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22. जगदीश मोहंती कभी मरते नहीं !

22. जगदीश मोहंती कभी मरते नहीं !

जगदीश मोहंती का नाम ओड़िया साहित्य में सम्मान के साथ लिया जाता है। बेंगलोर में  लाइफ एचिवमेंट अवार्ड के अतिरिक्त विभिन्न पुरस्कारों जैसे ओड़िया साहित्य के सबसे बड़े सारला पुरस्कार, ओड़िया साहित्य अकादमी पुरस्कार, झंकार अवार्ड ,धरित्री अवार्ड और प्रजातन्त्र पुरस्कार से नवाजे गए इस महान साहित्यकार का जन्म 17 फरवरी 1951 को ओड़िशा के मयूरभंज जिले के गाँव गोरुमहिसाणी में टाटा की आयरन माइंस के कंपनी क्वार्टर में पिता नागेंद्र नाथ मोहंती और माता शारदा बाला देवी की कोख से हुआ। उनकी साहित्य साधना की शुरूआत हिन्दी में कहानी लेखन से शुरू हुई थी, धर्मवीर भारती द्वारा संपादित विख्यात पत्रिका धर्मयुग तथा अन्य हिन्दी पत्रिका सारिका से। उनकी धर्मयुग में प्रकाशित पहली कहानी  थी ‘खोए हुए चेहरे की तलाश’। कालांतर में उन्होंने अपनी सहज अभिव्यक्ति तथा मातृभाषा की समृद्धि और सेवा के लिए ओड़िया भाषा में लिखना शुरू किया, जो अनवरत चलता रहा। यहाँ तक कि उनके असामयिक निधन के कुछ दिन पूर्व तक अपने उपन्यास “रुद्धकाल” पर उनकी लेखनी चलती रही। दिनांक 29.12.13 की शाम 7 बजे के लगभग बेलपहाड़ रेल-क्रॉसिंग से अपनी मोटर-साइकिल ले जाते हुए पार करते समय ट्रेन की चपेट में आ जाने से उनका अकाल निधन हो गया। एक वर्ष पूर्व ही वे महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड की ओड़िशा के झारसुगुडा जिले के ब्रजराजनगर में स्थित रामपुर कोलियरी के चिकित्सा विभाग से सेवा-निवृत हुए थे। उन्होंने जीवन के तीस साल से ज्यादा समय पश्चिमी ओड़िशा के कोयलांचल में बिताए।
ओड़िया साहित्य में “ट्रेंड-सेटर” के रूप में पहचान बनाने वाले इस विख्यात कथाकार की कहानियों का दौर सत्तर के दशक से शुरू हुआ। उन्हें ओड़िया कहानियों के कथ्य, भाषा-शैली तथा प्रयोग में आमूल परिवर्तन के जनक के रूप में जाना जाता है। वह केवल एक महान लेखक ही नहीं, वरन नवोदित लेखकों के प्रेरणा-स्रोत भी थे। सन 1970 में रांची के सैंट ज़ेवियर स्कूल से हायर सेकेन्डरी, तत्पश्चात एससीबी मेडिकल कॉलेज, कटक से बेचलर इन फार्मेसी की उपाधि प्राप्त इस महान लेखक की बंगाली, हिन्दी और ओड़िया  तीनों भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी।  नालको के राजभाषा अधिकारी हरीराम पंसारी के साथ मिलकर ओड़िया भाषा के फॉन्ट निर्माण में जगदीश मोहंती की अहम भूमिका थी। बेंगलोर से प्रकाशित वेब-पत्रिका “ई-शब्द” का भी रामपुर कोलियरी, ब्रजराजनगर से सम्पादन-मंडली का मार्गदर्शन करते थे। और अगर ओड़िया साहित्य के लिए उनकी सबसे बड़ी देन कहा जाए तो वह होगी उनकी गौतमी (प्रेमिका), शिष्या और धर्मपत्नी– डॉ सरोजिनी साहू। जो न केवल ओड़िया साहित्य को भारत की विभिन्न भाषाओं में फैला रही है, वरन ओड़िया साहित्य की अमिट छाप अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर छोड़ने में सफल हुई है। वह इस बात का सारा श्रेय अपने गुरु तुल्य पति को देती है, जिनके सान्निध्य, प्रेम और मार्गदर्शन ने इस मुकाम तक पहुंचाया है।
उनकी प्रमुख प्रकाशित औपन्यासिक कृतियाँ ‘कनिष्क-कनिष्क’,‘निज-निज पानीपथ’,‘उत्तराधिकार’, ‘अलबम रे केटोटि मुंह’, ‘दुर्दिन’, ‘अदृश्य सकाल’ हैं तथा मुख्य कहानी-संग्रह ‘एकाकी अश्वारोही’, ‘दक्षिण दुआरी घर’, इर्षा एक ऋतु’, ‘एल्बम’, ‘दिपहर देखि न थीबा लोकटिए’,  सुना इलिशी’,  सुंदरतम पाप’, ’युद्ध क्षेत्रे एका एका’, ‘निआ और अन्यान्य गल्प’ ‘मेफेस्टोफ़ेलेस र पृथ्वी’,‘बीज बृक्ष छाया’, ’प्रेम-अप्रेम’ और ‘सतुरीर जगदीश’ है ।
1॰ जगदीश मोहंती से मेरा परिचय :-
रामपुर कोलियरी की ओफिसर्स कॉलोनी में सन 1993 से 2003 तक वे मेरे पड़ोसी थे, जब तक कि मेरा अगला स्थानांतरण हिलटॉप कॉलोनी में नहीं हो गया। उनका क्वार्टर था बी-10 और मेरा बी-09। शायद यह मेरा सौभाग्य ही था कि लगभग एक दशक तक मैं इस महान देदीप्यमान लेखक-दंपत्ति के तेजोमण्डल में रहा और अचानक जीवन में एक मोड़ ऐसा आया कि मैं ओड़िया से हिन्दी में अनुवाद कार्य की ओर प्रेरित हुआ। यह ईश्वर की अनुकंपा नहीं तो और क्या था! सन 2007 की बात होगी, उस समय में महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड की ईब घाटी क्षेत्र में स्थित संबलेश्वरी खुली खदान की कोल –साईडिंग का नोडल ऑफिसर हुआ करता था। और मेरे अंतरंग सहकर्मी कवि मित्र अनिल दास अवसर पाकर मुझे अपनी ओड़िया कविताएं सुनाया करते थे। यद्यपि एक दीर्घकाल ओड़िशा में व्यतीत करने के कारण ओड़िया भाषा का कार्यसाधक ज्ञान, भले ही, मुझे प्राप्त हो चुका था, मगर साहित्यिक जानकारी नहीं के बराबर थी। जब अनिल दास मुझे अपनी कविताओं पर प्रतिक्रिया पूछता, “सर ! कैसी रही मेरी कविता?”
बिना भावार्थ समझे मैं क्या कहता, उसका उत्साह,उमंग और लगन देखकर मैं उसे सरोजिनी साहू के घर ले गया और कहा, “भाभीजी, कृपया अनिल की कविता सुनिए और अपनी प्रतिक्रिया बताइए ।"
बिना किसी अहंकार के धैर्यपूर्वक वह कविता सुनती और अपना मंतव्य बता देती, “मैं तो केवल गाल्पिक और औपन्यासिक हूँ। कविताओं के लेखन, श्रवण और मनन के लिए अत्यंत ही भाव-प्रवण और कल्पनाशील होना पड़ता है। और मैं तो केवल यथार्थ धरातल पर लिखती हूँ। कविता बहुत ही सुंदर है, मगर कुछ शब्द ऐसे है, जो मेरी भी समझ से परे है। ये शब्द स्थानीय संबलपुरी ग्राम्य-अंचल के हैं।”
उस समय मुझे पता चला कि ओड़िया भाषा में संबलपुरी और कटकी दो शाखाएँ हैं। मेरी नजर में एक ही लिपि होने के कारण इन शाखाओं से मैं पूरी तरह अपरिचित था। स्थानीय शब्दों का महत्त्व उजागर करते हुए सरोजिनी साहू ने कहा, “ मैंने भी एक उपन्यास “पक्षीवास’ में संबल पुरी शब्दों का बहुतायत से प्रयोग किया है। क्योंकि इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में कोरापुट, बोलंगीर, बनहरपालि, झारसुगुडा के इलाकों में रहने वाले सतनामी लोगों की जीवनचर्या है। जहां बोलचाल की भाषा में संबलपुरी शब्दों का प्रयोग होता है। किसी भी साहित्यिक कृति की सफलता के पीछे स्थानीय परिवेश का प्रभावी व यथार्थ चित्रण वहाँ की बोलचाल की भाषा है।”
अनिल दास एक कवि, समाज-सेवी होने के साथ-साथ स्थानीय राजनीति में भी कुछ हद तक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता था। संबलपुरी भाषा और कौशल-प्रांत के प्रति अगाध श्रद्धा थी उसकी। उसने मेरी ओर देखते हुए सुनियोजित ढंग से कहा, “ सर! आप ‘पक्षीवास’  का हिन्दी में अनुवाद कर लीजिए।”
मेरे उत्तर देने से पूर्व ही वह कहने लगा, “तेलनपाली गाँव में एक रिटायर्ड़ ओड़िया टीचर है। मैं आपसे परिचय करवा दूंगा । दो-तीन महीने के अंदर आप ओड़िया पढ़ना –लिखना सीख जाएंगे । बाकी आपकी लगन, मेहनत और संवेदनशील हृदय अनुवाद के कार्य में सहायक सिद्ध होगा।”
पता नहीं, उसके शब्दों में क्या जादू था!  चाहकर भी मैं उसकी बात को टाल का नहीं सका। एक जिज्ञासु विद्यार्थी की तरह मेरा ओड़िया पढ़ाई सिलसिला जारी हुआ बिना किसी टाल-मटोल के ।
इस कार्य में सबसे ज्यादा सहायक सिद्ध हुए जगदीश मोहंती जी। उन्होंने न केवल ओड़िया व्याकरण के बारीक पहलुओं को समझाया, बल्कि एक अच्छे अनुवाद की आवश्यकताओं पर   भी ध्यानाकृष्ट किया। जब पहली बार मैंने उन्हें अपने अनुवाद के दो-चार पेज सुनाया तो अत्यंत ही गंभीर स्वर में उन्होंने कहा था, “यह अनुवाद की भाषा नहीं है । यह संस्कृत-निष्ठ भाषा है। आधुनिक बोलचाल की भाषा नहीं है । अगर आप “आम्र-वृक्ष” , “रात्रि”, “पुष्प” की जगह “आम का पेड़”, “रात” और “फूल” शब्दों का प्रयोग करते तो पाठको के हृदय के ज्यादा नजदीक होते और इसके अतिरिक्त, भाषा-प्रवाह ज्यादा प्रभावी और गतिशील होता ।"
यह अनुवाद आगे जाकर विख्यात वेब-पत्रिका सृजनगाथा के संपादक जयप्रकाश मानस को बहुत अच्छा लगा और उन्होंने यश पब्लिकेशन, नई दिल्ली से इसे प्रकाशित करवाया। इस पुस्तक की हिन्दी-बेल्ट में  बहुत मांग थी ।
मैंने तो सोचा था कि हिन्दी के भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग करने से भाषा की विद्वता झलकेगी और वह खुश होंगे। मगर व्यतिक्रम थे जगदीश मोहंती। बस ! मुझे अपने अनुवाद का पहला सूत्र मिल गया– सामान्य  भाषा के प्रयोग से अनुवाद को सुंदर ,सरस और सुपाठ्य बनाया जा सकता है। यह थी मेरे साहित्यिक गुरु की पहली सीख! मैंने उनकी कहानियों का ( जगदीश मोहंती की श्रेष्ठ कहानियाँ ) उसी फार्मूले को ध्यान में रखते हुए अनुवाद किया, जिसका प्रकाशन बोधि प्रकाशन, जयपुर से हुआ। इसके अतिरिक्त, मेरे अनुवाद कार्य को समूचे ओड़िशा में विस्तार देने के लिए दूसरे निर्वासित लेखकों और कवियों का अनुवाद के लिए प्रेरित किया। उनके अनेक उपकार हैं मुझ पर। ब्लॉग, वेबसाइट बनाना सिखाने से लेकर फोनेटिक हिन्दी टाइपिंग करने तक। आजीवन उनके उपकार नहीं भूले जा सकते । उनके प्रति मन में हमारे इतना आदर था कि हमने लजकुरा साइडिंग में धूलेश्वर महादेव मंदिर में उनके तथा सरोजिनी साहू के सम्मान में एक खास कार्यक्रम रखा गया और उन्हें ब्रजराजनगर के प्रतिष्ठित साहित्यकारों द्वारा संवर्धना प्रस्तुत की गई । वह दिन आज भी एक विशिष्ट यादगार है मेरे जीवन की !
