20. मेरी प्रेरणा के स्रोत– डॉ॰ दिनेश्वर प्रसाद
आज जब मैंने वेब-पत्रिका “लेखनी” में
प्रवासी भारतीय प्रख्यात लेखिका,कवियित्री एवं संपादिका इला प्रसाद का
अद्यतन आलेख 'स्मृति-शेष' में अपने दिवंगत पिताजी की मधुर यादों
का संस्मरण पढ़ा तो आंखें भर आई और मेरा मन स्वतः मेरे उस अतीत काल की ओर चला गया, जब
सन 1998 में मेरे पिताजी का स्वर्गवास हुआ और मैंने उस वेदना को शब्दों का रूप
दिया था “न
हन्यते” पुस्तक
के रूप में। वही दर्द, कमी,निसंगता व खालीपन का अहसास मैंने इलाजी
के इस आलेख में पाया। तब मुझे हमेशा ऐसा लगता था, मेरे
पिताजी मरे नहीं हैं, अभी भी जीवित हैं, कभी
भी आकर मुझे मिलेंगे और कहेंगे,
“बेटा, अपनी तबीयत का ध्यान रखना। तुम्हीं हमसे
बहुत दूर हो।”
यह
जानते हुए भी कि यह झूठ और बहुत बड़ा भ्रम है। ठीक उसी प्रकार की संवेदनाओं को
इलाजी ने अपने
बाल्य-जीवन, किशोरावस्था की अन्यतम यादों को जिस सहज, सरल
और प्रभावशाली शैली में उकेरा हैं, उतना ही विदेश की धरती से उनसे दूर होने
के दुख को। बचपन
के मानस-पटल की स्मृतियों को उजागर किया है जैसे उनके पिताजी द्वारा हाथ पकड़कर
लिखवाना तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से सीखने के लिए प्रेरित करना।
पिता और पुत्री का यह
प्यार अपने आप में उल्लेखनीय हैं। यह परिवार भारतीय संस्कृति, साहित्य
तथा परम्पराओं से ओत-प्रोत था, जिसने साहित्य जगत को बहुत कुछ दिया। भारतीय साहित्य को एक
नई ऊंचाई तक पहुंचाने में अकथनीय योगदान ही नहीं दिया, वरन नवोदित लेखकों में साहित्य-प्रतिभा
की ऊर्जा का शक्तिपात कर एक नई पीढ़ी का निर्माण भी किया। पूर्णिमा केडिया, इला
प्रसाद जैसे कई उदाहरण आज विश्व पटल पर छाए हुए हैं। मैं उसे अपना परम सौभाग्य मानता हूँ कि
इलाजी और उनके पिताजी स्वर्गीय दिनेश्वर प्रसाद जी के आशीर्वाद की वजह से ही मैंने
ओड़िया भाषा से हिन्दी में, जो कुछ थोड़ा बहुत अनुवाद का कार्य किया, वह
पाठकों में प्रशंसनीय एवं लोकप्रिय साबित हुआ। पहली बार जब मैंने लेखक दंपति सरोजिनी
साहू और जगदीश मोहंती के माध्यम से मेरा पहला हिन्दी ब्लॉग-“सरोजिनी
साहू की श्रेष्ठ कहानियां” बनाया था, जो आगे चलकर राजपाल पब्लिकेशन्स, नई
दिल्ली से “रेप तथा अन्य कहानियां” नाम
से प्रकाशित हुआ। इस ब्लॉग की प्रथम कहानी “दुख अपरिमित” में इलाजी ने अपनी पहली प्रतिक्रिया
प्रदान की थी,जो मेरी साहित्य साधना की एक चिंगारी थी।
बस,यही
वह प्रतिक्रिया थी जिसने मुझे इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। उस समय सामान्यतया ब्लॉग
जुगनू की तरह होते थे, कुछ समय के लिए कंप्यूटर पटल पर दिखते
थे और फिर गायब हो जाते थे। मगर इस ब्लॉग ने मेरे लिए अलग-अलग
प्रकाशकों, प्रिंट मीडिया के संपादकों तथा अलग-अलग रुचि के पाठकों के हृदय
में पैठ करने का मार्ग प्रशस्त किया। इलाजी ने मेरी कमजोर नब्ज़ पकड़ ली थी। मेरे लेखन-कार्य में
