनाते समय बातचीत के दौरान उसके चेहरे पर उभरी व्यंग्य-भरी मुस्कान को देख जब मैंने उसका कारण पूछा तो उन्होने विश्लेषण करते हुए कहा,"जानते हो, यहाँ दो लाख बच्चों में से चालीस प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं,जो पैसों वालों के बच्चे हैं और वे उनसे निजात पाने के लिए भेज देते है यहाँ,चालीस प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं - जिनके पिता अपनी दमित इच्छाओं को पूरी करने के लिए भेज देते हैं और बचे-खुचे बीस प्रतिशत प्रतिभाशाली बच्चों में प्रतिस्पर्धा होती है।"
जब मैंने उसकी बात को काटना चाहा तो मुझे कुछ कहने का अवसर दिए बिना उन्होने कहना जारी रखा,"इस साल आई॰आई॰टी प्रवेश परीक्षा में एल॰ एन॰ कॉलेज वाले लड़के की पहली पोजीशन आई थी और दूसरे दो लड़कों ने तीसरी और आठवीं रेंक हासिल की थी, तो एलेन के मालिक ने प्रथम पोजीशन वाले लड़के को इक्कीस लाख और शेष दोनों को आठ लाख व पाँच लाख रुपए की राशि प्रदान की है। इतना ही नहीं, दो सौ तक रेंक हासिल करने वाले परीक्षार्थी को चार साल तक पाँच हजार रुपए की छात्रवृति देने का प्रावधान है उस संस्था में। "
बस, सब तरफ प्रलोभन ही प्रलोभन! तभी पास खड़े एक अनजान व्यक्ति ने उसकी बात को काटते हुए कहा,"गुरुकुल का जमाना चला गया। पुराने जमाने में जंगलों में कुटिया बनाकर वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए उपनिषदों तथा अन्य ब्राह्मण संहिताओं की रचना पेड़-पौधों के नीचे गुरुकुल में हुई थी,जो संदेश देती थी वैश्विक मानवता का और "वसुधेव कुटुंबकम" का।रवींद्र नाथ टैगोर ने शांति-निकेतन की स्थापना गुरुकुल के रूप में की, जहां से विश्व की विख्यात हस्तियाँ इन्दिरा गांधी और नोबल पुरस्कार विजेता अमृत्य सेन जैसी पैदा हुई। मगर आधुनिक शिक्षा संस्थागत हो गई है विदेशों की तरह। पेड़-पौधों की प्राकृतिक सौंदर्य के सानिध्य की जगह वातानुकूलित गगनचुंबी इमारतों ने ले ली है। इन इमारतों में भविष्य के अभियंता और डाक्टरों का निर्माण होता है किसी फेक्टरी में पैदा हो रहे उत्पाद की तरह। खनन संस्थानों के उत्पादन वाले उपक्रमों की तरह यहाँ मानव-संस्थानों की दक्षता को निखारा जाता है। "
कितने आत्म-विश्वास के साथ उस आदमी ने अपनी दलीलें रखी थी। मगर दूसरे आदमी ने उसकी बात को वहीं तिलांजलि दे दी, यह कहते हुए,"अरे! बड़ी ही अजीब जगह है कोटा। अभी-अभी मैंने घटोत्कच चौराहे की ओर जाते समय देखा कि अधेड़ उम्र की एक औरत बीच रास्ते में सत्तर-अठारह साल के लड़के को बेहताशा पीटे जा रही थी, अपनी लात और घूसों से। यहाँ अगर बात खत्म हो जाती तो कुछ और होता। रास्ते से गुजरने वाला हर कोई आदमी बिना कुछ पूछताछ किए दनादन मारे जा रहा था। लोगों ने उसे इतना मारा कि वह लड़का बेहोश हो गया। पुलिस का हस्तक्षेप करना तो दूर की बात, दूर-दूर तक कोई चौकीदार या होम-गार्ड नजर नहीं आ रहा था। किसी एक शख्स ने बड़ी हिम्मत के साथ कहा,माजरा क्या है? तो उस औरत ने कहा कि वह कई दिनों से उसे मोबाइल द्वारा मेसेज और मिसकाल कर रहा था यह लड़का मुझे। आगे बढ़कर जब उस आदमी ने उस औरत के मोबाइल में उसके मिसक़ाल के नंबर देखने चाहे तो वह औरत भाग खड़ी हुई।"
शायद वह आदमी मुझे अनजाना समझकर डराने का प्रयास कर रहा था। घटना सत्य थी या असत्य, मुझे मालूम नहीं। मगर नई पीढ़ी की नई तकनीकी के साथ हो रही घनिष्ठ मित्रता और उसका दुरुपयोग किसी अनजान खतरे को अवश्य आमंत्रित कर रहा था।
मगर कोटा के कठोर अनुशासन का भी मैं साक्षी था, इसलिए इस घटना पर मुझे कुछ संदेह हो रहा था। जब अरविंद नन्दवाना बॉस मुझे और सोनू (हिमेश) को अपने घर ले जाने के लिए लेने आए तो हॉस्टल वार्डन ने साफ मना कर दिया कि साढ़े नौ के बाद न तो हम पेरेंट और न भी किसी बच्चे को बाहर जाने की अनुमति देते हैं। फिर भी अगर आप बाहर जाना चाहते हैं तो वाइण्ड-अप कर बच्चे समेत अपने साथ ले सकते हैं। मन-ही-मन मुझे क्रोध आ रहा था। क्या हम चोर-लूच्चे-लफंगे हैं? मगर नंदू बॉस अंगुली के इशारे से मुझे मना कर रहे थे।
फिर संयत स्वर में उन्होने कहा,"मैं खुद कोटा का रहने वाला हूँ और राजस्थान खनन विभाग का एक अधिकारी हूँ।हम सहपाठी है जोधपुर कॉलेज के। लगभग बाईस-तैइस साल के बाद हम लोग मिल रहे हैं कॉलेज छोड़ने के बाद पहली बार। और उधर हमने खाना बना दिया है, वह खराब हो जाएगा।"
मुझे नंदू बॉस का वार्डन के साथ मिन्नतें करना अखर रहा था। मगर उनके शांति-प्रिय व्यवहार ने हॉस्टल-वार्डन को प्रभावित कर दिया और गुस्सा थूककर रिसेप्शन पर बैठे अपने बेटे से शांत लहजे में वह कहने लगे,"अच्छा,ठीक है।कागज की एक स्लिप पर उन्हें लिखकर दे दो, ज्यादा से ज्यादा साढ़े दस बजे तक बाहर रह सकते है।" इतना कठोर अनुशासन तो जोधपुर की हॉस्टलों में नजर नहीं आता था, हमारे पढ़ाई के समय। मगर बेटे के भविष्य का सवाल है, मुझे उसके हित-अहित के बारे में अवश्य सोचना चाहिए। नंदू बॉस ने तो ठीक ही कहा था, इतना अनुशासन भी जरूरी है बच्चों के लिए। अन्यथा बिगड़ जाने का ज्यादा खतरा है। इस एपिसोड की समाप्ति के बाद हमने समय का ध्यान रखते हुए रेजोनेन्स के पास बने मॉल के अंदर किसी रेस्टोरेन्ट में खाना खाने का निश्चय किया। कुछ ही मिनटों के बाद देवेन्द्र गौड़ भी वहाँ पहुँच गया। मॉल के छठे माले पर बने एक शाकाहारी रेस्टोरेन्ट में खाना खाते समय गौड़ के साथ आए एक मित्र ने हम सभी का एक फोटो खींचकर 'व्हाट्स-अप्प' के 'एम॰बी॰एम फ्रेंड्स' ग्रुप में भेज दिया । भेजते ही दोस्तों के कमेन्ट आने शुरू हुए इस तरह,
"ग्रेट!"