उस सहृदय, अति-संवेदनशील और भावुक लेखक गुरु के लिए   कृतज्ञतावश मैंने मेरी तीसरी पुस्तक “ओड़िया भाषा की प्रतिनिधि कविताएं (यश पब्लिकेशन, नई दिल्ली से प्रकाशित)” समर्पित की थी। काश, मैं कुछ और उनका अनुवाद हिन्दी जगत में ला पाता !
मैंने एक बार उनके सामने अपना प्रस्ताव रखा, “ मैं सोच रहा हूँ कि कहानी-लेखन महाविद्यालय, अंबाला से कहानी लेखन का कुछ कोर्स कर लूँ, ताकि आभियांत्रिकी के विद्यार्थी को साहित्य के सूक्ष्म चीजों की जानकारी हो जाएँ। कैसा रहेगा ?”
वह ज़ोर-ज़ोर से हँसे और कहने लगे,” इसके लिए किसी कोर्स की जरूरत नहीं। यह स्वतः स्फूर्त अभिव्यक्ति है। समाज का पढ़ो और लिखो। ज्यादा पढ़ने से ज्यादा अच्छा लिखोगे, कोई जरूरी नहीं। समाज के आइने को बारीकी से देखोगे तो अच्छा लिख पाओगे। भीड़ की भाषा सीखो। ग्रामर को अपने रास्ते का अवरोधक मत बनाओ। शेक्सपियर के साहित्य की समालोचना करोगे तो हजारों व्याकरणिक त्रुटियाँ आज भी आपको मिल जाएगी । अपनी अभिव्यक्ति के दरवाजे बंद मत करो। पहले भाषा ,फिर व्याकरण। पंडित पाणिनि ने पहले भाषा का अध्ययन किया, फिर व्याकरण में बांधा। मैं स्थापित व्याकरण के उल्लंघन की बात नहीं कर रहा हूँ, मेरा आशय है बिना अवरोध की लेखन शैली ।”
तभी तो उन्हें ओड़िशा में ट्रेंड-सेटर कहानीकार के रूप में जाना जाता है । यह दूसरी सीख थी मेरे साहित्यिक गुरु की । मैंने तो उनकी कहानियों को पढ़ा है, उनका अनुवाद भी किया है । इसलिए बिना किसी अतिशयोक्ति के कह सकता हूँ कि ओड़िशा की धरती धन्य है इस महान कहानीकार को पाकर । मुझे इस संदर्भ में एक उक्ति याद आ गई, कभी अंग्रेज लोग कहा करते थे कि अगर कोई ब्रिटेन और शेक्सपियर का साहित्य में से किसी को मांगे तो हमारा उत्तर रहेगा, सारा ब्रिटेन ले लो मगर शेक्सपियर का साहित्य नहीं। इसी प्रकार जगदीश मोहंती का ओड़िया साहित्य भी न केवल ओड़िशा का वरन सम्पूर्ण देश की विशेष थाती है । जिस पर हमें गर्व होना चाहिए।
कभी-कभी कुछ लेखक,आलोचक व समीक्षक उन पर “असामाजिक” होने का आक्षेप लगाते थे, यह कहकर कि वे बहुत कम मिलनसार है। कभी-कभी लेखक-दंपत्ति में आपसी मन-मुटाव, अहंकार और अभिमान की भावना उद्दीप्त करने के लिए कुछ साहित्यकार कभी सरोजिनी को ज्यादा आँकते, तो कभी जगदीश मोहंती को, यह बात आपको साहित्यकारों की प्रतिक्रियाओं में भी पाएंगे । मगर शांत-स्वभाव के धनी जगदीश मोहंती इस बात का पूरी तरह खंडन करते हुए कहते, “ यह कुछ लोगों की राजनीति हैं । हम लोग राजधानी भुवनेश्वर से 300 किलोमीटर दूर ब्रजराजनगर के कोयलांचल में रहकर अगर ओड़िया साहित्य में पहचान बनाए हुए हैं तो वह है हमारी ओड़िया भाषा के प्रति अगाध-श्रद्धा , प्रेम और प्रभावोत्पादक लेखन-शैली। शुरू –शुरू में भले ही सरोजिनी मेरा अनुकरण करती थी, मगर उसके बाद उसने अपनी स्वाभाविक शैली में लिखना शुरू किया। उसका दायरा पूरी तरह अलग है। कुछ ईर्ष्यालु साहित्यकार जान-बूझकर इस विवाद को तूल देते हैं, ताकि हमारी लेखनी में  बेवजह कुछ अवरोध पैदा हो । आपने तो हम दोनों का अनुवाद किया हैं, इसलिए इस अंतर को आसानी से समझ सकते हो। सरोजिनी के उपन्यास विश्व-प्रसिद्ध हैं, देश-विदेश की तमाम भाषाओं में उनके साक्षात्कार व अनुवाद हुए हैं।“
कितनी खुशी के साथ उन्होने मुझे Kinder का लिंक दिखाया था, जिसमें सरोजिनी साहू को दुनिया की दस शक्तिशाली महिलाओं की तालिका में छठे नंबर पर रखा गया था। जितना निश्चल प्रेम था उनका सरोजिनी के प्रति और उतनी ही प्रगाढ़ श्रद्धा।
2. ओड़िया-साहित्यकारों के शोक-संदेश:-
जीवन और यौवन के सफल कहानीकार और ट्रेंड-सेटर के रूप में ओड़िया पाठकों में लोकप्रिय और नवोदित लेखकों के आदर्श कथाकार जगदीश मोहंती नहीं रहे। दिसंबर 29 तारीख 2013 एक दुर्घटना में वह परलोक सिधार गए। न केवल ओड़िया साहित्यकारों में वरन देश-विदेश के विभिन्न भाषायी साहित्यकारों में उनके मौत की खबर मिलते ही शोक की लहर फैल गई हैं। उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए ओड़िया समाचार पत्र ‘संवाद (5 जनवरी 2014)’  ने अपने साप्ताहिक पूरे साहित्य-पृष्ठ को उनके नाम से समर्पित किया है । जिसमें ओड़िया साहित्यकारों की शोक–संवेदनाएँ प्रकाशित हुई हैं, जिनके कुछ अंशों का मेरा अनुवाद हिन्दी पाठकों के लिए नीचे दिया गया हैं :-
जगदीश का अकाल वियोग हमारे गल्प-साहित्य की एक बड़ी क्षति है। उनकी इस तरह की दुखद मृत्यु से हम सभी को अत्यंत कष्ट पहुंचा है।
रमाकांत रथ
जगदीश के चले जाने से ओड़िया साहित्य के लिए वास्तव में बड़ी हानि हुई है। मगर मेरे लिए यह एक व्यक्तिगत हानि है। जगदीश को मैं बहुत समय से जानता हूँ । मैंने उनकी सारी कहानियां पढ़ी है और मेरे पास अभी भी उनके सारे कहानी-संग्रह हैं। जगदीश को जिस दिन सारला पुरस्कार मिला, मैं स्वयं वहाँ उपस्थित था। जिस मर्मांतक तरीके से उनका तिरोधान हुआ है, उस घटना को मैं अपने जीवन में कभी भूल नहीं सकता। समाचार पत्र में यह खबर पढ़कर मुझे जिस मानसिक यंत्रणा की अनुभूति हुई है, उसे मैं अपने शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। बहुत प्रयास करने के बाद भी जगदीश की पत्नी सरोजिनी से मेरी बात नहीं हो पाई। सरोजिनी मेरे लिए अति आत्मीय है और उनकी कहानियों का मैं अत्यंत ही प्रिय पाठक हूँ। मैं अपनी कल्पना चक्षु से उनके दुख को देख पा रहा था। मैं ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि रेल फाटक के उस पार खड़ी होकर अपने पति की इस तरह मौत का दुर्भाग्यपूर्ण दृश्य और किसी को नहीं दिखाए। आकाश में उड़ते पक्षियों के जोड़े में मानो एक पक्षी नीचे गिरकर मर गया हो। मैं समझ नहीं पा रहा था, सरोजिनी को किस तरह से सांत्वना दूँ। यही सोचकर मैं एकदम नीरव रहा।
सीताकान्त महापात्र
अतुलनीय तेजस्विता :- ओड़िया कहानी साहित्य की धारा बदलने वाले अन्यतम नायक जगदीश मोहंती जटिल थीम और परिवेश की व्याख्या बहुत ही सुपाठ्य ढंग से करते थे। परिवर्ती रचनाकारों के लिए वह एक रोल-मॉडल थे। उनके अनेक कहानी-संग्रह अपनी अतुलनीय तेजस्विता और अंतर्दृष्टि के कारण कालजयी बने।
राजेंद्र किशोर पंडा
ओड़िया कहानियों का ईश्वर:- जगदीश को मैं अत्यंत नजदीकी से जानता हूँ। वह ओड़िया कहानियों के ईश्वर थे। उनमें एक भीषण ज्वाला थी, जिसमें आस-पास के सभी को जला देने की क्षमता थी। वह बहुत ही सज्जन इंसान थे। ... मैं नहीं समझ पा रहा हूँ, किस प्रकार अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ। दुनिया में किसी भी स्थान पर न लेवल क्रॉसिंग हो और न ही रेल पटरी।  मुझे आज से उस ट्रेन आविष्कारकर्ता से घृणा हो गई है।
श्यामाप्रसाद चौधरी
जगदीश की कहानियाँ ओड़िया गद्य जगत में मेफेस्टोफिलीस के पाँव की तरह दृढ़ और शक्तिशाली थी। ओड़िशा के वह एक सफल कहानीकार थे, एक आधुनिक आदमी की जीवनचर्या का सशक्त चित्रण करने वाले। ओड़िया कहानी और औपन्यासिक जगत में उनके बिना मानो शून्य स्थान पैदा हो गया हो, जिसकी पूर्ति होने में अनेक साल लग सकते हैं। उनकी आत्मा इस संसार में कहानीकार होकर एक बार फिर जन्म लें।
अजय स्वाईं
जगदीश की अकाल मृत्यु ने मुझे मर्माहत और निर्वाक कर दिया है। अचानक अग्नि का विस्फोट कर वह हमें निसंग,स्तब्ध और अनेक परिमाण में निर्धन कर चले गए। बहुत दिनों से जगदीश को मैं अपने छोटे भाई के रूप में देखती आ रही हूँ। मेरे अंदर घुमड़ रहे नए साल के सपने अचानक राख में बदल गए। ओड़िया साहित्य के यशस्वी साहित्यकार –कहानीकार अनुज जगदीश मेरे पास अपनी पत्नी सरोजिनी के साथ अनेक बार आए। उनमें सबसे बड़ा गुण था, सभी को अपना लेने का। मैंने यह अनुभव किया था– उनकी लेखनी से उनका व्यक्तित्व बहुत बड़ा था। इतना महान कहानीकार हमारे बीच और कब जन्म लेगा, कुछ पता नहीं। वह जले नहीं ,वरन हमारे हृदय को जलाकर चले गए। उनकी अकाल मृत्यु पर दुख प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है । ईश्वर से बस इतनी ही प्रार्थना है, जगदीश की आत्मा की सद्गति हो। और मैं प्रार्थना करती हूँ, सभी दुखों का सामना करते हुए सरोजिनी को आगे बढ़ने का साहस प्रदान करें।
वीणापाणी मोहंती
दिसंबर माह की 15 तारीख को भुवनेश्वर के इडकोल आडिटोरियम हाल में बसंत कुमार शतपथी की जन्म-सदी का आयोजन साहित्य अकादमी की ओर से किया जा रहा था। सर्दी के दिन में बाहर धूप में खड़े होकर हम अतिथि लोगों का स्वागत कर रहे थे। तभी मेरी मुलाक़ात सरोजिनी और जगदीश मोहंती से हुई। दोनों बेलपहार में रहते हैं, इसलिए साल में एक दो बार ही उनसे मिलने का मौका मिलता है, अन्यथा फोन पर बातचीत। दोनों को भुवनेश्वर में देखकर बेहद खुशी हुई। मैंने कहा, “ आपके आने से हमारा कार्यक्रम सफल हो गया।”
सरोजिनी ने उत्तर दिया, “ भुवनेश्वर में मेरा टीवी रिकार्डिंग का प्रोग्राम था। इसके अलावा राजधानी में पुस्तक मेला भी चल रहा है, इसलिए हम दोनों आए थे।”