हिन्दी-व्याकरण, शैली, वाक्य-विन्यास तथा संरचना संबधित जो कुछ
त्रुटियां बच जाती थी, उसकी तरफ न केवल मेरा ध्यानाकृष्ट करती
थी, वरन
साहित्यिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण दस्तावेजों के लिंक भी भेजती थी, ताकि
मैं उनका अध्ययन कर साहित्य की बारीकियों को समझूँ और साथ ही साथ, अपनी
भाषा-शैली को परिपक्व, पैनी और प्रभावशाली बना सकूं। उनके इस मार्गदर्शन
की वजह से मैंने उन्हें मन ही मन मेरा पहला साहित्यिक गुरु मान लिया था। किसी भी प्रकार संदेह
का समाधान करने के लिए मैं उन्हें ई-मेल कर देता था, सबसे खुशी की बात थी कि वे मेरा हर
कार्य के लिए अपने व्यस्ततम समय में से कुछ समय निकालकर उचित मार्गदर्शन करती थी। उनके इस वरद्हस्त ने
मेरे भीतर एक अपूर्व साहस और उत्साहवर्धन किया, जिसकी वजह से आज तक मेरा अनुवाद कार्य
का सिलसिला अनवरत जारी हैं। सात समंदर दूर से यह अलौकिक प्रेरणा
मेरे लिए किसी दैनिक उपहार से कम नहीं थी। कहानियों के ब्लॉग के साथ-साथ मैंने
सरोजिनी साहू के प्रसिद्ध उपन्यास “पक्षीवास” के अनुवाद का कार्य भी प्रारम्भ किया, मगर
मुझे अपने आप इतना विश्वास नहीं था कि यह कार्य प्रकाशन-योग्य होगा अथवा साहित्य
की कसौटी पर खरा उतरेगा। मेरी आंखों के सामने अंधेरा नजर आने
लगा-कि चार-पांच महीने के इस अथक प्रयास पर कहीं पानी न फिर जाए। मन में यह भी डर था
कि इतने बड़े उपन्यास को क्यों कोई मेरे खातिर पढ़कर व्याकरण-दोष बताने के साथ-साथ
अपनी निष्पक्ष प्रतिक्रिया देगा। आज की आपाधापी और भागदौड़ की जिंदगी में किसके
पास इतना समय हैं! मन ही मन डरते हुए मैंने इसकी सॉफ्ट कॉपी इलाजी के पास फार्वड
कर दी, इस
अनुरोध के साथ कि आप कम से कम एक बार इसे पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएं। कभी भी मेरे साथ ऐसा
नहीं हुआ कि उन्होंने मेरे ई-मेल का उत्तर नहीं दिया हो, भले ही थोड़ा-बहुत विलंब क्यों न हुआ हो।
एकाध महीने के बाद उनका जवाब आया कि उपन्यास का विषय बहुत ही अच्छा हैं, मगर
उसमें से संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, लिंग-विभेद तथा कुछ अन्य हिन्दी व्याकरण
संबंधित त्रुटियाँ हैं। अगर इन त्रुटियों का सही तरीके से संशोधन कर दिया जाता हैं
तो यह रचना हिन्दी-साहित्य के लिए वरदान साबित होगी। यही नहीं,अपना एक विशिष्ट स्थान भी बनाएगी। परंतु मेरे लिए
व्याकरिणक त्रुटियों का संशोधन बहुत बड़ा पहाड़ था। लगभग हर विज्ञान-आभियांत्रिकी के
विद्यार्थी के लिए यह जटिल समस्या थी। मगर इलाजी के लिए यह कोई समस्या नहीं थी भले
वह भी विज्ञान की छात्रा थी। हिन्दी भाषा और साहित्य पर उनमें इतनी पकड़ कहाँ से आ
गई, यह
मेरे लिए सोचने का विषय था।अनुस्वार, अनुनासिक, चन्द्रबिन्दु, समास आदि की इतनी सूक्ष्म जानकारी मेरी
समझ से परे थी। एक दिन जिज्ञासावश मैंने घूमा फिराकर इस बारे में उनसे पूछा तो
उन्होंने अपने जवाबी ई-मेल में लिखा:-