"फोटो किसने खींचा? पक्का .... वह होगी?"
"टेबल पर ड्रिंक नहीं है।पार्टी है या प्रेयर-सभा ?"
"सारे के सारे भक्त हैं और नंदू बॉस उनका चेयरमेन।"
"डी॰के॰ की जय हो!"
(कॉलेज में दोस्त लोग मुझे 'डी॰के॰' के नाम से संबोधित करते थे।)
सारे कमेन्ट यह महसूस करा रहे थे कि जीवन में कई घटनाएँ फिर से दुहराती नजर आती है। जीवन के किसी न किसी मोड पर दोस्तों का मिलना हो ही जाता है। नंदू बॉस को देखकर मन प्रफुल्लित हो उठा था। अभी भी वही दुबला-पतला शरीर,चेहरे पर आयुष-गंभीरता और मितभाषिता। हृदय से निकलने वाले सहज प्रेम में किसी तरह की कमी नहीं थी। अचानक मेरा ध्यान उनकी लड़खड़ाती चाल की तरह गया, मेरे से रहा नहीं गया और मैं पूछ बैठा," बॉस,क्या कुछ प्रोब्लम है चलने में ?"
"नहीं, ऐसी कोई खास बात नहीं हैं। दो साल पहले एक एक्सीडेंट हो गया था। जिसमें बाएँ पाँव की हड्डी टूट गई थी। उसे सपोर्ट देने के लिए लोहे की रॉड लगाई है। इसलिए चलने में ...." बहुत ही सहजता से कहा था उन्होंने, जैसे कुछ भी नहीं घटा हो।
देवेंद्र गौड़ का सतेज चेहरा अपने अंतस के आभिजात्य को दर्शा रहा था। अपने नपे-तुले शब्द,मार्जित भाषा और दोस्तों के लिए दिल में एक कसक और उमड़ता हुआ प्यार-शायद ही ऐसा कोई दोस्त बचा हो जिसे उसने याद नहीं किया हो। अनीस अहमद, अंजनी सैनी,अनुभव वर्मा, वेद प्रकाश मेहंदीदत्ता, चौधरी-त्रय(सुभाष, शंकर, श्याम),महेश-त्रय(गर्ग, शर्मा, माथुर),खनन-विभाग राजस्थान(भगवान सिंह सोढ़ा, जेडी, जेकी),कंसलटेंट (मुकेश गुप्ता, राजेश अरोरा);धुंधली स्मृति से बाहर आते कुछ नाम जैसे चेनाराम चौधरी,जयसिंह जग्गावत। किसकी क्या उपलब्धियां रही? कौन कहाँ क्या कर रहा है? बाल-बच्चे कैसे है? कितने बड़े हो गए है? तरह-तरह के वार्तालाप। मलेशिया में स्थापित अमित दोषी को भी कोई नहीं भूला था। जीवन की यही तो आत्मीयता है और क्या रखा है असार जीवन में? वार्तालाप के कुछ कथानक थे जैसे :-
" पालारिया सर ने जोधपुर में इंजिनयरिंग कॉलेज खोला है किसी के साथ पार्टनरशिप में। वह तो शुरू से ही प्रोफेशनल आदमी थे। सर्वे-विभाग में उनके साथ खेतान साहब भी थे,जिनके हाथ पार्किनसन बीमारी से कांपते थे।"
" आजकल तो कोई खास प्रोफेसर भी नहीं बचे है जोधपुर कॉलेज में । क्या जोधपुर का माइनिग विभाग बंद हो जाएगा,अगर सरकार कोई वेकेन्सी नहीं निकालती है तो?"
" शायद इस समय अत्तर सिंह अथवा परिहार साहब कॉलेज के एच॰ओ॰डी होंगे। भदादा साहब, भंडारी साहब और एस॰ एस॰ सिंह स्वर्गसिधार गए है। काकाजी और टाटिया साहब बहुत मेहनत कर पढ़ाते थे। आज भी काकाजी (के॰के॰गुप्ता) की हॉल रोड़ डिजाइन और रतनराज टाटिया साहब की एलिमेक रेज़ क्लाइमबर की प्लानिंग बहुत याद आती है।"
कितनी सारी अतीत की यादें तरोताजा हो गई थी हमारी गपशप में। वहीं आँखें जो कभी कक्षा में पीछे बैठने पर भी बोर्ड पर लिखे जा रहे महीन अक्षरों को आराम से पढ़ लेती थी,मगर उन सभी आँखों को रेस्टोरेन्ट में न केवल दूर लिखे अक्षरों को वरन टेबल पर सामने रखे बिल को बिना चश्में की सहायता के पढ़ने में कठिनाई अनुभव हो रही थी सभी को। कॉलेज छोड़े हुए बहुत जमाना बीत गया था। उम्र का आधा पड़ाव लगभग पार होने जा रहा था। उन्मुक्त जीवन पीछे छूट गया था।
याद आते-आते नंदू बॉस को अंजनी की याद हो आई ।
" अरे! अंजनी से बात करवाओ। वह फोन कहाँ उठाता है?"
मैंने अंजनी को फोन लगाया तब वह सो चुका था। शायद बंगलुरु में बिजनेस सेट करते-करते ज्यादा थक गया होगा। तभी देवेन्द्र को मुकेश गुप्ता की भी याद आई।पूछने पर वह कहने लगा,"जयपुर में उसकी कंसल्टेंसी ठीक-ठाक चल रही है। खास मजा तो नहीं है,मगर जयपुर में रहकर अपना खर्च निकाल लेता है तो कोई कम बड़ी बात नहीं है।"
फिर सिलसिला शुरू हो गया कॉलेज के दोस्तों को याद करने का।
".... भगवान सिंह सोढ़ा सहायक निदेशक हो गया है राजस्थान सरकार में। शुरू से वह हरफनमौला था। ... अनीस अहमद दुबई से लौटकर उदयपुर में पता नहीं क्या कर रहा है? कोई कह रहे थे कि विदेशी-यात्राओं का टूर ऑपरेटर है। किस्मत भी क्या-क्या रंग दिखाती है अजीबो-गरीब! उसका भी हमारे साथ महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड में प्रबंध-प्रशिक्षु के रूप में चयन हुआ था,मगर उसने होम-सिकनेस की वजह से ओड़िशा ज्वाइन नहीं किया था। ....... वेदू भले ही यू॰एस॰ए में सॉफ्टवेयर की कंसल्टेंसी कर रहा हो, मगर अपने बच्चों को भारतीय-संस्कृति की सीख देना नहीं भूला।देखा नहीं, फेसबुक पर अपलोड किए फोटो में धोती पहनकर गणेश-पूजा कर रहा था अपने परिवार के साथ। .... भानु का तो कहना ही क्या है, मुंबई में रिलाइन्स इंडस्ट्रीज में माइनिंग डिवीजन का कंट्री-मैनेजर है। बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी वाली पोस्ट है यह प्राइवेट में ... अनुभव वर्मा भी तो अच्छा कर रहा है। हैदराबाद के पास में है कहीं एसीसी में। बेंगलोर में फ्लेट खरीदना चाहता है। फेमिली जयपुर में सेटल किया है ..."