केवल इतनी ही बातचीत के बाद वे हाल के अंदर चले गए। उदघाटन समारोह में मेरी छोटी भूमिका होने के कारण मैं मंच पर चला गया। वहाँ से आते समय तक वे दोनों जा चुके थे। यही अंतिम दर्शन था जगदीश मोहंती का। उसके बाद 28 तारीख की शाम को जगतसिंहपुर औक्षकणा हाई-स्कूल स्वर्ण जयंती की सभा में बैठते समय बनोज त्रिपाठी ने बताया– जगदीश बाबू नहीं रहे। मुझे याद नहीं, जगदीश बाबू के साथ मेरी पहली मुलाकात कहाँ हुई। शायद झंकार विषुव मिलन के अवसर पर। इक्यासी-बयासी की बात होगी, उस समय कटक में ‘विषुव मिलन’ बहुत चर्चित था। वहाँ पर मुलाकात करवाई थी अग्रज प्रकाश कुमार परिडा ने। उस समय जगदीश मोहंती युवा-वर्ग में काफी विख्यात थे। सरोजिनी के साथ उनका प्रेम, फिर उनसे विवाह। ‘खोर्द्धा लूँगी पहने आदमी का ठिकाना” और “एलबम में कितने चेहरे”उनकी प्रमुख कहानियाँ बहुत लोकप्रिय हुई। बीच में ‘संवर्तक’ पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे वह। एक अलग तरीके की पत्रिका। उसके बाद मेरी उनसे मित्रता बढ़ती गई। ‘कथा’ पत्रिका के प्रकाशन के बाद वह नियमित रूप से यहाँ सहयोग देते रहे। उनकी कहानी “निआ(आग)” उस समय जोरों से चर्चा में थी। उस समय जगदीश बाबू का समर्थन करने के लिए मैं अनेक तरह की आलोचना का शिकार हुआ था। मेरा एक मात्र मत था, पत्रिका में उनकी कहानी प्रकाशित करने के लिए मैं उनके पक्ष में था। किसी भी लेखक को बीच में असहाय छोड़कर जाना उचित नहीं है।
जगदीश मोहंती सुप्रसिद्ध लोकप्रिय लेखक थे। युवापीढ़ी को प्रभावित करने वाला उनकी तरह का लेखक कोई  बिरला ही होता है। दोनों जगदीश और सरोजिनी एक आदर्श लेखक दंपत्ति की तरह जीवन जी रहे थे। राजधानी से दूर रहने वाले साहित्यकार का साहित्य-संसार अनेक पाठकों को मुग्ध करता था। जगदीश बाबू पिछले साल सेवा-निवृत्त हो गए थे और सरोजिनी की नौकरी बची हुई थी। मेरी हार्दिक इच्छा थी, उनकी भी नौकरी पूरी हो जाने पर वे लोग भुवनेश्वर आ जाते ।
इक्यानवें की बात होगी । बीजू पटनायक जब ओड़िशा के मुख्यमंत्री थे, उस समय नई दिल्ली में ओड़िशा साहित्य अकादमी ने एक बड़ा आयोजन किया था। उस उत्सव का उद्घाटन भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के कर–कमलों से हुआ था। ओड़िशा के कई लेखक–लेखिकाओं ने उसमें भाग लिया था । मैं भी सपरिवार वहाँ गया था। सभा समाप्त होने के बाद बात हुई, सभी लोग एक साथ जाकर आगरा देखेंगे। मैंने और मेरी पत्नी ने जगदीश बाबू को आवाज दी- ‘ चलिए,  आगरा जाएंगे।”
मगर जगदीश बाबू ने इंकार कर दिया। कहने लगे– ‘सरोजिनी को वचन दिया था एक साथ  आगरा देखने का। इसलिए मैं अकेले ताजमहल देखने नहीं जाऊंगा।’
उनकी यह बात हमें बहुत अच्छी लगी। जगदीश बाबू हमारे परिवार में सभी को प्रिय थे। हमने हमारी बेटी का नाम “गौतमी” जगदीश मोहंती की कहानियों के चर्चित पात्र “गौतमी” के आधार पर रखा। वे जब भी भुवनेश्वर आते, मुझे फोन करते। पहले घर आते थे। जितने भी समय रहते, केवल साहित्यिक बातें ही करते। साहित्य के अलावा वे किसी भी तरह की बातें नहीं करते थे।
इस तरह अचानक जगदीश मोहंती का चला जाना  हर किसी की कल्पना से परे था। आँखों के आगे अपने पति की मृत्यु देखकर सरोजिनी किस तरह विपर्यय हुई होगी, सोचने मात्र से आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है। प्रसिद्ध कवि केकी एन दारुवाला के जीवन में भी कुछ इस तरह घटा था। वे रास्ते के इस तरफ कार के पास में थे और उनकी पत्नी कपड़े की दुकान से पैकेट लेकर आ रही थी। देखते-देखते पति के सामने गाड़ी ने पत्नी को कुचल दिया। आज तक उस गम को दारूवाला भूल नहीं पा रहे है ।
जगदीश मोहंती का नश्वर शरीर भले ही न हो, ओड़िया साहित्य को वह जो अमूल्य उपहार देकर गए हैं, वे उन्हें चिरकाल तक अमर रखेंगे। जगदीश कभी मरते नहीं।
गौरहरि दास
जगदीश !
जगदीश! तुम इस तरह अचानक कहाँ गायब हो गए ? यह खबर नहीं हो सकती है। मुझे बहुत दुख लग रहा है। तुम इस तरह बिना हिसाब किए कैसे जा सकते  हो। इडियट! तुम पर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है। कभी मुझे तुमसे बहुत ईर्ष्या हुआ करती थी। आज बहुत क्रोध आ रहा है। कैसी विडम्बना है मेरे लिए। मैंने सारी रात तुम्हारी मौत का नजारा देखा है। उस दृश्य ने मुझे चैन से सोने नहीं दिया। मैं उत्तेजना से छटपटा रहा था। मेरा शरीर कांप रहा था। आँखों से आँसू बरस  रहे थे। हमारी इस पृथ्वी पर इन मनुष्यों में इतना आकर्षक स्थान और कहाँ था तुम्हारे लिए, जहां तुम जा सकते हो। तुम तो साहित्य सृजन के साथ जी रहे थे। साहित्य के अंदर ही प्राण थे। अभी भी उसके विस्तार के लिए मग्न थे।
उतनी ही सक्रियता से गतिशील थे । तुम्हारा कमिटमेंट था¬- स्वप्निल दुनिया के इंसान के जीवन-संग्राम को उसके यथार्थ रूप,रंग और स्वर को शब्दों में रूपांतरित करने की तुम्हारी अभीप्सा। यहाँ ही था, तुम्हारे साहित्य कर्म को तोड़ने और बनाने का खेल। जो हमें मुग्ध कर रहा था, तटस्थ कर रहा था, जीवन का सामना करने का साहस जगा रहा था और नए रास्ते खोलने की प्रेरणा दे रहा था। एक बार मैंने तुम्हें कहा था– “ लिटरेरी एक्टिविस्ट”
तुम पहले तो समझ नहीं पाए। आश्चर्यचकित होकर मुझे पूछा–“ एक्टिविस्ट ?”
“ लिटरेरी एक्टिविस्ट! यस”  मैंने दृढ़ स्वर में कहा था ।
हम आपस में आलिंगनबद्ध हुए थे। उस आलिंगन से आज तक मुक्त नहीं हुए है जगदीश!
कभी भी नहीं! तुम्हें पढ़कर कभी सुरेन्द्र मोहंती ने कहा था,“ ए स्टार इज बोर्न॰”
एक सितारे का उदय हुआ था, उसकी मृत्यु कैसी! वह तो मृत्युंजय है!
पदमज़ पाल

जगदीश भाई!
अस्सी दशक की शुरूआत की बात होगी। उस समय हम पढ़ रहे थे। उस समय जगदीश मोहंती की ओड़िया कहानियों का बहुत क्रेज था। हम सभी पागलों की तरह उनकी कहानियाँ पढ़ते थे। समीक्षा करते थे। उस समय कहानी के शीर्षक के पास लेखक के फोटो छपने की व्यवस्था नहीं होती थी। छापेखाने में यह तकनीकी नहीं आई थी। हम कहानी पढ़कर कल्पना करते थे। किस तरह दिखते होंगे जगदीश मोहंती? उस समय वे रामपुर कोलियरी के पते पर रहते थे। हम सोचते थे , कहाँ पर है वह रामपुर कोलियरी? कैसे वहाँ रहता है यह ट्रेंड-सेटर लेखक! हम उन्हें देखने के लिए बुरी तरह व्याकुल हो जाते थे। उस समय जगदीश मोहंती के नाम से पत्रिकाएँ बिकती थी। जिस पत्रिका में उनकी कहानी छपती थी, वह पत्रिका बाजार से तुरंत खत्म हो जाती थी। उस समय वे एक साहित्य सभा में भाग लेने के लिए वाणी विहार आए हुए थे । मैंने पहली बार उन्हें वहाँ देखा और उनकी कहानी सुनी। न केवल उनका चेहरा या वक्तव्य श्रेष्ठ था, बल्कि उनकी कहानियाँ भी श्रेष्ठ थी और शब्द संयोजन के जादू से भरी हुई भी। उस दिन की उत्तेजना आज भी याद आ रही है ।
धीरे-धीरे उनके साथ मेरे संबंध स्थापित हुए और घनिष्ठ बनते गए । मेरा परम सौभाग्य था कि उन्होने अपना एक कहानी संग्रह “निआ” मुझे समर्पित किया था। मुझे बार-बार आमंत्रित करने के बाद भी मैं उनके निवास स्थान रामपुर कोलियरी नहीं जा सका । यह इच्छा अधूरी रह गई।
हमारे साथ वह बहुत घूमते, योजना बनाते, सिनेमा देखते और मौज-मस्ती करते। भुवनेश्वर आने पर वह मुझे मिलते। हर समय उनकी नई-नई योजनाएँ। थोड़े ही दिन हुए होंगे, उनकी साहित्य रचना कुछ धीमी हुई, मगर साहित्य को लेकर उनके सपनों में कोई कमी नहीं थी। चाह रहे थे, भुवनेश्वर आने के लिए। भुवनेश्वर में उनका घर था। वह घर भाड़े पर दिया हुआ था।  वे एक दो साल के अंदर इस घर में आने की योजना बना रहे थे। मैंने उनका स्वागत किया था यह कहते हुए, “आप आइए, भुवनेश्वर। एक साथ बैठेंगे, मिलेंगे।”
मगर वह योजना दुःस्वप्न बनकर रह गई। इन सभी योजनाओं पर पानी फेरकर चले गए जगदीश भाई। खबर पाने पर मैं बहुत अस्थिर और शोक-विह्वल हुआ था। अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है । मगर क्या किया जा सकता है? जगदीश मोहंती ओड़िया इतिहास के अंदर समा गए, हमसे अलग होकर ।
परेश कुमार पटनायक
मुझे गर्व अनुभव हो रहा है, राऊरकेला में हमारे घर पर जगदीश ने दो बार मेरी माँ के हाथ का बना हुआ खाना खाया था। उस समय मैं कॉलेज का छात्र था और वह नौकरी करते थे राजगांगपुर में। उसके बाद रामपुर कोलियरी चले गए। मैं और माँ ,दोनों मिलकर दो बार उनके रामपुर घर को गए थे। यह उनके विवाह के पहले की बात है। मेरी माँ ने जब जगदीश के अकाल वियोग की खबर पढ़ी तो बुरी तरह से मर्माहत हो गई। माँ की साहित्य पढ़ने में रुचि थी। एक बार उन्होने मुझे कहा था, “ तुम जगदीश की तरह क्यों नहीं लिख पाते हो?”
उस समय मैं और मेरी तरह के अनेक रचनाकार जगदीश द्वारा अनुप्राणित और प्रभावित हुए थे। उनकी तालिका बहुत लंबी होगी। जो उनकी शैली का अनुकरण करने से बचे, वे बच गए और अन्य काल के गर्भ में विलीन हो गए। ओड़िया कहानी संसार में जगदीश एक विशाल बट वृक्ष की तरह है। मैं उन्हें प्रतिदिन अपने हृदय में याद कर नमन करता हूँ।
सदानंद त्रिपाठी
बंधु जगदीश!