“मेरे पिताजी रांची विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष
रह चुके हैं। आप
चाहो तो उनसे मिलकर किसी भी समस्या,संदेह का निवारण कर सकते हो। मैं उन्हें आपके बारे
में बता दूंगी। उन्हें राष्ट्रपति के द्वारा राहुल सांस्कृत्यायन पुरस्कार
के अतिरिक्त ढेरों छोटे-बड़े पुरस्कार/सम्मान मिल चुके हैं। फिलहाल काफी उम्र हो
चुकी हैं, मगर
अभी भी प्रतिदिन एक दो घंटा अवश्य पढ़ते हैं। आजकल घुटनों के दर्द, गठिया
(अर्थराइटिस) की बीमारी से पीड़ित हैं। सुनने की शक्ति भी कम हुई है। इसलिए मध्याह्न के
समय फोन बंद करके सो जाते हैं। अच्छा होगा कि अगर आप उनसे या तो सुबह
या फिर शाम के समय फोन पर अपनी समस्या के बारे में बातचीत कर सकते हो। वे अवश्य उनका निवारण
करेंगे।”
इस
ई-मेल के साथ उन्होंने अपने पिताजी का पता,फोन नंबर तथा वहां पहुंचने की विस्तृत
जानकारी दे दी थी। तब तक मैंने अपने मित्रों श्याम सुंदर खंडेलवाल, अशोक
कुमार, विजय
कुमार खरद तथा उदयपुर की प्रख्यात लेखिका विमला भंडारी का मदद से व्याकरण संबंधित
त्रुटियों का संशोधन कर एक नई पांडुलिपि
प्रिंट आऊट करके सर्पिल बाइंडिंग बना ली थी। अब मेरे लिए सवाल यह था कि या तो मैं
स्वयं रांची चला जाऊं या फिर डाक अथवा कूरियर के माध्यम से उनके पास यह पांडुलिपि
भेज दूं। तभी
मुझे पता चला कि हिलटाप कॉलोनी, ब्रजराजनगर में पड़ोस में रहने वाले मेरे
मित्र श्री राजीव चंद्र झा, विद्युत अभियंता रांची के रहने वाले हैं
और अगले हफ्ते किसी घरेलू कम से रांची जाने वाले हैं। मुझे खुशी का ठिकाना न रहा। मैंने उनके घर जाकर
पांडुलिपि पकड़ाते हुए निवेदन किया कि वे मेरा छोटा-सा कम कर दे- यह पांडुलिपि डॉ
दिनेश्वर प्रसाद के घर पर पहुंचा दे। उन्होंने बिना कुछ बोले मेरे यह कार्य स्वीकार
कर लिया। बस
वह दिन आ गया। जब झा साहब मेरी पांडुलिपि लेकर उनके घर पहुंचे। बाहर बरामदे में कुछ
विज्ञजन बैठकर डॉ दिनेश्वर प्रसाद जी की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब झा साहब ने
बात-बात में उत्सुकतावश उन लोगों के आने के उद्देश्य के बारे में पूछा, तो
उन्होंने उत्तर दिया–
“डॉ.दिनेश्वर प्रसाद हिन्दी-साहित्य की शिरोमणि हैं। यहां एक वृहद् स्तर
पर साहित्यिक आयोजन होने जा रहा हैं उस समारोह में उनके अध्यक्ष पद की अनुमति लेने
के लिए हम सभी यहां आए हैं।”
झा
साहब ने अनुभव किया कि वास्तव में डॉ. दिनेश्वर कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं हैं। अवश्य ही, वह
एक बहुत बड़ी हस्ती से मिलने जा रहे हैं। शायद वह वक्त उनके सोने का रहा होगा। घर के भीतर घंटी
बजाकर पूर्वागंतुकों ने पहले से ही उनके
आने का संदेश दे दिया था। कुछ समय उपरांत जब दरवाजा खुला तो धोती
पहने हुए, आंखों
पर चश्मा लगाए, लंबे कद-काठी के वयोवृद्ध, एक सौम्य व्यक्तित्व के धनी ने
मुस्कुराते हुए उन्हें भीतर आने का इशारा किया और अपना-अपना आसन ग्रहण करने के बाद
मृदुल स्वर में कहा,“कहिए, कैसे आना हुआ?”