बातों का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा था। ड्रीम-रेजीडेंसी के हॉस्टल-वार्डन की कड़ी चेतावनी याद आते ही सारी बातों को बीच में विराम देते हुए खाना समाप्त कर हमने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया। तभी जे॰डी॰ को फोन लगाकर देवेंद्र ने मुझे पकड़ा दिया उसे यह कहते हुए,"यह आवाज किसकी है? पहचानकर बताओ ?"
शायद जे॰डी॰ के लिए यह अप्रत्याशित झटका था। वह मेरी आवाज "हेलो ,हेलो" नहीं पहचान सका। वह तो अपने सपने में भी नहीं सोच सकता था कि मैं कोटा में कैसे हो सकता हूँ? मगर जब मैंने अपना परिचय देते हुए सारी वस्तु-स्थिति को बताया तो उसकी आवाज से लगा जैसे एक लंबे अरसे से छुपा प्रेम छलक पड़ा हो," डी॰के॰ बॉस, आज भी जोधपुर में जब मैं रातानाड़ा से गुजरता हूँ तो तुम्हारे भीकमदास परिहार हॉस्टल की याद आती है। हम तो माइनिंग वाले होकर भी फॉरेस्टवाले बन गए है।" फिर ज़ोरदार हंसी की आवाज के साथ वह कहने लगा," कभी समय निकालकर इधर भी आओ, डी॰के॰ बॉस। तुम्हारे सिरोही के पास शिवगंज में मैंने अपना घर बनाया है।"
जे॰डी॰ ने डिग्री पूरी करने के बाद राजस्थान सरकार में फॉरेस्ट सेर्विसेज की परीक्षा देकर अपना केरियर इसी क्षेत्र में बना लिया था और शिवगंज में पोस्टिंग के तहत अपना मकान भी वहाँ बना दिया था।
सन 1992 से बिखरे दोस्तों की सारी इधर-उधर की स्मृतियों को खंगालते हुए नंदू बॉस और देवेंद्र ने हमें ड्रीम-रेजीडेंसी में "गुड-नाइट" के साथ विदा कर दिया।
दूसरा दिन था मेरे लिए रेजोनेन्स के परिदर्शन का। रेजोनेन्स -शिक्षा के क्षेत्र का एक अग्रणी व्यापारिक संस्थान। आई॰आई॰टी के टॉपर इस संस्थान में पढ़ाते है। उच्च वेतन और सारी सुविधाएं मुहैया करवाता है यह संस्थान उन्हें।एअरपोर्ट की तरह वातानुकूलित बड़े-बड़े हाल, अल्पाहार के केबिन, पूछ-ताछ के काउंटर के अलावा बुक-बैंक की डेस्क पर हर समय आपको हाजिर मिलेंगे सेल्स-मैनेजर और उनके सहायक, जो आपको गाइड करेंगे आपकी मनपसंद पुस्तकों को डिस्काउंट रेट पर खरीदने में। उसके लिए आपको एक फॉर्म भरना पड़ेगा। दस मंज़िला इमारत में भीड़ भी इतनी कि मानो पुरी की रथयात्रा के समय अक्सर रेलवे-स्टेशनों या पुरी के "बड़-दांड" पर नजर आती है। खचाखच भरे लोगों का एक रेला निकल आया हो जैसे। किसी के पास समय नहीं है, किसी की ओर देखने का,सभी भागे जा रहे हैं अपने अनिर्धारित उद्देश्य की ओर। एक अधेड़ उम्र वाले जींस पहने हुए आदमी की ओर इशारा करते हुए हिमेश ने मुझे बताया,"पापा! ये हमारे मैथ के सर थे। अभी केवल आई॰आई॰टी की तैयारी करने वाले टॉप बेच वालों को पढ़ाते हैं।"
" टॉप बेच?" मैं नहीं समझ पाया था।
मुझे समझाने के उद्देश्य से वह कहने लगा,"आई॰आई॰टी की तैयारी करने के लिए जितने भी लड़के यहाँ आते है। उनका बीच-बीच में स्क्रीनिंग टेस्ट होता है। फिर मेरिट के हिसाब से सौ-सौ के बेच बनाए जाते हैं। ऐसे कुल मिलाकर उन्नीस-बीस बेच बनते हैं। पहले तीन-चार बेचों को वह सर पढ़ाते हैं।"
"तुम्हारा बेच कौनसा है?" जानते हुए भी मैंने उससे पूछा। क्योंकि आपके मोबाइल में संदेश के जरिए रेजोनेन्स वाले आपके बेटे की परफ़ोर्मेंस के बारे में अपडेट करते रहते हैं।
" मेरा बेच तीन से पाँच हो गया है।"
"क्यों?" मैंने पूछा। निरुत्तर, उसके चेहरे पर अवसाद के भाव साफ दिखाई दे रहे थे। तालचेर की प्रसिद्ध डी॰ए॰वी कलिंगा का एक अच्छा छात्र होने के बावजूद उसकी निराशा मुझे भीतर से दुखी कर दे रही थी। बाल-मन की इस अवस्था से मैं वाकिफ था। शिक्षा के परंपरागत ढांचे से अचानक निकलकर अगर आपको खुले आकाश में उड़ना पड़े तो निश्चय ही कुछ भटकाव महसूस होगा। भाटवाडेकर की फिजिक्स की जगह अगर रेसनिक एंड हेलिडे, सीयर्स जेमांसकी, नेल्सन पार्कर, इराडोव; केमिस्ट्री में पी॰एल॰ सोनी की जगह ब्रूस॰ एस॰ महान, एल॰ फ्रीमेन और मैथेमेटिक्स में हाल एंड नाइट की अलजेबरा,एसएल लोने की ट्रिगनोमेट्री पढ़नी पढ़े तो अवश्य विषय पर मजबूत पकड़ होने तक आपका आत्म-विश्वास डोलता हुआ नजर आएगा। 18वीं सदी की लिखी हुई विदेशी लेखकों की किताबें आज भी हमारे देश में तकनीकी कॉलेजों में प्रवेश लेने के लिए प्रचलित हैं। क्या कोई भारतीय लेखक अभी तक पैदा नहीं हुआ,सारे विषयों को अपनी भाषा में लिखता? किसी भाषाविद ने कहा था,"अगर हम अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा देते है तो हम उनके जीवन में पढ़ाई के दो-तीन साल का प्रोडक्टिव समय बचा सकते हैं।" मगर दुख इस बात का है कि भारतीय शिक्षा-पद्धति में अभी तक वैज्ञानिक और तकनीकी पुस्तकों का अभीतक सार्थक अनुवाद तक नहीं हुए है। अभी भी वैशाखी पर चल रहे हैं हम। किसी ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था,कोटा में अगर हर साल तीन-चार लाख लड़के आई॰आई॰टी की तैयारी करते हैं और उनमें से अगर तीन-चार हजार आई॰आई॰टी पा भी जाते हैं तो कौनसा तीर मार लेते हैं? कोटा के किसी इंस्टीट्यूट के सीनियर मैनेजर ने कहा था,"हमारा फोकस स्क्रीनिंग वाले कोर ग्रुप की ओर ही होता है। उनके