मैं और जगदीश समसामयिक थे। एक साथ लिखना आरंभ किया था , सत्तर के दशक की शुरूआत में। लगभग पचीस साल पहले, शायद 1986 सन होगा, भोपाल के भारत भवन में अंतर्भारती कार्यक्रम में योग देने के लिए आए हुए थे जगदीश। सर्व भारतीय युवा लेखकों के सम्मेलन में अन्य ओड़िया लेखक भी थे, ममता दास, ज्योत्सना राउतराय, स्वरूप जेना, शत्रुघ्न पांडव और मैं स्वयं। आमने-सामने परिचय नहीं होने पर भी तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं और पाठकों के माध्यम से जगदीश के साथ बहुत दिनों से मेरा परिचय था, उन लेखन के शुरूआती दिनों से। उनकी कहानियों का लेखक मन में ऐसा लगता था जैसे वह बहुत दंभ भरने वाला दुःसाहसी और अहंकारी होगा। मगर देखने से लगा कि वह एक भिन्न व्यक्ति थे। बहुत ही सज्जन ,सरल व्यक्तित्व के धनी। जब अन्य भाषाओं के लेखक जब कड़ी टिप्पणी करते तो वह कभी उलटा जवाब नहीं देते थे, बल्कि मंद-मंद मुस्कराते हुए चले जाते थे।
उसके बाद जगदीश के साथ मेरी कई बार मुलाकात हुई। भले ही वार्तालाप कम हो, मगर साहित्यिक वातावरण में एक दूसरे की उपस्थिति अवश्य अनुभव होती थी। उनकी पत्रिका ‘संवर्तक’ में मेरी कहानी को लेकर किसी बात पर बहस हुई थी, चिट्ठी के माध्यम से। उस समय सरोजिनी से बहुत बार भेंट हो जाती थी। उस समय ओड़िया लेखकों में सरोजिनी और जगदीश को एक साथ जोड़कर देखने का अभ्यास हो गया था। जगदीश के जाने की खबर जितनी आकस्मिक और दुखद थी, उतनी ही भयावह दुर्घटना स्तंभित करने के लिए पर्याप्त। असमय जगदीश चले गए। जीवन ने उस क्षण की उन्हें चेतावनी नहीं दी। स्पर्शकातर शिल्पी सरोजिनी को इस दारुण अनुभव के साथ आजीवन रहना पड़ेगा।
ओड़िया साहित्य में जगदीश स्मरणीय होकर रहेंगे चिरकाल। उनकी आत्मा की सद्गति के साथ-साथ उनके अभाव को सहने के लिए सरोजिनी और उनके बच्चों को शक्ति देने के लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ।
यशोधरा मिश्रा
अकाल मुरझा गया एक फूल :-
‘झंकार’ पत्रिका में प्रकाशित जगदीश की पहली कहानी का शीर्षक था–“कहानी फूल मुरझाने की’। यह कहानी प्रकाशित हुई थी 1972 के अंत में। उस समय जगदीश की उम्र 21/22 रही होगी। इतनी कम उम्र में झंकार पत्रिका में स्थान पाना गौरव का विषय था । झंकार में भेजी हुई यह पहली कहानी नहीं थी। इससे पूर्व में भेजी हुई कहानियों का चयन नहीं हुआ था। कहानी की भाषा और शैली देखकर मुझे यह विश्वास हो गया था कि जगदीश के अंदर भरपूर प्रतिभा और प्राणशक्ति है। उनका चयन न होने पर भी मैंने उनके उत्साहवर्धन के लिए एक लंबा पत्र लिखा था। यह बात मुझे याद नहीं थी। बाद में उनके साथ व्यक्तिगत परिचय और अंतरंगता होने पर उन्होने मुझे यह बात बताई थी।
शायद 1974 की बात होगी। कटक में स्वतन्त्रता दिवस के उपलक्ष में आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में मैंने हिस्सा लिया था। मैं वहाँ पर हूँ, यह जानकर वह अपनी  बोहेमियान रफ्तार को नियंत्रित कर  मेरे पास आकर अपना परिचय दिया था। बाद में लेखक संपादक की वलय को तोड़ते हुए हमारे संबंध व्यक्तिगत और निबिड़ होते चले गए। निर्भीक वामवादी कहानीकार सरोजिनी साहू के साथ उनके विवाह हेतु पारिवारिक सम्मति प्राप्त करने के लिए मेरी भी थोड़ी भूमिका रही है। उन दोनों का विवाह होने के बाद भुवनेश्वर की राजमहल होटल की छत पर आयोजित बंधु-मिलन में वरिष्ठ कहानीकार अखिल मोहन पटनायक, कवि सौभाग्य कुमार मिश्रा, राजेंद्र किशोर पंडा,देवदास छौटराय और प्रकाशक सहदेव प्रधान समेत बहुत लेखक–लेखिका मौजूद थे।
प्रिंटस पब्लिशर्स द्वारा प्रकाशित सरोजिनी के प्रथम कहानी-संग्रह “सुखर मुंहामूही”का उस दिन अखिल बाबू ने अपने हाथों से विमोचन किया था और वहाँ उपस्थित सभी सृजन-शिल्पियों ने उस पुस्तक पर अपने हस्ताक्षर किए थे।
‘झंकार’ में प्रकाशित  जगदीश की पहली कहानी के शीर्षक को अगर मैं दोहराऊँ तो इतना ही कहूँगा कि उनके अकाल वियोग से ओड़िया कहानी बगीचे से एक फूल मुरझा गया, जिसकी सुगंध और अनेक वर्षों तक ओड़िया साहित्य को मिल पाती और ओड़िया सारस्वत दिग्वलय को और सुगंधित और विभोर कर पाती ।
सरोज रंजन मोहंती
एक गल्पमय जीवन का नाटकीय अंत
विगत सत्तर के दशक में ओड़िया लघु कहानियों में एक नई तरंग आई थी , जगदीश मोहंती थे उस नूतन धारा के अन्यतम स्थापत्य। उस समय मैं दो साहित्यिक पत्रिकाएँ प्रकाशित करता था। एक अपने नाम से, और दूसरी प्रतिष्ठाता के अनुरोध पर। पहली थी निरोलगल्प त्रैमासिक ‘गल्प’ नाम से और दूसरी थी कोलकाता से प्रकाशित ‘नवरवि’।
‘गल्प’ में हमने नवोदित कहानीकारों की नूतन भावना की परीक्षामूलक कहानियों को छापने की घोषणा की थी। ‘गल्प’ को केंद्र कर उस समय जो आंदोलन उठा था, उसमें भाग लेने के लिए अनेक नए तरुण कहानीकार आगे आए थे। उनमें एक थे रामपुर कोलियरी के जगदीश मोहंती। मगर पहले छः वर्ष उन्होने जो कहानी ‘गल्प’ में छपवाने के लिए भेजी थी, मैंने उन कहानियों को ‘गल्प’ में न छपवाकर ‘नवरवि’ में छपवा दिया। ‘नवरवि’ के प्रकाशक पातिराम पारिजा को यह बता दिया था कि दो साल के अंदर हमारी ‘नवरवि’ की मुद्रण संख्या दो हजार से पाँच हजार हो जाएगी। इसलिए ‘गल्प’ के लिए कोई मन-पसंद कहानी मिलने पर मैं उसे ‘गल्प’ से हटाकर ‘नवरवि’ में प्रकाशित कर देता था। कहानी में नवीन-प्रवीण का भेदभाव न रखकर ‘नवरवि’ उस समय रचनाकारों को बीस रुपए पारितोषिक देता था। ताकि ‘गल्प’ में प्रकाशित न होने पर भी अगर कोई उनकी कहानी ‘नवरवि’ में प्रकाशित होने पर कहानीकार ज्यादा खुश होते थे। मगर व्यतिक्रम थे जगदीश मोहंती।
एक बार वह मुझे कटक में जगन्नाथ रथ की किताब की दुकान पर मिले और अपना असंतोष व्यक्त किया, यह कहते हुए-“बीस रुपए के लिए कहानी लिखकर मैंने आपके पास नहीं भेजी थी। भेजी थी-‘गल्प’ में प्रकाशित करने के लिए। मेरी कहानी आपने अपने ‘गल्प’ में क्यों नहीं छापी?”
मेरे कुछ कहने से पूर्व ही जगन्नाथ रथ ने जवाब दिया-“ ‘गल्प’ में छपने वाली कहानियों से आपकी कहानी ज्यादा अच्छी होने के कारण उन सारी कहानियों को विभूति बाबू ने ‘नवरवि’ के लिए भेज दिया है ।
मनपसंद कहानी ‘नवरवि’ में, चिंता-उद्रेक कहानियाँ ‘गल्प’ में छपने की जानकारी मिलने पर जगदीश ने अपनी कहानियों का मोड़ बदल दिया। मोड़ बदलने वाली उनकी कहानियाँ थी– ‘स्तब्ध महारथी’ और ‘युद्ध क्षेत्र में अकेले फूल-पेड़ के नीचे अजितेश हँसता है।‘
‘गल्प’ में ये कहानियाँ छपने के बाद और कम अपरिचित जगदीश मोहंती का नया जन्म हुआ। मैं स्वयं जगदीश मोहंती की कहानियों से विभोर हो उठा था। और उनके पीछे पड़ गया था उपन्यास लेखन में अपना हाथ आजमाने के लिए। उनके उपन्यास ‘कनिष्क-कनिष्क’ का ओड़िशा साहित्य अकादमी पुरस्कार के चयन के समय मैं एक अन्यतम विचारक था।
बीच में कई सालों से उनके साथ मुलाकात नहीं हुई। बीच-बीच में टेलीफोन पर बातचीत हो जाती थी। उन्होंने अपने हाथ से मेरी टेलीफोन डायरी में अपना और सरोजिनी का मोबाइल नंबर लिख दिया था।
गतवर्ष अगस्त महीने में टेलीफोन पर उन्होंने कहा था, “मैंने सोचा है एक नई गल्प पत्रिका निकालने के लिए। उस पत्रिका में सबसे पहले आपका दीर्घ साक्षात्कार प्रकाशित करना चाहता हूँ। प्रकाश महापात्र को मैंने कह दिया है कि वह टेप और कैमरा लेकर आपके पास जाएगा। आप जब कभी भी भुवनेश्वर में फ्री रहेंगे, मुझे खबर कर देंगे तो मैं प्रकाश को कह दूंगा।
मैंने अपना साक्षात्कार देने के लिए एक शर्त पर तैयार हो गया। पूजा प्रकाशन “गल्प-इक्कीसवीं सदी में” में कहानियों के शीर्षक और आलेख अगर वह लिखकर देंगे, जो आगामी अंक में प्रकाशित होगा।
आनंद विभोर हो गए थे जगदीश। मगर उनकी ‘कहानियों के लिए कहानी’ मेरे पास पहुँचने से पहले एक मर्मांतक संवाद आ गया।
गत दिसंबर 29 तारीख की शाम को विश्वजीत दास की स्मृति संध्या में भुवनेश्वर जयदेव भवन में उनके द्वारा लिखी गई एकाँकी (नाटक) देख रहा था। पास में बैठे हुए थे उस शाम के मुख्य अतिथि जानकी वल्लभ पटनायक। नाटक समाप्त होने से पूर्व अचानक असित ने आकार कहा –“सर ! जगदीश मोहंती चले गए। एक मिनट बाहर आइए। टेलीविज़न वाले आपकी प्रतिक्रिया लेने के लिए प्रतीक्षा कर रहे है।
जानकी बाबू पूछने लगे – “कौन चला गया विभूति ?”
मैंने कहा–“मुझे विश्वास नहीं हो रहा है। मगर असित कह रहा है ,विशिष्ट कहानीकार जगदीश मोहंती चले गए।
अविश्वसनीय होने पर भी सत्य।
बेलपहाड़ लेवेल क्रॉसिंग पार करते समय उनकी प्राणप्रिया पत्नी सरोजिनी के आँखों के सामने ट्रेन ने ओड़िशा के इस कीर्तिमान कथाशिल्पी को धक्का देकर दूर फेंक दिया, यह दृश्य कल्पना करने मात्र से एक शोकाकुल भावावेग आँखों को नम कर देता है और कलाम को स्तब्ध।
उनका जीवन था गल्पमय और मृत्यु नाटकीय।
विभूति पटनायक
हे  बंधु, अलविदा!