उन
भद्र लोगों ने अपने आने का उद्देश्य विस्तार पूर्वक बता दिया। फिर कुछ समय तक
इधर-उधर की बातें चली। शायद उस आयोजन की कुछ तकनीकी खामियों तथा अपने-अपने खराब
स्वास्थ्य के चलते उस समारोह में ज्यादा समय देने में अपनी असमर्थता जताते हुए
उन्होंने विनयपूर्वक असहमति प्रकट कर दी। उसके बाद वे लोग चले गए। अकेले पाकर झा साहब
ने अपनी पांडुलिपि उनके सामने प्रस्तुत करते हुए कहा,“सर, मैं ब्रजराजनगर से राजीव चंद्र झा....”|
तभी
उनकी बात काटते हुए वे कहने लगे, “अच्छा, तो आप हैं दिनेश जी, ब्रजराजनगर
से आए हैं। इला
ने फोन पर बताया था। ऐसे तो मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती हैं,फिर भी यह उपन्यास पूरा पढ़ूँगा और अपनी
प्रतिक्रिया व्यक्त करूंगा। मुझे अर्थराइटिस की बीमारी हैं अतः खुद
लिख नहीं पाऊँगा। आप दस-बारह दिन के बाद घर आ जायेगा। मैं डिक्टेट कर दूंगा, और
आप अपने हाथ से लिख देना। छोटी-मोटी अगर कुछ त्रुटि होगी तो मैं
सुधार दूंगा।”
यह
सारा वृतांत झा साहब ने मुझे फोन पर सुनाया। मेरा मन प्रफुल्लित हो गया। मेरी पहली किताब पर
इतने बड़ी हस्ती का अभिमत छपना मेरे लिए किसी गौरव से कम बात नहीं थी।
दस-पंद्रह
दिनों के बाद जब झा साहब उनके घर गए तो उन्होंने उपन्यास का बहुत ही बेहतरीन
समीक्षात्मक अभिमत लिखवाया | अभिमत देने के बाद उन्होंने फ़ोन पर
मुझसे बात की,
“ दिनेश, सचमुच में आप साधुवाद के पात्र हैं।
इतने अच्छे ओड़िया उपन्यास को हिन्दी भाषा में लाने का आपने सार्थक प्रयास किया है| बहुत
ही अच्छा अनुवाद हुआ है। व्याकरण संबन्धित एकाध जगह को छोड़कर कोई गलती नहीं है।
इस प्रयास को जारी रखें।आपके मित्र को डिक्टेट करवाकर मैंने अभिमत लिखवा दिया है, टाइप
करके लाने से मैं उस पर अपने हस्ताक्षर कर दूंगा”।
फिर
उन्होंने ओड़िशा के बारे में इधर-उधर की कुछ बातें की। भुवनेश्वर के उत्कल
विश्वविद्यालय, सम्बलपुर की गंगाधर मेहेर महाविद्यालय और कोरापुट की डी॰ए॰वी
कॉलेज आदि में काम कर रहे अथवा सेवानिवृत्त अपने प्रोफेसर मित्रों के बारे में
जानना चाहा। मुझे उन विद्वान लोगों के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी, मगर
वह दिन मेरे लिए अविस्मरणीय दिन था। कैसे भूल सकता था मैं,
इतने बड़े इंसान से
वार्तालाप करके मन ही मन एक आनंद की अनुभूति जो कर रहा था। उनके आशीर्वाद ने मेरे
भीतर एक अमिट आत्म-विश्वास पैदा किया कि मेरे द्वारा किया गया अनुवाद कार्य किसी
भी मायने में व्यर्थ साबित नहीं हुआ। और मेरे चेहरे पर आत्मसंतुष्टि की झलक स्पष्ट
देखी जा सकती थी। मैं उनका अभिमत पाठकों की जानकारी के लिये नीचे उद्धृत कर रहा