लिए एक्सट्रा क्लासेज, विशेष सामग्री और विशेष ध्यान रखते हैं हम। यहाँ तक कि हॉस्टलों में जाकर पढ़ाती है हमारी फेकल्टी। कोर-ग्रुप ही हमारा आकर्षण है, हमारा बिजनेस है। बाकी सब तो केवल भगवान भरोसे, हमारा लाभांश हैं। शिक्षा के इस भव्य-आद्यौगीकरण का आधार हैं यह लाभांश। करोड़ों के पेकेज देने पड़ते हैं, बड़ी-बड़ी फेकल्टियों को। उद्योग धंधे हैं कहाँ यहाँ? रावतभाटा का परमाणु विद्युत संयंत्र और ज्यादा से ज्यादा कोटा स्टोन की खदानें। यहाँ जो लोग हैं, अगर पैसे वाले हैं तो बहुत ज्यादा पैसे वाले और अगर गरीब है तो कुछ ज्यादा ही गरीब। गरीबी और अमीरी के इस अंतराल को मैंने वहाँ अपने दो-तीन दिन के आवास के दौरान अनुभव कर लिया था। कुकरमुत्तों की तरह जगह-जगह खुली गगनचुम्बी इमारतों पर लगे विभिन्न सुसज्जित नाम-पट्टों जैसे एल॰एन कॉलेज,केरियर पॉइंट,रेजोनेन्स,आकाश,वाइब्रेंट के मनोहारी केम्पसों में पढ़ने और थ्री-स्टार होटेलों की सुविधावाली रेजीडेंसियों में रहने वाले लाखों विद्यार्थियों में से भारत का भविष्य- टेक्नोक्रेट एवं डॉक्टरों के निर्माण की नींव की ईंट यहाँ रखी जाती हैं।"
समय बदल गया है। बदला ही नहीं है समय। वास्तव में समय ही नहीं है किसी के पास। जीवन का उद्देश्य नौकरी करना और सिर्फ कमाना है। सिर्फ डॉक्टर या इंजिनयर बनाना हैं? खून-पसीने से अर्जित की हुई जीवनभर की संचित पूंजी अपने सुखद भविष्य की आश में मुच्यूल फंड की निवेश करता जाता है आम आदमी।
रेजोनेन्स से बाहर निकलकर हमने सामने बने एक विराट मॉल की ओर प्रस्थान किया। संगीत के मद्धिम स्वर,ब्रांडेड कपड़ों की दुकानें , हेंडीक्राफ्ट, इलेक्ट्रोनिक और मोबाइल की दुकानें, रेस्टोरेन्ट। लोग ही लोग। किशोर बच्चों के ग्रुप मेकडोनाल्ड फूड कॉर्नर में पिज्जा और बर्गर खाते हुए। संगीत के स्वर मुझे अपने अतीत की ओर खींच रहे थे। देखते-देखते मैं अपने बचपन में लौट आया। कृशकाय,लंबे-कद,धोती और साफा पहने हुए मेरे पिताजी अपने हाथ में छ्डी लिए आगे बढ़ते हुए मेरी तरफ आ रहे थे। उनकी धीमी आवाज मुझे सुनाई दे रही थी," उस समय तो मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि तुम्हें कुछ ऐसी ट्रेनिंग दिला पाता। बिना किसी प्रकार की कोचिंग किए या ट्यूशन किए अपने बलबूते पर अपनी मंजिल पाई। आई॰आई॰टी नहीं मिली तो क्या हुआ, एम॰बी॰एम जोधपुर भी तो कम नहीं थी उस समय? मेरे दिल के टुकड़े थे तुम और मेरा गर्व और गौरव भी! "
मेरी आँखें नम हो गई थी। मैं शून्य की ओर देखने लगा। समय बदल चुका था। प्रतिस्पर्धा का युग है अब। जरा-सी चूक हुई नहीं कि एक अपार भीड़ आपको क्रश करती हुई आगे निकल जाएगी। गालिब की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई:- " वह जमाना कुछ और था,जब घर कच्चे ,मगर दिल सच्चे हुआ करते थे।"
मगर आज? मकान पक्के होना चाहिए। मैं कुछ कहने ही जा रह था," पिताजी ...!"
तभी मॉल में वुडलेंड की दुकान से जूते,टी-शर्ट का बिल चुकाने का इशारा करते हुए हिमेश कहने लगा,"पापा, चलिए, हो गया है। और कुछ नहीं चाहिए।"
राजस्थान का होने के बावजूद भी मुझे कभी कोटा देखने का मौका नहीं मिला था। याद नहीं आ रहा है, सन 1986 या 1987 की बात होगी, जब कभी कोटा के बुद्धि राजा ने सारे भारत में आई॰आई॰टी में प्रथम स्थान प्राप्त किया था,तब से कोटा देखने की सुषुप्त लालसा मन में जाग उठी थी। साथ ही साथ,कोटा का न्यूक्लियर बिजली घर देखने की भी इच्छा थी। मगर सैंतीस साल तक यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। जीवन में पहली बार वह घड़ी आई,जब इसे मूर्तरूप प्रदान हुआ, बेटे हिमेश को ग्यारहवीं कक्षा में रेजोनेन्स में दाखिला करवाने के उद्देश्य से मुझे वहाँ जाना पड़ा। सौभाग्य से,मेरी पहली विजिट एक अभूतपूर्व यादगार बन गई, हमारे 1992 बेच के गोल्ड-मेडलिस्ट रहे नंदू बॉस और अन्य परम मित्र देवेन्द्र गौड़ से मिलकर। दोनों मगनीराम बांगड मेमोरियल इंजिनयरिंग कॉलेज ,जोधपुर में मेरे सहपाठी थे। उन्हें देखते ही कॉलेज-जमाने के भारत-भ्रमण के दिन याद आने लगे,कितने शरारत भरे दिन हुआ करते थे वे! देखते-देखते ऐसा लगने लगा,जैसे वार्धक्य की ओर अग्रसर हो रहा जीवन ने यहीं विराम ले लिया हो और अल्मोड़ा-नैनीताल के पहाड़ों पर घूमते, नक्की-झील की ओर ताकते,अपने अतीत को पीछे धकेलकर फिर से टीन एज की नई ऊर्जा,नई स्फूर्ति का संचरण होने लगा हो।
गोवा के दृश्य भी आँखों से हट नहीं रहे थे। वास्को-बीच,अंग्रेजों का जमघट,समुद्र की लहरें। राजेश अरोरा, महेश गर्ग और सुनील शर्मा की 'तिकड़ी'। मुकेश गुप्ता, अंजनी और अनुभव का 'झारखंड मुक्ति मोर्चा' जैसा घनिष्ठ संपर्क। नंदू बॉस, संजय खटोर, भगवान सिंह सोढ़ा, भानुप्रताप, सुभाष चौधरी का ध्रुवीकरण। महेश माथुर, महेश शर्मा, बाबूलाल भाटी और महेश गर्ग का 'जोधपुरी-गिरोह'। सबके सब बंटे हुए थे, मगर हृदय से एक साथ। अन्यथा,व्हाट -अप पर "एम॰बी॰एम फ्रेंड्स" ग्रुप दो दशकों के बाद उस जमाने की कक्षा की तरह फिर से नया जन्म लेता ? नहीं, आज भी वहीं ऊर्जा है, मगर जीवन की दौड़ में हम बहुत आगे निकल आए हैं। हमारा स्थान हमारे बच्चे ले रहे हैं। ऊधर, वेद प्रकाश मेहंदीदत्ता का बेटा अमेरिका में नए-नए कीर्तिमान स्थापित करते हुए धूम मचा रहा होता है,तो इधर भानु के बेटे अर्चित ने आई॰आई॰टी में अच्छी रेंक प्राप्त कर हम सभी का सम्मान आगे बढ़ाते हुए नजर आता है।