जगदीश मोहंती को ओड़िया साहित्य में एक विशिष्ट साहित्यकार के रूप में जानने से पहले से मुझे उसे “जोगेश” के रूप में जानने का सुअवसर मिला था। 1965 या 1966 की बात होगी। ‘प्रजातन्त्र’ के ‘मीनाबाजार’ के पत्र-बंधु स्तम्भ से उसका पता मिला था। उस समय जोगेश गोरूमहिसाणी में स्कूल का एक छात्र हुआ करता था। उसके साथ पत्राचार करने का एक दूसरा कारण भी था कि  वह सिंहभूम (बिहार) का वासिन्दा था। ओडिशा से बाहर रहने के कारण इस बिछड़े अंचल के प्रति मन में अधिकतम आकर्षण था। मैं उसे चिढ़ाने की कुचेष्टा करता था यह कहकर,“ तुम क्या ओड़िया आदमी हो?” इस अकिंचन को यह मालूम न था कि वह किसी दिन ओड़िया साहित्य का गर्व और गौरव का विषय बनेगा। हमारी मित्रता और गहराने तक मैं बड़मा हाई स्कूल उत्तीर्ण कर रेवेन्सा कॉलेज में अपना नाम दर्ज करवाने के लिए कटक चला गया। उसके एक साल बाद बी॰ फार्मा में दाखिला लेने के लिए जोगेश भी कटक चला आया और अचानक एक दिन बिना किसी पूर्व सूचना के मेरे छात्रावास के रूम में पहुँचकर मुझे आश्चर्य-चकित कर दिया। उस समय जोगेश का व्यक्तित्व पूरी तरह से बोहेमियान था। जिस जोगेश को पत्र के माध्यम से विगत 4-5 साल से जान रहा था, उसके साथ मुलाकात होने से मन कुछ अस्वस्ति अनुभव कर रहा था। हम सभी “अच्छे लड़के” की श्रेणी वाले छात्र बहुत ही ‘शृंखलित’ जीवन जी रहे थे। केवल पहली दृष्टि में ही यह पता चल गया था कि जोगेश हमारा व्यतिक्रम है। हम सभी सूर्योदय के साथ स्नान आदि से निवृत्त होने के बाद पूजा-पाठ से दिनचर्या प्रारम्भ करते थे, मगर जोगेश आराम से देरी से उठ बिना दातौन किए कक्षा में सीधे चला जाता था। कभी भी पोशाक के प्रति विशेष ध्यान न था। उसके पेंट-शर्ट पर कब इस्तरी हुई होगी , यह कहना कठिन था । उस समय उसकी कलम ने ओड़िया साहित्य में हलचल मचाना शुरू कर दिया था। न केवल अपने विषय, बल्कि अपने परिवार के सदस्यों को लेकर अप्रिय सत्य लिखने का अगर साहस था तो केवल जोगेश में। ओड़िया साहित्य में एक नूतन दिशा का उसने आविष्कार किया था, साथ ही साथ एक नई शैली का भी। जोगेश के साथ मेरे संबंध उसके चरित्र की तरह किसी निर्दिष्ट ट्रेक का अंधा अनुकरण करने से पूरी तरह मुक्त था। कभी आधी रात को वह टपक पड़ता था और घंटों-घंटों गप हाँकता था, तो कभी महीने महीने तक उसकी कोई खबर नहीं रहती थी। जब गत शताब्दी के सप्तम दशक के टेलीफोन युग में भाईचारा बनाए रखने की प्रथा हमारे बीच नहीं थी, तो आज के इस फेसबुक युग में बिना इन्टरनेट के प्रयोग के हम किस तरह जिंदा है-यह बात आधुनिक किशोर वर्ग को अचंभित और आमोदित करती है। एक दिन जोगेश तपती दुपहरी में मेरे रूम में आया और कहने लगा, “बाहर कोई तुम्हारा इंतजार कर रहा है।” यह कहते हुए उसने मुझे खींचकर देवदारु पेड़ के नीचे प्रतीक्षा कर रहे रिक्शे की ओर ले गया। रिक्शे में किसी अनजान युवती को बैठा देख ,मैं हतप्रभ और निर्वाक रह गया। कहने का अर्थ वह युवती थी– लाला उर्फ आज की विशिष्ट साहित्यकार सरोजिनी साहू। यद्यपि जोगेश ने मुझे पहले ही लाला के साथ अपने सम्बन्धों के बारे में कुछ बताया था, यकायक किसी युवती का मेरे सामने प्रकट होना कल्पना से परे था और हॉस्टल के सामने उसके साथ बातचीत करने की महार्घ्य अनुभूति जोगेश के लिए ही संभव थी। जोगेश ने मेरे सीमित और एक ही ढर्रे पर चलने वाली जिंदगी की दिशा को विस्मित कर दिया था। अवश्य ही, उस समय तक जोगेश की कहानियों में मेरा आविर्भाव होना बाकी था। उसके बाद उसकी अनेक कहानियों में उपनायक के रूप में मेरा चित्रण कर उसने मुझे अमर कर दिया।
उसके और मेरे संबंध एक अलिखित थीम की तरह थे, जो बीच-बीच में कई बार ‘गायब’ हो जाती थी। वर्ष-वर्ष तक वह अज्ञातवास में चला जाता था और उसे खोजने का दायित्व होता था मेरा। पढ़ाई समाप्त करने के बाद मैं जीविकोपार्जन के लिए उत्तरप्रदेश चला गया और जोगेश चला गया रामपुर कोलियरी। मैंने अनियमित व्यवधान में बातचीत करते समय यह आश्वासन दिया था कि वह रामपुर कोलियरी जाकर उसे सरप्राइज़ देगा। इसी दौरान जोगेश ने ओड़िया साहित्य के एक ख्याति-लब्ध कहानीकार के रूप में अनेक सम्मान और स्वीकृति पाकर पहचान बना चुका था। यदा-कदा अवश्य ही सरोजिनी की कहानियों की ज्यादा प्रशंसा कर उसे चिढ़ाने का प्रयास करता था। जोगेश चला गया बिना किसी पूर्व सूचना के। मैं अपनी जुबान रख न सका। रामपुर और बेलपहार पहुँचकर तुम्हें चकित करने से पहले ही तुम हम सभी को निर्वाक-चकित कर चले गए।
अलविदा बंधु,अलविदा! जहां भी हो प्रतीक्षा करना। मुलाकात अवश्य होगी।
गोपबंधु पटनायक ,
सभापति, लखनऊ ओड़िया समाज
3॰ जगदीश की अमूल्य डायरी के कुछ अंश
एक अरुणाभ :-
एक दिन था- मुट्ठी भर सपने फेंकने से संध्या का आकाश लाल हो जाता था। कभी मसृण गेंहू  की तरह रंगीन ममता थी पृथ्वी के प्रति। अभी तो वर्षा की संवादहीन मध्यान्ह की तरह अनुभूति। थकान आ जाती है पैरों तले। पसीना जमने लगता है। जल जाती है घास की छाती-पाँव तले। जल उठती है मलिन संध्या, दोपहर,पूर्व जन्म और स्मृति ।( 23 जून 1976)
गौतमी :-
मुझे भूलकर सुख  में हो ?
स्मृति के सूर्य को ढककर अपने पल्लू में।
गौतमी, सुख में हो ?
फिर भी कहीं से आवाज आ रही है, तुम्हारा शरीर आवाज दे रहा है
प्रपात की तरह, झरने की तरह, नदी-नाले के कलकल की तरह
निद्रालु आँखों की पलकों पर
जागती ट्रेन भद्र गति से टहलती है,
तुम्हारा शरीर आवाज करता है।
फिर पूछता है- सुख में हो ?
स्मृति के सूर्य को ढककर अपने पल्लू में।
गौतमी,सुख में हो ?
( 4 जुलाई 1976, बारिपादा)

श्मशान संधान में अरुणाभ :-
अरुणाभ, कहाँ गाड़ोगे, कहो, तुम्हारे शव को ?
किस श्मशान में छुपाओगे ?
जहां पैदा होंगे तुम्हारे चारगाह, कैसे वे संभालोगे?
कितने दिन ढोओगे कंधे पर गले शव को
चले जाओगे श्मशान का रास्ता खोजते, कितने दिन ?
( कृतज्ञता स्वीकार :- टी॰एस॰इलियट )
( 4 जुलाई 1976 )
विदा की फॉर्मल वाणी :-
अलविदा बंधुगण! स्मृति के गरम कोयले की आंच पर सोते-सोते हाथ हिलाया अरुणाभ ने। उसके जाने के बाद तुम खंगालकर देखोगे उत्तप्त कोयले के हृदय की सफ़ेद राख़। देखो, कितने पाप, कितनी घृणा और कितने क्षुद्र हृदय को छुपा रखा था उसने।देखो, कितना स्नेह, कितनी महानता और कितने उदार हृदय को छुपा रखा था उसने।
महाभारत का अंतिम अध्याय और अर्जुन की भूमिका
एक अदृश्य निष्ठुर हत्यारा बारंबार तुम्हें लेकर खेल खेल जाता है। समय के प्रत्येक विशुद्ध क्षण के शरीर पर तुम्हारे खून की रंगोली आंक जाता है। बीच-बीच में तुम विद्रोह करते हो। विप्लवी शक्ति लेकर खड़े हो जाते हो  उस अदृश्य हत्यारे के खिलाफ। चीत्कार कर रहे हो– कहो पाशा, मेरे प्रतिदिन हिसाब के खाते से सुख के पल क्यों चोरी कर लेते हो ?
मगर इतना ही। इसके बाद अचानक महाभारत के अंतिम अध्याय के अर्जुन की तरह शक्तिहीन हो जाते हो। हाथ से गिरा देते हो अपने अस्त्र। भय से सिहर उठता है शरीर। पाँव कांपने लगते है। थकान से धूल इतनी जम जाती है, तुम्हारे शरीर पर बैठ जाती है।
क्या तुम सब कुछ इस तरह चुपचाप सहते जाओगे, शक्तिहीन हो जाओगे अरुणाभ ?  ( 20 जून 76 )
2. जगदीश मोहंती की रचनाधर्मिता पर शोध करने वाले साहित्यकार निवारण जेना द्वारा चयनित उनके प्रमुख वाक्यांशों का अनुवाद :-
यथार्थवाद के जनक जगदीश मोहंती की कहानियों में न केवल आशा व सत्यनिष्ठा, बल्कि एक नई सुबह की प्रतीक्षा की खोज के स्वर स्पष्ट झलकते है। जगदीश मोहंती की रचनाधर्मिता पर शोध करने वाले साहित्यकार निवारण जेना ने उनकी कहानियों में पात्र की दैनिक जीवन-चर्या, उसकी विपन्न स्थिति और शून्यता-बोध को उजागर करने वाले वाक्यांशों के माध्यम से आधुनिक मनुष्य जीवन के यथार्थवाद को प्रस्तुत किया है। जिसके कुछ अंश नीचे अनूदित है :-
1.स्वाधीनता की ज्वाला सहन नहीं होती है। किसी निर्जन स्थान पर बंधु-बांधव, आत्मीय और परिजनों के अभाव में एकाकी मृत्यु की पीड़ा अत्यंत भयावह होती है। सहन नहीं होगी। सहन नहीं हो पाती। किन्तु सारे बंधनों के अंदर रहने वालों की यंत्रणा भी कुछ कम नहीं। (क्रीतदास)
2.दुनिया में डरपोक बनकर रहने से ही जीवन का उपभोग किया जा सकता है। जब तक जीवन का पूरी तरह पाया नहीं जाता तो वह सुंदर लगता है। अन्यथा पाते ही नर्क बन जाता है। (फासिल के सुख-दुख )
3. बहुत लंबी, बहुत बड़ी है जिंदगी। इस जिंदगी का बोझ ढोते-ढोते  किसी का दम घुटकर फॉसिल  बन जाएगा। जीवन में कुछ मिला है ,कुछ नहीं। जीवन में सब कुछ मिल जाने का कोई अर्थ हो सकता है ? (फॉसिल के सुख-दुख)
4. लोग जिंदा रहने के आश्चर्य-चकित ढंग से मुग्ध हो जाते हैं। मृत्यु उनके सिर पर मच्छर की तरह घूमती है, दुनिया के किसी इंसान को इस बात का ख्याल रहता है ?   ( कोई भी दरवाजा खुला नहीं)
5. प्रत्येक मनुष्य अपने बाहरी आवरण के नीचे नग्न व नि:संग है। (दक्षिण दिशा का घर)
6. मेरे सीने के अंदर पता नहीं कुछ खो गया है। उस चीज के बिना, पिंजरे के नीचे वाले कमरे में केवल शून्यता भर गई है। मैं नहीं जानता वह चीज कहाँ, कैसे मिलेगी। मेरा किसी भी दर्शन, मूल्य-बोध, कमिटमेंट पर अब और कोई विश्वास नहीं। किसी के निर्देश पर भी वह न तो जीवन को बंधन के भीतर बांध सकता है और न ही प्रेम का किसी ज्यामितीय नक्शे पर अंकन कर सकता है। (दक्षिण दिशा का घर)
7. मुझे एक ऐसी मिट्टी चाहिए,जहां मैं अनुभव कर सकता हूँ अपने रक्त में नमक का स्वाद और पानी में लोहे का। (दक्षिण द्वार का घर)
8. निःसंगता का सामना न कर पाने के लिए केवल हमने आपस में एक-दूसरे के सामने समर्पण कर दिया। मन तो उच्च स्तर पर रहता, प्रतिमा। शरीर गंदा होने पर साफ किया जा सकता है। मगर मन मैला होने पर धोया नहीं जा सकता। (दक्षिण दिशा का घर)
9॰ दर्पण देखा है कभी ? जीवन भी ठीक उसी तरह। दर्पण किसी भी परछाई को पकड़ कर नहीं रख पाता। आदमी के हटते ही उसकी छाया लुप्त हो जाती है। (दक्षिण द्वार का घर)
10. निर्वासन में हुआ था मेरा जन्म। जिस दिन मेरा जन्म हुआ, उस दिन से निर्वासन के अंदर रहता आया हूँ। (निर्वासन में एक कवि )
11. वास्तव में कोई भी आदमी वर्तमान में नहीं जीता है। कोई जिंदा रहता है भविष्य के सपनों में, तो कोई जीवित रहता है अतीत की स्मृतियों में। ( सीमाबद्ध)
12. विश्व-साहित्य की प्रसिद्ध कहानियों/ उपन्यासों के सारे नायक,भले ही, जीवन-विरोधी न हो, मगर विकृत मानसिकता वाले अवश्य हैं। (कोई भी दरवाजा खुला नहीं)
13. अंतिम दृश्य नजदीक आता जानकर भी हर बार प्रत्याशा में दुख धोते हुए आते-जाते हैं, जबकि जीवन अचल  चवन्नी की तरह है, जो लेता है वह लौटा देता है। ( कोई भी दरवाजा खुला नहीं)
14. प्याज का छिलका उतारने की तरह दिन खिसकते जाते हैं हमारी कोई परिणति है क्या ?