हूँ :-
“पक्षी-वास श्रीमती सरोजिनी साहू का ओड़िया उपन्यास है जिसका
अनुवाद श्री दिनेश कुमार माली ने हिन्दी में किया है। डॉ. सरोजिनी साहू समकालीन
भारतीय लेखन का एक सुपरिचित नाम हैं, किन्तु हिन्दी में इनकी किसी भी रचना का
अनुवाद नहीं हुआ है। श्री माली ने उनके उपन्यास का अनुवाद कर वास्तव में हिन्दी और
ओड़िया के बीच सुदृढ़ रचनात्मक सेतु बनाने का कार्य किया है; क्योंकि
जो भी हिन्दी भाषी इसे पढ़ेंगे, लेखिका के संबंध में उसकी 'धारणा' एक
बड़ी रचनाकार की बनेगी। आज पूरे भारत में ऐसे रचनात्मक क्षेत्र का संधान करने वाले
विभिन्न भाषाओं के लेखक प्रयत्नशील हैं। हिन्दी में भी आज उन उपेक्षित क्षेत्रों
पर कथा-साहित्य की रचना हो रही है, जिनका बोध हिन्दी पाठक संसार को नहीं
था। डॉ. सरोजिनी साहू का पक्षी-वास इस खोज-परम्परा की एक मजबूत कड़ी है। उन्होंने
समाज के निम्नतर स्तर पर जीने वाले उन सतनामियों का चित्रण किया है, जो
ओड़ीशा के कोरापुट से लेकर छत्तीसगढ़ तक
फैले हुए हैं। ये सतनामी इतने विपन्न हैं कि इनकी जीवन कथा जाने बिना उसकी कल्पना
नहीं की जा सकती। सतनामी परम्परा से अपनी मूलजाति रविदास के पेशे से जुड़े हुए हैं
लेकिन गुरु घासीदास के वैष्णव आन्दोलन से जुड़ने के बाद इनका एक आध्यात्मिक पक्ष भी
विकसित हुआ है, किन्तु इनके जीवन का कटु सामाजिक यथार्थ इनको जातिगत पेशे से
मुक्त होने का न तो अवसर देता है और न इनका अध्यात्म इन्हें वृहत्तर समाज में
सम्मान दिला पाता है। इन्हीं अन्तर्द्वन्दों में फँसे एक सतनामी परिवार की कथा
पक्षी-वास है। अन्तरा और सरसी के तीन पुत्र और एक पुत्री हैं। संन्यास सबसे बड़ा
पुत्र है जो क्रिस्टोफर बन जाता है, दूसरा पुत्र डाक्टर बँधुआ मजदूर और
तीसरा पुत्र वकील नक्सली बन जाता है एवं पुत्री परबा वेश्या बन जाती है। जाति के
परम्परागत ढांचे से मुक्ति की कामना इन्हें अलग-अलग दिशाओं में ले जाती है। परन्तु
समस्या के सीधे-सीधे साक्षात्कार और उससे मुक्ति की कामना नकारात्मक दिशा की ओर ले
जाती है। भारत के विभिन्न राज्यों में नक्सलवाद क्यों पनप रहा है, इसका
एक प्रामाणिक दस्तावेज पक्षी-वास है।
पक्षी-वास समाज के जिस यथार्थ पर आधारित
है, उसकी
समस्त असहायता करूणा और विद्रोह का अविस्मरणीय दस्तावेज है। मेरा विश्वास है कि
हिन्दी के पाठक इसके माध्यम से न केवल डॉ. सरोजिनी साहू के महत्वपूर्ण कृतित्व से
परिचित होंगे, बल्कि उड़िया भाषा की बढ़ती हुई ऊँचाई का भी उनको बोध होगा। यदि
यह सब संभव हो सका हो तो इसका सारा श्रेय श्री दिनेश कुमार माली जी को जाता
है।......