सोनू (हिमेश) की आवाज सुनकर मैं फिर से लौट आया यथार्थ की दुनिया में। भारत के कोने-कोने से बच्चे आए हुए हैं कोटा में। गली-नुक्कड़, सड़क, चौराहे पर सब तरफ बच्चे-ही बच्चे। मानो यह जगह बच्चों का साम्राज्य हो। इस शहर में सरस्वती की पूजा लक्ष्मी करती है। प्रोफेशनल शिक्षाविदों के हाथों में लक्ष्मी की पूजा? उनका वेतन सुनकर आप दांतों तले अंगुली दबा देंगे। सालाना एक करोड़ से लगाकर आठ करोड़ तक। रॉबिन शर्मा ने मल्टीनेशनल कंपनी के सी॰ई॰ओ के लिए फेरारी गाड़ी की तरह यहाँ भी मरसीडीज़ में आते-जाते अध्यापकों को देखना कोई बड़ी बात नहीं है। खैर, जो भी हो, "एजुकेशन फॉर बेटर टुमारों" वाली उक्ति अवश्य चरितार्थ होती है यहाँ ।
'ड्रीम-रेजीडेंसी' के सामने सायबर-कैफे की दुकान पर बैठे एक वयोवृद्ध ने मेरा रेलवे-टिकट बनाते समय बातचीत के दौरान उसके चेहरे पर उभरी व्यंग्य-भरी मुस्कान को देख जब मैंने उसका कारण पूछा तो उन्होने विश्लेषण करते हुए कहा,"जानते हो, यहाँ दो लाख बच्चों में से चालीस प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं,जो पैसों वालों के बच्चे हैं और वे उनसे निजात पाने के लिए भेज देते है यहाँ,चालीस प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं - जिनके पिता अपनी दमित इच्छाओं को पूरी करने के लिए भेज देते हैं और बचे-खुचे बीस प्रतिशत प्रतिभाशाली बच्चों में प्रतिस्पर्धा होती है।"
जब मैंने उसकी बात को काटना चाहा तो मुझे कुछ कहने का अवसर दिए बिना उन्होने कहना जारी रखा,"इस साल आई॰आई॰टी प्रवेश परीक्षा में एल॰ एन॰ कॉलेज वाले लड़के की पहली पोजीशन आई थी और दूसरे दो लड़कों ने तीसरी और आठवीं रेंक हासिल की थी, तो एलेन के मालिक ने प्रथम पोजीशन वाले लड़के को इक्कीस लाख और शेष दोनों को आठ लाख व पाँच लाख रुपए की राशि प्रदान की है। इतना ही नहीं, दो सौ तक रेंक हासिल करने वाले परीक्षार्थी को चार साल तक पाँच हजार रुपए की छात्रवृति देने का प्रावधान है उस संस्था में। "
बस, सब तरफ प्रलोभन ही प्रलोभन! तभी पास खड़े एक अनजान व्यक्ति ने उसकी बात को काटते हुए कहा,"गुरुकुल का जमाना चला गया। पुराने जमाने में जंगलों में कुटिया बनाकर वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए उपनिषदों तथा अन्य ब्राह्मण संहिताओं की रचना पेड़-पौधों के नीचे गुरुकुल में हुई थी,जो संदेश देती थी वैश्विक मानवता का और "वसुधेव कुटुंबकम" का।रवींद्र नाथ टैगोर ने शांति-निकेतन की स्थापना गुरुकुल के रूप में की, जहां से विश्व की विख्यात हस्तियाँ इन्दिरा गांधी और नोबल पुरस्कार विजेता अमृत्य सेन जैसी पैदा हुई। मगर आधुनिक शिक्षा संस्थागत हो गई है विदेशों की तरह। पेड़-पौधों की प्राकृतिक सौंदर्य के सानिध्य की जगह वातानुकूलित गगनचुंबी इमारतों ने ले ली है। इन इमारतों में भविष्य के अभियंता और डाक्टरों का निर्माण होता है किसी फेक्टरी में पैदा हो रहे उत्पाद की तरह। खनन संस्थानों के उत्पादन वाले उपक्रमों की तरह यहाँ मानव-संस्थानों की दक्षता को निखारा जाता है। "
कितने आत्म-विश्वास के साथ उस आदमी ने अपनी दलीलें रखी थी। मगर दूसरे आदमी ने उसकी बात को वहीं तिलांजलि दे दी, यह कहते हुए,"अरे! बड़ी ही अजीब जगह है कोटा। अभी-अभी मैंने घटोत्कच चौराहे की ओर जाते समय देखा कि अधेड़ उम्र की एक औरत बीच रास्ते में सत्तर-अठारह साल के लड़के को बेहताशा पीटे जा रही थी, अपनी लात और घूसों से। यहाँ अगर बात खत्म हो जाती तो कुछ और होता। रास्ते से गुजरने वाला हर कोई आदमी बिना कुछ पूछताछ किए दनादन मारे जा रहा था। लोगों ने उसे इतना मारा कि वह लड़का बेहोश हो गया। पुलिस का हस्तक्षेप करना तो दूर की बात, दूर-दूर तक कोई चौकीदार या होम-गार्ड नजर नहीं आ रहा था। किसी एक शख्स ने बड़ी हिम्मत के साथ कहा,माजरा क्या है? तो उस औरत ने कहा कि वह कई दिनों से उसे मोबाइल द्वारा मेसेज और मिसकाल कर रहा था यह लड़का मुझे। आगे बढ़कर जब उस आदमी ने उस औरत के मोबाइल में उसके मिसक़ाल के नंबर देखने चाहे तो वह औरत भाग खड़ी हुई।"
शायद वह आदमी मुझे अनजाना समझकर डराने का प्रयास कर रहा था। घटना सत्य थी या असत्य, मुझे मालूम नहीं। मगर नई पीढ़ी की नई तकनीकी के साथ हो रही घनिष्ठ मित्रता और उसका दुरुपयोग किसी अनजान खतरे को अवश्य आमंत्रित कर रहा था।
मगर कोटा के कठोर अनुशासन का भी मैं साक्षी था, इसलिए इस घटना पर मुझे कुछ संदेह हो रहा था। जब अरविंद नन्दवाना बॉस मुझे और सोनू (हिमेश) को अपने घर ले जाने के लिए लेने आए तो हॉस्टल वार्डन ने साफ मना कर दिया कि साढ़े नौ के बाद न तो हम पेरेंट और न भी किसी बच्चे को बाहर जाने की अनुमति देते हैं। फिर भी अगर आप बाहर जाना चाहते हैं तो वाइण्ड-अप कर बच्चे समेत अपने साथ ले सकते हैं। मन-ही-मन मुझे क्रोध आ रहा था। क्या हम चोर-लूच्चे-लफंगे हैं? मगर नंदू बॉस अंगुली के इशारे से मुझे मना कर रहे थे।