15. आप जाकर किताबी बैंगन ही देखते हो। बाड़ी के बैंगन नहीं देखते। एक बार देखो तब समझोगे, थ्योरी और प्रेक्टिकल में बहुत अंतर होता है। रिवोल्ट करना कितना रोमांटिक होता है, मगर वास्तविक जीवन में उसका क्या स्थान है? इड़ हैव टू सरेंडर, प्रमोद बाबू। इड़ हैव टू एडजस्ट देट एनवायरनमेंट। आज सीधा किसे देख रहे हो,जिसने अपने जीवन में कभी सरेंडर न किया हो। (दुपहर नहीं देखने वाला एक इंसान )
16. नौकरी में भी बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। यही तो है दासत्व। आपका ज्ञान जितना बढ़ेगा,आप देखोगे कि आपका सारा स्वाभिमान कोई मायने नहीं रखता है। आपको बहुत कुछ सहन करना पड़ेगा, एडजस्ट करना पड़ेगा। (दुपहर नहीं देखने वाला एक इंसान )
17. प्रत्येक स्त्री अपने भीतर कुछ रहस्य यत्नपूर्वक छुपाकर रखती है। इन रहस्यों के कारण उन्हें समझा नहीं जा सकता।(पलायन का रास्ता )
18. धर्म होता है एक भीड़, एक परंपरा, एक रिचुअल और अध्यात्म होता है मनुष्य का व्यक्तित्व, उसके जीवित रहने का उद्देश्य और उस अपरिचित एबसोल्यूट  ट्रुथ से आमने-सामने होने का रास्ता।(कोलंबस का जहाज)
19. हम एक दूसरे से आपस में इतने छितर-बितर जाते हैं और अपनी अपनी परिधि में इतने सीमाबद्ध कि और किसी का दुख समझने की अवस्था में नहीं होते। प्रत्येक अपने-अपने सुख खोजकर अपनी प्रेस्टीज़ बचाकर रखने के लिए एक दूसरे के लिए दूर होते चले जाते हैं। अतीत के किसी एक शुभ पल की किसी केबिनेट साइज फोटो के भीतर कोई हाफ-पेंट,कोई पंजाबी सलवार तो कोई फ्रॉक पहनकर कंधे से कंधे सटाकर चले जाते हैं। आज कई साल बाद  पोशाक बदलकर माँ-बाप से सभी अपने अपने रास्ते पकड़कर दूर चले गए, भविष्य के सारे अशुभ पलों को आमंत्रित करने के लिए। अलबम में वे चेहरे आज भी उसी तरह है। मगर भिन्न ढंग से, भिन्न रूप में।  (अलबम में कितने चेहरे)
20. चालीस वर्ष तक पिता नगेंद्र मोहंती ने विशाल वृक्ष की तरह जिस परिवार को अपने खून-पसीने से सींचा था, जो आखिरकर चौदह दिन के अंदर शाखा-प्रशाखाओं में टूटकर आपस में विच्छिन्न हो गए।(अलबम में कितने चेहरे)
21. स्नेह,प्रेम और विश्वास के मूल्यबोध का भूकंप उठा था, फिर भी अभी तक सब-कुछ नष्ट नहीं हो पाया था। कुछ न कुछ तो अभी भी बचा हुआ था हमारे हृदय में। (अलबम में कितने चेहरे)
22. जीवन को किसी परिभाषा में मत बांधो। जीवन जीवन है। तुम लोग प्रतिदिन जीवन को शब्दों में, भाषा में, संज्ञा में बांधना चाहते हो। हजारों-हजारों,लाखों-लाखों साल से जीवन ऐसे ही चलता आ रहा है इस पृथ्वी पर। और हम क्या अपने थोड़े से सालों के अल्प अनुभव से जीवन को संज्ञा में बांध सकते है ? ( अलबम में कितने चेहरे)
23. जिस दुर्योधन और दुशासन को हम दोषी ठहराते है कि उन्होंने द्रौपदी का वस्त्र-हरण किया था, क्या वास्तव में वे लोग ही दोषी हैं? जिन पांडवों ने द्रौपदी को जुए में खेला था, क्या वे दोषी नहीं हैं? जिस कृष्ण ने द्रौपदी को वस्त्रदान कर वाह-वाही लूटी थी, क्या वहीं कृष्ण घर की बहू-बेटियों की इज्जत के साथ नहीं खेले थे? वास्तव में हमारा मूल्य-बोध एकतरफा और शासक-दल केन्द्रित होता है। (मेफिस्टोफेसिल पृथ्वी )
24. वह शासन-व्यवस्था क्यों नहीं आती है, जो शासन में कभी गद्दी पर नहीं बैठते है, दल में उन पर अत्याचार होता है, बलात्कार होता हैं। जो लोग बारिश की ओर छाता दिखाकर चलेंगे, वे लोग जीतेंगे और बाकी पर दल में अत्याचार होगा। (मेफिस्टोफेसिल पृथ्वी )
25. बल्कि, सभी कोई जीवन जीना भूलकर जन्म और मृत्यु के बीच के अंतराल को पार करने के लिए हाँफते हुए भागे जा रहे हैं।                      ( मेफेस्टोफेलिस की कब्र तले सब लोग)
26. किसी भी आदमी को जिंदा छोड़ देने से बड़ा और कोई दंड नहीं है। (मेफिस्टोफेसिल पृथ्वी)
27. भुवनेश्वर बहुत ही अविश्वसनीय है। आकाश में तारे टिमटिमाते ही सभी एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं।भगवान जाने, शायद उल्का-पात हो जाए या उपग्रह अपने कक्ष से खिसक जाए।किसे पता, चुंबन देने आई प्रियतमा ने अपने हाथों में बाघ-नख छुपा रखे हो। (मेफिस्टोफेसिल पृथ्वी)
28. हरेक आधुनिक कहानी कोई न कोई सवाल छोड़ जाती है,जिसका कोई जवाब नहीं होता। (डेना)
29. समय बड़ा ही निर्दयी होता है। समय किसी के मन की बात नहीं समझता, दुख नहीं समझता और समझाने पर समय उलटे रास्ते चलाने लगता है। (रेवती)
30. ज्यादा कुछ घटित न हो जाए, सोचकर ही जीवन संबन्धित इतनी कहानियाँ कह पा रहे हैं। (रेवती)
31. ऐसा लगता है,मनुष्य कभी बादल नहीं सकता। ऐसा लगता है, समय भी कभी बदल नहीं सकता।शायद युगो-युगो से हम सीमित ठिकानों पर रहते आए हैं, जिसके सापेक्ष परिवेश बदल जाता है।(साठ दशक)
32. परिस्थितिवश कोई सीता तो कोई शूर्पणखा बनती है।(हृदय-सिंहासन)
33. ऐसा क्यों कर रहे हो? समय के अजस्र स्रोत में भी लगातार एक कहानी की बार-बार पुनरावृत्ति होती जाती है। यह प्रश्न ब्लैकबोर्ड पर सालों से ऐसे ही लिखा हुआ है। किसी ने भी उसे मिटाने की आवश्यकता नहीं समझी।(रायगढ़ा-रायगढ़ा)
34. जीवन इतना क्षणभंगुर नहीं है कभी भी। आग जला नहीं पाती, पानी डूबा नहीं पाता, हवा उड़ा नहीं पाती। केवल एक आततायी के हाथों मरना पड़ता है सभी को। उस आततायी से डरो, उसे सलाम करो। आग को नहीं। पानी को नहीं। हवा को नहीं। ( सोन मछली)
35. हम माँ से बहुत दूर चले गए हैं। इतने दूर कि हाथ बढ़ाने पर भी बचपन वाली माँ को और छू नहीं सकते। हमारे अतीत के साथ ही हमने उसे खो दिया। (माँ के लिए घर)
36. प्रेमी और पति में क्या अंतर होता है ? प्रेमी के साथ प्रेमिका चलते समय अपना बोझ खुद ढोती है, जबकि पत्नी के साथ चलते समय उसका बोझ उठाना पड़ता है पति को। प्रेमिका हर समय सबमिसिव होती है और पत्नी हर समय डोमिनेंट होकर रहती है। (खुले पिंजरे का पक्षी)
37. जिंदगी एक एक्सप्रेस ट्रेन की तरह है। अनुभवों के मैदान, घर-द्वार और पेड़-पौधों को पार करती हुई वह ट्रेन एक के बाद एक अभिज्ञता के नए-नए स्टेशन पार करती हुई चलती जाती है। (खुले पिंजरे का पक्षी)
38. तुम जिस समय अपनी इच्छा-अनिच्छा की बात करोगी, कहीं न कहीं, तुम्हारा गला घोंटते हुए वह कहेगी-एक पागल! (कोई भी दरवाजा खुला नहीं)
39.जैसे अभी भी समय का हाथ पकड़कर चलता जाता है तुम्हारा ईश्वर। मेरुपर्वत तोड़ देता है अंधेरे में अतृप्त प्रणय। आखिरी बस चली जाती है, उसे जाना पड़ता है। फिर भी तुम जिंदा रहते हो मुक्ति के लिए। (कोई भी दरवाजा खुला नहीं)
40. जीवन में किसी भी प्रकार का एचिवमेंट नहीं होता। सभी एक ही वृत्ताकार पथ पर दौड़ते चले जाते हैं। (दुपहर नहीं देखने वाला एक इंसान)
41॰ रिवोल्ट करने वाले लोग हाई-स्कूल के इतिहास से निकलकर चले गए कोठे पर औरत और अपनी प्रेमिकाओं के साथ रास खेलने। और कितने दिन रिवोल्ट कर पाते? भरी दुपहरी में के॰ सी॰ पाल के छाता और वर्षा के मौसम किसी बरसाती या किसी खरगोश की पेड़-पौधों के पीछे छुपाने की तत्परता सभी को हैं। (दुपहर नहीं देखने वाला एक इंसान)
42. अध्यात्म तो बुढ़ापे की तरह है। बुढ़ापे में आदमी सब-कुछ अच्छे व्यंजन, शारीरिक आकर्षण और सारे सांसरिक मोह छोड़ने को बाध्य हो जाते हैं। अध्यात्म भी ठीक उसी तरह। तुम्हें सारे दुनियावी आकर्षण छोड़ ऊपर उठना पड़ेगा। (कोलंबस का जहाज)
43. यदुवंश के अंतिम झगड़े की तरह सारे प्रश्न असमाहित होने पर एक बार फिर मुक्ति पाने का समय आता है। सभी अपने अपने परिवार वालों को लेकर अपनी अपनी छत के नीचे छुप गए। शायद गाँव के ठिकाने विलुप्त हो गए हमेशा के लिए शून्य कोठरी की तरह। (अलबम में कितने चेहरे)
44.बंधनों के अंदर रहकर जीवन का स्वाद चखना पड़ता है। उससे मुक्त होने पर ही स्वाधीन की तरह जिया जा सकता है मगर आजीवन केवल अनाश्रित अनुभव की तरह। (अलबम में कितने चेहरे)
45. तुम अपने जीवन को बाल की तरह लुढ़का दो। वह लुढ़कती-लुढ़कती कर्कश मिट्टी, कांट, रुक्ष घासफूस, पत्थर सभी पर घिसती-घिसती आगे बढ़ती जाएगी ,बेटा! नहीं तो, तुम जहां खड़े हो, वहीं खड़े रह जाओगे हमेशा के लिए।  (सोन मछली)
46. आज बड़े ही अपरिचित लग रहे थे अपने खून के रिश्ते वाले। अपना बचपन, जवानी भी ऐसी लग रही थी मानो किसी और की कहानी हो।(सुंदरतम पाप)
47. जिंदा रहने से बड़ा पाप और कुछ नहीं है इस दुनिया में। (सुंदरतम पाप)