-डॉ. दिनेश्वर प्रसाद,
पूर्व प्रोफ़ेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष,
राँची विश्वविद्यालय, राँची-834001”
उस
समय डॉ दिनेश्वर प्रसाद, जिन्हें इलाजी अपने पत्राचार में हमेशा
बाबूजी के नाम से संबोधित करती थी, उम्र तकरीबन अस्सी के आस-पास रही होगी।
उनका वह प्रभावशाली अभिमत पढ़कर हार्दिक इच्छा हुई कि अगर कभी संयोग बना तो मैं
उनसे मिलने अवश्य जाऊंगा। मन में दृढ़ संकल्प था, इसलिए शायद भगवान ने मेरी पुकार सुन ली।
एक-दो महीने के बाद उनका फ़ोन आया, “मैं रांची से दिनेश्वर प्रसाद बोल रहा
हूँ ......”
इधर
फोन के रिसीवर पर उनकी जानी-पहचानी गंभीर आवाज सुनकर मुझे अपने पिता की याद हो आई।
पिताजी का भी ऐसा ही लहजा था। तुरंत ही मैं उन्हें पहचान गया ।
“ हां सर, मैं
दिनेश .....”
“दिनेशजी ..., इला आई है कनाडा से। अगर मिलना चाहो तो
आ जाओ। उसका दस-बारह दिन इंडिया में रहने का प्रोग्राम है।“
“सर, अवश्य, मैं एक हफ्ते के भीतर रांची आने का
प्रोग्राम बनाता हूँ। मुझे उनसे मिलना बहुत जरूरी है।”फोन पर उत्तर देते समय मेरे
चेहरे पर थिरकती मुस्कान को देखकर धर्मपत्नी शीतल से रहा नहीं गया और मुस्कराते
हुए वह पूछने लगी, “क्या बात है? आज बहुत खुश नजर आ रहे हो। किनका फोन था?”
“रांची से प्रोफेसर साहब का फोन था, जिन्होंने ‘पक्षीवास’ उपन्यास की भूमिका लिखी है। कह रहे थे, कनाडा
से उनकी बेटी इलाप्रसाद आई हुई है । मैं सोच रहा हूँ ....”
मेरी
बात को बीच में काटते ही वह तपाक से बोल पड़ी, “हमें उन्हें मिलने जाना चाहिए।रांची में। हैं न ?”