फिर संयत स्वर में उन्होने कहा,"मैं खुद कोटा का रहने वाला हूँ और राजस्थान खनन विभाग का एक अधिकारी हूँ।हम सहपाठी है जोधपुर कॉलेज के। लगभग बाईस-तैइस साल के बाद हम लोग मिल रहे हैं कॉलेज छोड़ने के बाद पहली बार। और उधर हमने खाना बना दिया है, वह खराब हो जाएगा।"
मुझे नंदू बॉस का वार्डन के साथ मिन्नतें करना अखर रहा था। मगर उनके शांति-प्रिय व्यवहार ने हॉस्टल-वार्डन को प्रभावित कर दिया और गुस्सा थूककर रिसेप्शन पर बैठे अपने बेटे से शांत लहजे में वह कहने लगे,"अच्छा,ठीक है।कागज की एक स्लिप पर उन्हें लिखकर दे दो, ज्यादा से ज्यादा साढ़े दस बजे तक बाहर रह सकते है।" इतना कठोर अनुशासन तो जोधपुर की हॉस्टलों में नजर नहीं आता था, हमारे पढ़ाई के समय। मगर बेटे के भविष्य का सवाल है, मुझे उसके हित-अहित के बारे में अवश्य सोचना चाहिए। नंदू बॉस ने तो ठीक ही कहा था, इतना अनुशासन भी जरूरी है बच्चों के लिए। अन्यथा बिगड़ जाने का ज्यादा खतरा है। इस एपिसोड की समाप्ति के बाद हमने समय का ध्यान रखते हुए रेजोनेन्स के पास बने मॉल के अंदर किसी रेस्टोरेन्ट में खाना खाने का निश्चय किया। कुछ ही मिनटों के बाद देवेन्द्र गौड़ भी वहाँ पहुँच गया। मॉल के छठे माले पर बने एक शाकाहारी रेस्टोरेन्ट में खाना खाते समय गौड़ के साथ आए एक मित्र ने हम सभी का एक फोटो खींचकर 'व्हाट्स-अप्प' के 'एम॰बी॰एम फ्रेंड्स' ग्रुप में भेज दिया । भेजते ही दोस्तों के कमेन्ट आने शुरू हुए इस तरह,
"ग्रेट!"
"फोटो किसने खींचा? पक्का .... वह होगी?"
"टेबल पर ड्रिंक नहीं है।पार्टी है या प्रेयर-सभा ?"
"सारे के सारे भक्त हैं और नंदू बॉस उनका चेयरमेन।"
"डी॰के॰ की जय हो!"
(कॉलेज में दोस्त लोग मुझे 'डी॰के॰' के नाम से संबोधित करते थे।)
सारे कमेन्ट यह महसूस करा रहे थे कि जीवन में कई घटनाएँ फिर से दुहराती नजर आती है। जीवन के किसी न किसी मोड पर दोस्तों का मिलना हो ही जाता है। नंदू बॉस को देखकर मन प्रफुल्लित हो उठा था। अभी भी वही दुबला-पतला शरीर,चेहरे पर आयुष-गंभीरता और मितभाषिता। हृदय से निकलने वाले सहज प्रेम में किसी तरह की कमी नहीं थी। अचानक मेरा ध्यान उनकी लड़खड़ाती चाल की तरह गया, मेरे से रहा नहीं गया और मैं पूछ बैठा," बॉस,क्या कुछ प्रोब्लम है चलने में ?"
"नहीं, ऐसी कोई खास बात नहीं हैं। दो साल पहले एक एक्सीडेंट हो गया था। जिसमें बाएँ पाँव की हड्डी टूट गई थी। उसे सपोर्ट देने के लिए लोहे की रॉड लगाई है। इसलिए चलने में ...." बहुत ही सहजता से कहा था उन्होंने, जैसे कुछ भी नहीं घटा हो।
देवेंद्र गौड़ का सतेज चेहरा अपने अंतस के आभिजात्य को दर्शा रहा था। अपने नपे-तुले शब्द,मार्जित भाषा और दोस्तों के लिए दिल में एक कसक और उमड़ता हुआ प्यार-शायद ही ऐसा कोई दोस्त बचा हो जिसे उसने याद नहीं किया हो। अनीस अहमद, अंजनी सैनी,अनुभव वर्मा, वेद प्रकाश मेहंदीदत्ता, चौधरी-त्रय(सुभाष, शंकर, श्याम),महेश-त्रय(गर्ग, शर्मा, माथुर),खनन-विभाग राजस्थान(भगवान सिंह सोढ़ा, जेडी, जेकी),कंसलटेंट (मुकेश गुप्ता, राजेश अरोरा);धुंधली स्मृति से बाहर आते कुछ नाम जैसे चेनाराम चौधरी,जयसिंह जग्गावत। किसकी क्या उपलब्धियां रही? कौन कहाँ क्या कर रहा है? बाल-बच्चे कैसे है? कितने बड़े हो गए है? तरह-तरह के वार्तालाप। मलेशिया में स्थापित अमित दोषी को भी कोई नहीं भूला था। जीवन की यही तो आत्मीयता है और क्या रखा है असार जीवन में? वार्तालाप के कुछ कथानक थे जैसे :-
" पालारिया सर ने जोधपुर में इंजिनयरिंग कॉलेज खोला है किसी के साथ पार्टनरशिप में। वह तो शुरू से ही प्रोफेशनल आदमी थे। सर्वे-विभाग में उनके साथ खेतान साहब भी थे,जिनके हाथ पार्किनसन बीमारी से कांपते थे।"
" आजकल तो कोई खास प्रोफेसर भी नहीं बचे है जोधपुर कॉलेज में । क्या जोधपुर का माइनिग विभाग बंद हो जाएगा,अगर सरकार कोई वेकेन्सी नहीं निकालती है तो?"
" शायद इस समय अत्तर सिंह अथवा परिहार साहब कॉलेज के एच॰ओ॰डी होंगे। भदादा साहब, भंडारी साहब और एस॰ एस॰ सिंह स्वर्गसिधार गए है। काकाजी और टाटिया साहब बहुत मेहनत कर पढ़ाते थे। आज भी काकाजी (के॰के॰गुप्ता) की हॉल रोड़ डिजाइन और रतनराज टाटिया साहब की एलिमेक रेज़ क्लाइमबर की प्लानिंग बहुत याद आती है।"
कितनी सारी अतीत की यादें तरोताजा हो गई थी हमारी गपशप में। वहीं आँखें जो कभी कक्षा में पीछे बैठने पर भी बोर्ड पर लिखे जा रहे महीन अक्षरों को आराम से पढ़ लेती थी,मगर उन सभी आँखों को रेस्टोरेन्ट में न केवल दूर लिखे अक्षरों को वरन टेबल पर सामने रखे बिल को बिना चश्में की सहायता के पढ़ने में कठिनाई अनुभव हो रही थी सभी को। कॉलेज छोड़े हुए बहुत जमाना बीत गया था। उम्र का आधा पड़ाव लगभग पार होने जा रहा था। उन्मुक्त जीवन पीछे छूट गया था।
याद आते-आते नंदू बॉस को अंजनी की याद हो आई ।
" अरे! अंजनी से बात करवाओ। वह फोन कहाँ उठाता है?"