48. ठंडी चाय के प्याले में परत की तरह झलकने लगा था उसके चेहरे पर उम्र का अस्तर (वह नहीं)
49. जीवन बहुत सुंदर है। जीवन का मतलब पाप है। और पाप ही सबसे सुंदर है।( सुंदरतम पाप)
50. आधी रात को सोती आँखों की पलकों पर उसकी प्रेमिका चलने लगती है धीमी गति से। देह के अंदर मानो प्रपात की तरह झरने लगती है- उसकी प्रेमिका की यादें। (प्रतिद्वंदी )

51.उसकी नाक इतनी चिकनी थी कि अगर उस पर मक्खी बैठे तो भी वह फिसल जाएगी। उसकी छाती की दोनों स्तन कमीज से बाहर निकलने के लिए इतनी व्याकुल मानो वे पीछे से बेकलेस खोलने का इंतजार कर रही हो।(फासिल के सुख-दुख)
52.सपनों की रेलगाड़ी में हमारे जैसे मध्यमवर्गीय परिवार वाले लोगों के लिए कोई स्थान नहीं हैं।(प्लेटो का अटलांटिक आविष्कार)
53. अंधेरे में बिस्तर पर सारी लड़कियां समान।सुपर्णा सुलक्षणा हो सकती है।सुलक्षणा मीरा हो सकती है।(प्लेटो का अटलांटिक आविष्कार)
54.उसकी आँखों के पास सभी लोगों के चेहरे मैले बैंडेज की तरह। रक्तकणों में केवल उसकी स्मृति की गंध। शब्दहीन ऋतु भी उसकी शिराओं में, वह ऋतु अनुभवहीनता की। उसके आगे अंधेरा, उसके पीछे अंधेरा।लाखों योजन मील लंबे अंधेरे के अंदर उसकी छब्बीस साल की उम्र धीरे-धीरे गायब होती गई। उसके अस्तित्व को जैसे किसी ने बासी पोस्टर की तरह फाड़कर फेंक दिया हो।(एक टेरेफिक घटिया कहानी की भूमिका)
55. स्टेशन के चाय की तरह बेस्वाद जीवन। (एक टेरेफिक घटिया कहानी की भूमिका)
56. जीवन को बदलकर खुचरा बना दिया है। कुछ समय के अंदर खत्म हो जाएगा। मेरे अस्तित्व के सारे छेदों वाली जगह पर कोई खास सुबह नहीं आएगी। (एक टेरेफिक घटिया कहानी की भूमिका)
57॰ सुंदरता बहुत ही घातक। इतनी घातक कि वह तुम्हें मरने भी नहीं देती। बचे-खुचे शरीर को भी तड़पा-तड़पाकर मारेगी।(एक टेरेफिक घटिया कहानी की भूमिका)
58. तुम्हारी सुंदरता में नहीं थी मछली और सांप की स्तब्ध आँखों की ज्योत्सना। अगर थी भी तो किसी कारखाने की छुट्टी की घोषणा करने वाले दूर से सुनाई पड़ने वाले सायरन का  आकर्षक पल। थक कर चूर हुए शरीर में प्रवेश करती एक आरामदायक कोठरी का अनुभव तुम्हारे सान्निध्य में। तुम्हारा चेहरा उस निर्जन बेलाभूमि की तरह, जहां पर समय अपने बहुत सारे पद-चिह्न छोड़ जाता है। (ईर्ष्या एक ऋतु )
58. तुम्हारा हृदय वास्तव में बहुत विशाल था। इतना विशाल कि राऊरकेला के सारे लड़कों के अलग-अलग कमरों वाला घर हो। राऊरकेला की लड़कियों की यह ही खासियत है। जिनके सीने में हृदय नहीं-ऑफिस की तरह एक घर है। उसके प्रत्येक कोठरी कितने लड़कों के लिए उद्दिष्ट हैं।मगर प्रत्येक कमरे का अलग अलग सम्मान। आईजेएच अस्पताल के सीएमओ का चैंबर और जूनियर डॉक्टर के चैंबर की वेल्यू क्या बराबर होगी ? (ईर्ष्या एक ऋतु)
59. तुम्हारी सुंदरता इतनी घातक थी कि उस घातक नदी में लुप्त हो गया तुम्हारा क्रीतदास बनकर। तुम सुंदर हो। उपभोग करने की अपेक्षा तुम्हें दूर से देखने में ही तृप्ति मिलती है । (ईर्ष्या एक ऋतु)
60.नर्सों के पास सतीत्व जैसी क्या कोई चीज बाकी रहती है जिसे वह दिखाकर घूमती फिरेगी? कुछ नहीं हैं, इसलिए तो वे शरीर दिखाकर घूमती हैं। (उलटे पक्षी का वृतांत)
61. मनुष्य तो शब्दों से गढ़ता है स्वप्निल रात को और कोई यथार्थ की कुल्हाड़ी से काट देता है उसके भौतिक अंधकार को,और कहता है, तैयार करूंगा लोकालय,प्रेमी का शहर, मनुष्य का घर। (बाहर में खड़ा हुआ इंसान)
62. पान खाने से दांतों की संधि पर जमे मैल की तरह सारी शून्यता और व्यर्थ के दुख जमा हो रहे थे उसके शरीर पर। (बाहर में खड़ा हुआ इंसान)
63. जीवन इतना अर्थहींन, फिर भी मनुष्य जीते हैं धूसर हृदय के साथ। चैत्र की आँखेँ उजड़ा हुआ खेत देखकर हर बार बैठ जाती है नई फसल के लिए। घोड़े के खुरों की टप-टप आवाज की तरह स्मृतियाँ रक्त में प्रतिध्वनित होती हैं। शून्य की मग्न अनुभूति, स्मृतियों से भरे दूर चन्दन वन से खुशबू लाती हैं। बारिश से भीगी बाउल फूलों की संध्या की गंध में समुद्र की सारी लहरें मनुष्य के हृदय के रक्त-रक्त में आने वाली उज्ज्वल भोर की तरह तीव्र आशा के साथ मनुष्य को बचाकर रखती है। जीवन ऐसा अनोखा है। (बाहर में खड़ा हुआ इंसान)
64.एक सुनहरी प्यास में उसका हृदय खाँ-खाँ करने लगता है। याद हो आया:- जीवन इस तरह व्यर्थ हो गया हारी हुई लाटरी के टिकट की तरह। (बाहर में खड़ा हुआ इंसान)
65.और किसको जूड़े से गिरे भूलफूल की स्मृति अच्छी लगती है !जीवन ऐसा ही है।प्रेम का कोई मायने नहीं होता। जीवन जीने के लिए जो जरूरी है वह हैं-बहुत सारे पैसे,सम्मान और प्रतिपत्ति।(बाहर में खड़ा हुआ इंसान)
66.इस तरह का विचित्र जीवन चलता आया है युगों-युगों से। जीवन की सारी स्थितियाँ अनाक्रमणीय हैं। प्रश्नातीत हैं। एक दूसरे की घर की दहलीज के बाहर खड़े होकर युग-युग से मनुष्य जीता आया है। जीता रहेगा। (बाहर में खड़ा हुआ इंसान)
67.हर मनुष्य के भीतर एक शून्य होता है। उस शून्य में जलकर अपने को भस्म कर देने की अपेक्षा मनुष्य चाहता है समान रुचि व हम-उम्र साथी की तलाश करना। उस शून्य को प्रेम से भरने के लिए।(और निजस्व कौनसे दुख नहीं )
68.पृथ्वी की हरेक नारी के साथ बलात्कार होता है उसकी पहली चौसठ रात में। (और निजस्व कौनसे दुख नहीं )
69.हरेक लड़की चाहती है ऐसे एक पुरुष को जिस पर वह निर्भर कर रहस्य की दीवार को लांघकर पलायन कर जाए सुख  के महल में। (और निजस्व कौनसे दुख नहीं )
70.हम किसी को अपना प्रेम देकर भी प्यार नहीं कर सकते,क्योंकि हमारा अस्तित्व खंड-विखंड सत्ता की समष्टि है। हमारे सीने के भीतर हृदय के अनगिनत टुकड़े बच्चों के चारकोनिया ब्लॉक जैसे खिलौने की तरह। किसके साथ कौन खाप खाएगा-और किससे नहीं-आगे से कहना मुश्किल। (और निजस्व कौनसे दुख नहीं )
71.जीवन किसी धारावाहिक फार्मूले की कहानी नहीं है जो किसी निश्चित परिणति को पाकर क्लाइमैक्स पर पहुँचकर रुक जाएगा? ऐसे भी जीवन का कोई क्लाइमैक्स नहीं होता।(बाहर में खड़ा हुआ इंसान)
72.जन्म और मृत्यु के बीच कई हजारों मील लंबे पलों की दूरी है। जबकि एक पल में मौत, केवल मात्र एक पल की मृत्यु- यही तो हमारा जीवन है। फिर भी ऐसा लगता है, मरणासन्न पल धूल की तरह जमा होते रहते हैं शरीर के अंदर कहीं पर,जैसे समुद्र के भीतर डूबे पहाड़ कभी ऊपर उठेंगे।(एक रोमांचक हत्याकांड के संबंध में)
73. पैसे इकट्ठे करने का एक नशा होता है।इस नशे की लत लगने पर आहिस्ते-आहिस्ते पेट बढ़ने लगता है।केवल एल्कोहोलिक नशा ही नहीं जमता है पेट पर,बल्कि एक प्रकार के सुख के पैसों की चर्बी भी जमने लगती है।(एक रोमांचक हत्याकांड के संबंध में)
74.मध्यम-वित्त परिवार की लड़कियां सब काम करती है,बल्कि हाँ-हाँ,ना-ना का खेल खेलते-खेलते पास आ जाएगी।(एक रोमांचक हत्याकांड के संबंध में)
75. जीवन कनिष्क की तरह खंडित है।कनिष्क की मूर्ति के ऊपर धड़ जोड़ देने से उसे क्या कोई कनिष्क कहेगा ? (कनिष्क-कनिष्क)
76.सुख क्या हाथ की पहुँच में नहीं होता है,केवल फिसलने वाले सुख का नाम लेकर हम अपने आप को कष्ट पहुंचाते है?(अलग-अलग वैतरणी)
77.हम सभी एक एक नदी की तरह हैं।आगे बढ़ते जाते हैं सभी समुद्र की ओर।आगे बढ़ते हुए पीछे छोड़ते जाते हैं  हमारी सारी अतीत की स्मृतियाँ-खासकर गाँव-देहात,स्नानघाट के पत्थर और सुबह-शाम के अनुभव।फिर भी हम एक दूसरे से कितने दूर, कितने अनजान। हम तो बंधे हुए हैं अपनी-अपनी संकीर्ण परिधि में अपने अपने स्वार्थ के खातिर।(अलग-अलग वैतरणी)
78. धरती की सारी माताएँ मानो ममता की गंगोत्री हो और हरेक संतान एक गंगा।प्रयाग में यमुना से मिलेगी भूलकर ममता की गंगोत्री को। (अलग-अलग वैतरणी)
79. जीवन बहुत छोटा होता है मानो एक एक्सप्रेस जर्नी हो,यहाँ अनेक अनुभवों के स्टेशन पर खड़ा रहना पड़ेगा,मगर कुछ समय के लिए। एक अदृश्य गार्ड उस समय नीली झंडी हिला देगा, तो तुम्हारी ट्रेन व्हिसल बजाते हुए आगे जाने के लिए बाध्य हो जाएगी। केवल कम्पार्टमेंट के फर्श पर बिखरे चने मूँगफली के खोसे की तरह घूमती रहेगी उन अनुभवों कीउड़ने वाली स्मृतियाँ  मन के किसी कोने में।(यह एक विषाद खेल)
80. यंत्रणा की इतनी धूल उड़ती हैं चारों तरफ। फिर भी हम उस धूल के अंदर बैठे रहते हैं प्रेम की बिगुल ध्वनि के लिए ,मलय पवन के लिए। तेज धूप-वर्षा में भी हमारे सपनों में बसंत-एक पूर्ण बसंत। अचानक कितनी बार वह बसंत हमें लांघकर भाग जाता हैं, हमें पता भी नहीं चलता। (यह एक विषाद खेल)