मैंने अंजनी को फोन लगाया तब वह सो चुका था। शायद बंगलुरु में बिजनेस सेट करते-करते ज्यादा थक गया होगा। तभी देवेन्द्र को मुकेश गुप्ता की भी याद आई।पूछने पर वह कहने लगा,"जयपुर में उसकी कंसल्टेंसी ठीक-ठाक चल रही है। खास मजा तो नहीं है,मगर जयपुर में रहकर अपना खर्च निकाल लेता है तो कोई कम बड़ी बात नहीं है।"
फिर सिलसिला शुरू हो गया कॉलेज के दोस्तों को याद करने का।
".... भगवान सिंह सोढ़ा सहायक निदेशक हो गया है राजस्थान सरकार में। शुरू से वह हरफनमौला था। ... अनीस अहमद दुबई से लौटकर उदयपुर में पता नहीं क्या कर रहा है? कोई कह रहे थे कि विदेशी-यात्राओं का टूर ऑपरेटर है। किस्मत भी क्या-क्या रंग दिखाती है अजीबो-गरीब! उसका भी हमारे साथ महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड में प्रबंध-प्रशिक्षु के रूप में चयन हुआ था,मगर उसने होम-सिकनेस की वजह से ओड़िशा ज्वाइन नहीं किया था। ....... वेदू भले ही यू॰एस॰ए में सॉफ्टवेयर की कंसल्टेंसी कर रहा हो, मगर अपने बच्चों को भारतीय-संस्कृति की सीख देना नहीं भूला।देखा नहीं, फेसबुक पर अपलोड किए फोटो में धोती पहनकर गणेश-पूजा कर रहा था अपने परिवार के साथ। .... भानु का तो कहना ही क्या है, मुंबई में रिलाइन्स इंडस्ट्रीज में माइनिंग डिवीजन का कंट्री-मैनेजर है। बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी वाली पोस्ट है यह प्राइवेट में ... अनुभव वर्मा भी तो अच्छा कर रहा है। हैदराबाद के पास में है कहीं एसीसी में। बेंगलोर में फ्लेट खरीदना चाहता है। फेमिली जयपुर में सेटल किया है ..."
बातों का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा था। ड्रीम-रेजीडेंसी के हॉस्टल-वार्डन की कड़ी चेतावनी याद आते ही सारी बातों को बीच में विराम देते हुए खाना समाप्त कर हमने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया। तभी जे॰डी॰ को फोन लगाकर देवेंद्र ने मुझे पकड़ा दिया उसे यह कहते हुए,"यह आवाज किसकी है? पहचानकर बताओ ?"
शायद जे॰डी॰ के लिए यह अप्रत्याशित झटका था। वह मेरी आवाज "हेलो ,हेलो" नहीं पहचान सका। वह तो अपने सपने में भी नहीं सोच सकता था कि मैं कोटा में कैसे हो सकता हूँ? मगर जब मैंने अपना परिचय देते हुए सारी वस्तु-स्थिति को बताया तो उसकी आवाज से लगा जैसे एक लंबे अरसे से छुपा प्रेम छलक पड़ा हो," डी॰के॰ बॉस, आज भी जोधपुर में जब मैं रातानाड़ा से गुजरता हूँ तो तुम्हारे भीकमदास परिहार हॉस्टल की याद आती है। हम तो माइनिंग वाले होकर भी फॉरेस्टवाले बन गए है।" फिर ज़ोरदार हंसी की आवाज के साथ वह कहने लगा," कभी समय निकालकर इधर भी आओ, डी॰के॰ बॉस। तुम्हारे सिरोही के पास शिवगंज में मैंने अपना घर बनाया है।"
जे॰डी॰ ने डिग्री पूरी करने के बाद राजस्थान सरकार में फॉरेस्ट सेर्विसेज की परीक्षा देकर अपना केरियर इसी क्षेत्र में बना लिया था और शिवगंज में पोस्टिंग के तहत अपना मकान भी वहाँ बना दिया था।
सन 1992 से बिखरे दोस्तों की सारी इधर-उधर की स्मृतियों को खंगालते हुए नंदू बॉस और देवेंद्र ने हमें ड्रीम-रेजीडेंसी में "गुड-नाइट" के साथ विदा कर दिया।
दूसरा दिन था मेरे लिए रेजोनेन्स के परिदर्शन का। रेजोनेन्स -शिक्षा के क्षेत्र का एक अग्रणी व्यापारिक संस्थान। आई॰आई॰टी के टॉपर इस संस्थान में पढ़ाते है। उच्च वेतन और सारी सुविधाएं मुहैया करवाता है यह संस्थान उन्हें।एअरपोर्ट की तरह वातानुकूलित बड़े-बड़े हाल, अल्पाहार के केबिन, पूछ-ताछ के काउंटर के अलावा बुक-बैंक की डेस्क पर हर समय आपको हाजिर मिलेंगे सेल्स-मैनेजर और उनके सहायक, जो आपको गाइड करेंगे आपकी मनपसंद पुस्तकों को डिस्काउंट रेट पर खरीदने में। उसके लिए आपको एक फॉर्म भरना पड़ेगा। दस मंज़िला इमारत में भीड़ भी इतनी कि मानो पुरी की रथयात्रा के समय अक्सर रेलवे-स्टेशनों या पुरी के "बड़-दांड" पर नजर आती है। खचाखच भरे लोगों का एक रेला निकल आया हो जैसे। किसी के पास समय नहीं है, किसी की ओर देखने का,सभी भागे जा रहे हैं अपने अनिर्धारित उद्देश्य की ओर। एक अधेड़ उम्र वाले जींस पहने हुए आदमी की ओर इशारा करते हुए हिमेश ने मुझे बताया,"पापा! ये हमारे मैथ के सर थे। अभी केवल आई॰आई॰टी की तैयारी करने वाले टॉप बेच वालों को पढ़ाते हैं।"
" टॉप बेच?" मैं नहीं समझ पाया था।
मुझे समझाने के उद्देश्य से वह कहने लगा,"आई॰आई॰टी की तैयारी करने के लिए जितने भी लड़के यहाँ आते है। उनका बीच-बीच में स्क्रीनिंग टेस्ट होता है। फिर मेरिट के हिसाब से सौ-सौ के बेच बनाए जाते हैं। ऐसे कुल मिलाकर उन्नीस-बीस बेच बनते हैं। पहले तीन-चार बेचों को वह सर पढ़ाते हैं।"
"तुम्हारा बेच कौनसा है?" जानते हुए भी मैंने उससे पूछा। क्योंकि आपके मोबाइल में संदेश के जरिए रेजोनेन्स वाले आपके बेटे की परफ़ोर्मेंस के बारे में अपडेट करते रहते हैं।
" मेरा बेच तीन से पाँच हो गया है।"
"क्यों?" मैंने पूछा। निरुत्तर, उसके चेहरे पर अवसाद के भाव साफ दिखाई दे रहे थे। तालचेर की प्रसिद्ध डी॰ए॰वी कलिंगा का एक अच्छा छात्र होने के बावजूद उसकी निराशा मुझे भीतर से दुखी कर दे रही थी। बाल-मन की इस अवस्था से मैं वाकिफ था। शिक्षा के परंपरागत ढांचे से अचानक निकलकर अगर आपको खुले आकाश में उड़ना पड़े तो निश्चय ही कुछ भटकाव महसूस होगा। भाटवाडेकर की फिजिक्स की जगह अगर रेसनिक एंड हेलिडे, सीयर्स जेमांसकी, नेल्सन पार्कर, इराडोव; केमिस्ट्री में पी॰एल॰ सोनी की जगह ब्रूस॰ एस॰ महान, एल॰ फ्रीमेन और मैथेमेटिक्स में हाल एंड नाइट की अलजेबरा,एसएल लोने की ट्रिगनोमेट्री पढ़नी पढ़े तो अवश्य विषय पर मजबूत पकड़ होने तक आपका आत्म-विश्वास डोलता हुआ नजर आएगा। 18वीं सदी की लिखी हुई विदेशी लेखकों की किताबें आज भी हमारे देश में तकनीकी कॉलेजों में प्रवेश लेने के लिए प्रचलित हैं। क्या कोई भारतीय लेखक अभी तक पैदा नहीं हुआ,सारे विषयों को अपनी भाषा में लिखता? किसी भाषाविद ने कहा था,"अगर हम अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा देते है तो हम उनके जीवन में पढ़ाई के दो-तीन साल का प्रोडक्टिव समय बचा सकते हैं।" मगर दुख इस बात का है कि भारतीय शिक्षा-पद्धति में अभी तक वैज्ञानिक और तकनीकी पुस्तकों का अभीतक सार्थक अनुवाद तक नहीं हुए है। अभी भी वैशाखी पर चल रहे हैं हम। किसी ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा था,कोटा में अगर हर साल तीन-चार लाख लड़के आई॰आई॰टी की तैयारी करते हैं और उनमें से अगर तीन-चार हजार आई॰आई॰टी पा भी जाते हैं तो कौनसा तीर मार लेते हैं? कोटा के किसी इंस्टीट्यूट के सीनियर मैनेजर ने कहा था,"हमारा फोकस स्क्रीनिंग वाले कोर ग्रुप की ओर ही होता है। उनके लिए एक्सट्रा क्लासेज, विशेष सामग्री और विशेष ध्यान रखते हैं हम। यहाँ तक कि हॉस्टलों में जाकर पढ़ाती है हमारी फेकल्टी। कोर-ग्रुप ही हमारा आकर्षण है, हमारा बिजनेस है। बाकी सब तो केवल भगवान भरोसे, हमारा लाभांश हैं। शिक्षा के इस भव्य-आद्यौगीकरण का आधार हैं यह लाभांश। करोड़ों के पेकेज देने पड़ते हैं, बड़ी-बड़ी फेकल्टियों को। उद्योग धंधे हैं कहाँ यहाँ? रावतभाटा का परमाणु विद्युत संयंत्र और ज्यादा से ज्यादा कोटा स्टोन की खदानें। यहाँ जो लोग हैं, अगर पैसे वाले हैं तो बहुत ज्यादा पैसे वाले और अगर गरीब है तो कुछ ज्यादा ही गरीब। गरीबी और अमीरी के इस अंतराल को मैंने वहाँ अपने दो-तीन दिन के आवास के दौरान अनुभव कर लिया था। कुकरमुत्तों की तरह जगह-जगह खुली गगनचुम्बी इमारतों पर लगे विभिन्न सुसज्जित नाम-पट्टों जैसे एल॰एन कॉलेज,केरियर पॉइंट,रेजोनेन्स,आकाश,वाइब्रेंट के मनोहारी केम्पसों में पढ़ने और थ्री-स्टार होटेलों की सुविधावाली रेजीडेंसियों में रहने वाले लाखों विद्यार्थियों में से भारत का भविष्य- टेक्नोक्रेट एवं डॉक्टरों के निर्माण की नींव की ईंट यहाँ रखी जाती हैं।"
समय बदल गया है। बदला ही नहीं है समय। वास्तव में समय ही नहीं है किसी के पास। जीवन का उद्देश्य नौकरी करना और सिर्फ कमाना है। सिर्फ डॉक्टर या इंजिनयर बनाना हैं? खून-पसीने से अर्जित की हुई जीवनभर की संचित पूंजी अपने सुखद भविष्य की आश में मुच्यूल फंड की निवेश करता जाता है आम आदमी।
रेजोनेन्स से बाहर निकलकर हमने सामने बने एक विराट मॉल की ओर प्रस्थान किया। संगीत के मद्धिम स्वर,ब्रांडेड कपड़ों की दुकानें , हेंडीक्राफ्ट, इलेक्ट्रोनिक और मोबाइल की दुकानें, रेस्टोरेन्ट। लोग ही लोग। किशोर बच्चों के ग्रुप मेकडोनाल्ड फूड कॉर्नर में पिज्जा और बर्गर खाते हुए। संगीत के स्वर मुझे अपने अतीत की ओर खींच रहे थे। देखते-देखते मैं अपने बचपन में लौट आया। कृशकाय,लंबे-कद,धोती और साफा पहने हुए मेरे पिताजी अपने हाथ में छ्डी लिए आगे बढ़ते हुए मेरी तरफ आ रहे थे। उनकी धीमी आवाज मुझे सुनाई दे रही थी," उस समय तो मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि तुम्हें कुछ ऐसी ट्रेनिंग दिला पाता। बिना किसी प्रकार की कोचिंग किए या ट्यूशन किए अपने बलबूते पर अपनी मंजिल पाई। आई॰आई॰टी नहीं मिली तो क्या हुआ, एम॰बी॰एम जोधपुर भी तो कम नहीं थी उस समय? मेरे दिल के टुकड़े थे तुम और मेरा गर्व और गौरव भी! "
मेरी आँखें नम हो गई थी। मैं शून्य की ओर देखने लगा। समय बदल चुका था। प्रतिस्पर्धा का युग है अब। जरा-सी चूक हुई नहीं कि एक अपार भीड़ आपको क्रश करती हुई आगे निकल जाएगी। गालिब की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई:- " वह जमाना कुछ और था,जब घर कच्चे ,मगर दिल सच्चे हुआ करते थे।"
मगर आज? मकान पक्के होना चाहिए। मैं कुछ कहने ही जा रह था," पिताजी ...!"
तभी मॉल में वुडलेंड की दुकान से जूते,टी-शर्ट का बिल चुकाने का इशारा करते हुए हिमेश कहने लगा,"पापा, चलिए, हो गया है। और कुछ नहीं चाहिए।"
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