81.तुम्हारे मन में दिगंतरव्यापी वर्षा और  स्मृति के अस्पष्ट पेड़-पौधें। समय स्थिर,संबंध निर्विकार, स्मृति के पन्नों की तरह अलबम जैसे एक थकाऊ आलस्य बारिश से भीगे अनजान दुपहरी में। मन का दरवाजा खोलकर खड़े होने पर आने लगती हैं नदी में बाढ़ ,खेत खलिहान, मछली-मिट्टी पर वर्षा का प्रहार जैसे कोई अपने भीगे हाथ धो देता हैं स्मृति की पीठ पर। (यह एक विषाद खेल)
82.ये सारे दुख हमारे शरीर के अंश हैं,सहजात हैं। सुख का अनुभव भी मनुष्य को कहाँ नसीब? दुख का हर पल अतीत में खोते सुख के पलों की याद होती है। (यह एक विषाद खेल)
83.शायद दुनिया में प्यार नामक कोई चीज नहीं होती हैं। जो भी है, वह है प्रेम के खेल के अंदर छुपा एक निर्लज्ज स्वार्थ।(उदास मनुष्य)
84॰ जिस वस्तु को जीवन को हाथ की पहुँच में पाते है,उसकी तरफ ध्यान न देकर, न मिलने वाली वस्तु के लिए दुख पीड़ा, शोक और आक्षेप झेलकर जीवन बिता देते हैं कवि लोग। (उदास मनुष्य)
85. प्रत्येक स्त्री विवाह के बाद मोनोटोनस, दुखी, अतृप्त और बोरिंग जिंदगी जीती है। प्रेमी या पति का ग्लैमर टूट जाता है सुहागरात में। (उदास मनुष्य)
86. आधुनिक कविता में प्रेम नहीं है। क्योंकि आधुनिक कविता जन्म लेती है अनेक उच्च-पदस्थ ऑफिसरों के शब्द-विलास से,जो दे पाते हैं जीवन में प्रेम की उद्दिष्ट रात के लिए कुछ घंटे मात्र। इसलिए वे प्रेम और सेक्स को मिलाकर भूल कर देते हैं। उनके जीवन में प्रेम नहीं हैं, हैं तो अर्थ ,देह और राजनीति। वे साधारण लोग नहीं हैं। साधारण लोगों के पास प्रेम होता हैं।(उदास मनुष्य)
87. जो चाहते हो वह नहीं मिलता, जो मिलता है वह गलती से मिलता हैं-इस प्रकार की मानसिकता से तुम असुखी नहीं होओगे?(उदास मनुष्य)
88. मनुष्य अनादिकाल से खोजता आ रहा है जीवन का रहस्य , जबकि आज तक वह उससे अपरिचित है। (उदास मनुष्य)
89.उसके मन में आया- शादी न होने से अच्छा था। संजय को पाने के लिए जो संग्राम-वह संग्राम उस पल में था उसके लिए एकमात्र अवलंबन और संजय को  मांग भरते ही लगने लगा कि जीवित रहना ही व्यर्थ या फिर किस तरह वह अपने आपको बचाए, उस समय जबकि जिंदा रहने का कोई मतलब नहीं। (उदास मनुष्य)
90.बहुत दिनों से अकेलेपन से एडजस्ट करने के कारण उसके जीवन यापन की प्रणाली इस तरह हो गई थी कि बाहर एडजस्ट करना उसके लिए असंभव हो गया था। (उदास मनुष्य)
91.जीवन को माया कहने वाले दार्शनिक भी अपनी लालसा और कामनापूर्ति में कितने लीन रहते हैं,उनके डाइनिंग टेबल या बेडरूम के पलंग पर गोपनीय पल बिताते। (उदास मनुष्य)
92.संसार का मतलब कुछ है और कुछ नहीं। संसार को जितना भरना चाहने पर भी कुछ फाँका रह जाता है। (उदास मनुष्य)
93.किसी एक अभाव-बोध को जीवन की एकमात्र आवश्यकता सोच लो, तब देखोगे जिंदा रहने के लिए कष्ट सहने पड़ेंगे। बहुत कुछ न पाना ही तो जीवन है। (उदास मनुष्य)
94.हर बार पहाड़ की तलहटी वाला पत्थर रोकते समय सिसिफ़स को क्या पता नहीं, यही शायद हमारी मुक्ति है। इसी छोटी-सी आशा के बाद शुरू होती है एक झूठी आशा। इस झूठी आशा में है जीवन का उत्स। (उदास मनुष्य)
95.हाथ की पहुँच वाली चीज का महत्त्व अक्सर समझ में नहीं आता। खो जाने के बाद पता चलता है उसका महत्त्व। (उदास मनुष्य)
96.चारदीवारी के भीतर मिलते ही सब खत्म हो जाता है। बर्फ के टुकड़े की तरह उस आकांक्षित प्रेम को पाने के लिए मुट्ठी में भींच लो, पिघल जाएगा। पकड़कर नहीं रख पाओगे। (उदास मनुष्य)
97.भूख में, विप्लव में,क्यूबा में सब जगह कविता है। मगर सबसे ऊपर है प्रेम की कविता।उसे छोड़ बहुत कुछ है, मगर प्रेम के लिए कविता को छोड़ और क्या है? (सहज गणित पाठ)
98. बंद मुंह पड़े रहकर सीने के भीतर अनुभव करो, शब्दों में कीड़े पड गए हैं। पकने लगा है शब्दों का बीज। उन सब बोए हुए बीजों से सपनों के खेत में और फसल नहीं लग पाएगी। (प्रतिद्वंदी)
99. प्रत्येक पति के अंदर एक प्रेमी छुपा बैठा है। हम देख नहीं पाते। प्रत्येक पत्नी के अंदर एक प्रेमिका। हम देख नहीं पाते। चारदीवारी के भीतर होता है एक घर। हम देख नहीं पाते। इसलिए पति खोजता है पत्नी के बाहर एक प्रेमिका।पत्नी खोजती है पति के बाहर एक प्रेमी । और पति-पत्नी खोजते हैं चारदीवारी के बाहर घर। (प्रतिद्वंदी)
100.लड़कियों को कुछ हद तक सबमिसिव होना चाहिए। पुरुष का पौरुष और क्या रहेगा, अगर वह डोमिनेंट नहीं होगा तो? औरतें भी हर समय ऐसे पति को ही चाहती है,जिसे देखकर डर लगता हो ,भक्ति आती हो और जिसके सीने में भय हो, वह निर्भयतापूर्वक दूसरी जगह आश्रय ले पाएँगी।(खुले पिंजरे का पंछी)
उनकी कहानियाँ आप ब्लॉग jagdishmohantystories.blogspot.com तथा गद्य-कोश पर भारतीय भाषा के अनूदित साहित्य में रचनाकार दिनेश कुमार माली पर क्लिक कर देख सकते हैं। ओड़िया साहित्य जगत में वे एक देदीप्यमान नक्षत्र की तरह थे, उनकी आकस्मिक मृत्यु से ओड़िया साहित्य को भारी क्षति पहुंची है। उनके बारे में विस्तृत जानकारी उनके विकिपीडिया (http://en.wikipedia.org/wiki/Jagadish_Mohanty) तथा वेबसाइट (http://sarojinisahoo.com/jagadish_mohanty.htm)  पर प्राप्त कर सकते हैं।
ओड़िया साहित्य में जगदीश चिरकाल अमर रहेंगे। ओड़िया साहित्य’ के अभिनेता-जगदीश कभी नहीं मरते। मैं उनकी दिव्यात्मा की शांति और सद्गति के साथ-साथ उनकी साहित्यिक ऊर्जा के शक्तिपात के आशीर्वाद से युक्त अर्द्धांगिनी सरोजिनी, बेटे अनुभव मोहंती (मिठुन) तथा बेटी संवेदना गौतमी (मयूरी) को उनकी अपूरणीय क्षति को  सहन करने के लिए साहस प्रदान करने हेतु मैं ईश्वर से करबद्ध भावपूर्ण प्रार्थना करता हूँ।

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14.  डॉ॰ प्रभापंत की सृजनधर्मिता कवयित्री परिचय :- डॉ. प्रभा पंत राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी में विगत 19 वर्षों से स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं में अविरल हिंदी विषय के अध्यापन कार्य में रत हैं तथा अपने शोध-निर्देशन में अनेक विद्यार्थियों को पीएच.डी. करवा चुकी हैं। बाल-मनोविज्ञान, बाल-साहित्य एवं नारी-विमर्शपरक शोध-पत्रों के प्रकाशन के साथ-साथ अनेक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में आपके शोध-पत्र, संस्मरण, जीवनी, आलेख, पुस्तक-समीक्षा, कविताएं और कहानियां प्रकाशित होती रहती हैं। इसके अतिरिक्त, अनेकानेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से आपको नवाजा जा चुका है। आकाशवाणी रामपुर तथा अल्मोड़ा से आपकी फिल्म-समीक्षाएं, पत्रोत्तर, वार्ताएं, नाटक, कविता-पाठ व कहानियां प्रसारित होती रही है तथा दूरदर्शन, लखनऊ से प्रौढ़ शिक्षा पर आधारित फिल्म 'सबक' में शिक्षिका के रूप में मुख्य भूमिका भी आपने अदा की है। आपकी प्रकाशित रचनाओं में प्रमुख 'कुमाऊंनी लोक कथाएं', ‘तेरा तुमको अर्पण(कविता-संग्रह), 'फांस'(कहानी संग्रह), 'मैं' (कविता-संग्रह), 'ब...

6॰ कारगिल की घाटी :: विमला भण्डारी

6 ॰ कारगिल की घाटी :: विमला भण्डारी कुछ दिन पूर्व मुझे डॉ॰ विमला भण्डारी के किशोर उपन्यास “ कारगिल की घाटी ” की पांडुलिपि को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इस उपन्यास में उदयपुर के स्कूली बच्चों की टीम का अपने अध्यापकों के साथ कारगिल की घाटी में स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए जाने को सम्पूर्ण यात्रा का अत्यंत ही सुंदर वर्णन है। एक विस्तृत कैनवास वाले इस उपन्यास को लेखिका ने सोलह अध्या यों में समेटा हैं , जिसमें स्कूल के खाली पीरियड में बच्चों की उच्छृंखलता से लेकर उदयपुर से कुछ स्कूलों से चयनित बच्चों की टीम तथा उनका नेतृत्व करने वाले टीम मैनेजर अध्यापकों का उदयपुर से जम्मू तक की रेलयात्रा , फिर बस से सुरंग , कश्मीर , श्रीनगर , जोजिला पाइंट , कारगिल घाटी , बटालिका में स्वतंत्रता दिवस समारोह में उनकी उपस्थिति दर्ज कराने के साथ-साथ द्रास के शहीद स्मारक , सोनमर्ग की रिवर-राफ्टिंग व हाउस-बोट का आनंद , घर वापसी व वार्षिकोत्सव में उन बच्चों द्वारा अपने यात्रा-संस्मरण सुनाने तक एक बहुत बड़े कैनवास पर लेखिका ने अपनी कलमरूपी तूलिका से बच्चों के मन में देश-प्रेम , साहस व सैनिकों की जांबाजी प...