उसकी
आवाज में कोई कटाक्ष नहीं था,बल्कि एक अपरोक्ष सहमति थी ।
“बिलकुल सही, जानती हो न। इतने बड़े विद्वान लोगों से
जब तुम मिलोगी, तब यह बात समझ में आएगी कि क्यों‘विद्वान सर्वत्र पूज्यन्ते’ वाली
उक्ति सही है। यह हमारा सौभाग्य है। यही नहीं, अगर अपने सोनू-मोनू को उनका आशीर्वाद
मिल गया तो वे भी अच्छे संस्कार पाकर आगे जाकर भविष्य में कुछ बड़े इंसान बन सकते
है।”
दार्शनिक
बातों के माध्यम से मैं किसी भी तरह उसका मन जीतना चाहता था। इलाजी ने पहले ही
थोड़ा बहुत अपने परिवार के बारे में मुझे बताया था कि उनकी एक और बहिन हैं, वह
कोल इंडिया लिमिटेड के दिल्ली ऑफिस में कार्मिक विभाग में वरीय प्रबन्धक के रूप
में कार्यरत है और उनका एक भाई भी है जो आस्ट्रेलिया की किसी कंपनी में वैज्ञानिक
है। इस प्रकार माता-पिता रांची में नितांत अकेले रहते हैं। सभी बच्चे “पक्षीवास” के
पक्षियों की तरह इस घोंसले से अपने-अपने धंधों की तलाश में बाहर निकल गए थे।
सुख-दुःख में अवश्य ही दोनों लोग एकाकीपन अनुभव कर रहे होंगे। ये ही सारी बातें
मैं सोच रहा था, तभी धर्मपत्नी ने खुश होते हुए कहा, मानो लाखों की लाटरी खुल गई हो, “चलो, इसी
बहाने हमें रांची घूमने का मौका भी मिल जाएगा। लेकिन मेरी एक शर्त है कि कम से कम
तीन-चार दिन वहाँ रुकेंगे।”
मैंने
उसकी यह शर्त सहर्ष स्वीकार कर ली। तुरंत रांची स्थित सेन्ट्रल माइनिंग प्लानिंग
डिजाइनिंग इंस्टीट्यूट में कार्यरत ब्रजराजनगर (ओडिशा) में मेरे पूर्व प्रभारी रहे
महाप्रबंधक श्री आलोक कुमार धर को फ़ोन पर मेरे इस प्रोग्राम की जानकारी देते हुए
वहाँ के अतिथि-गृह में तीन दिन के लिए एक
कमरा बुक करवा लिया।
निश्चित
दिन जब ब्रजराजनगर से रांची पहुँचे। शायद अक्टूबर या नवंबर का महीना रहा होगा, मगर
बेमौसमी रिमझिम बारिश हो रही थी। हवा में
काफी ठंडक थी। हम सभी ने गरम कपड़े पहन रखे थे। सभी के मन में उनसे मिलने तथा रांची
देखने की उमंग थी। बच्चों में कुछ ज्यादा ही ऊर्जा व जोश था। हटिया रेलवे स्टेशन
उतरकर टैक्सी किराए कर सीधे ही कांके रोड में स्थित सेन्ट्रल माइनिंग प्लानिंग
डिजाइनिंग इंस्टीट्यूट के अतिथि-गृह में
पहुँचकर अपना सामान रखकर लंच करने के बाद बच्चों समेत हम रिक्शे में बैठकर रांची
के उद्धव बाबू लेन उनके निवास स्थान की ओर
रवाना हो गए। शाम का समय था। बरसात पूरी तरह से रूकी नहीं थी। अभी भी आकाश में
कहीं-कहीं दूर-दराज बिजली चमक रही थी। हल्की-हल्की फुहारें गिर रही थी। मौसम काफी
ठंडा हो गया था, ऐसा लग रहा था मानो हिमालय की बर्फीली हवाएँ कहीं दस्तक दे रही
हो। मैंने बच्चों से कहा कि यहाँ से हिमालय काफी नजदीक है। बच्चों ने अपनी कनपटी
पर मफलर बाँध लिए थे। रांची की चौड़ी सड़कों तथा भीड़ भरे रास्तों को पार करके अपर
बाजार की तंग गलियों से होते हुए रिक्शे वाले ने हमें उनके घर के सामने लाकर खड़ा
कर दिया। घर भीड़ वाले इलाके में था। उनका एक मंज़िला छोटा-सा मकान था, लेकिन
वह घर जिस जगह बना हुआ था, वह रांची की हृदयस्थली थी। घर के मुख्य
दरवाजे पर लगी कालबेल के बटन को जैसे ही मैंने बजाया। घर के अंदर से एक आवाज आई, “कौन?”
“ जी, हम ब्रजराजनगर से आए हैं इलाजी को
मिलने।”
और
क्या कहते, संक्षिप्त में मैंने उत्तर दिया। ऐसे मैंने इलाजी को फोन पर
आने की तारीख बता दी थी, मगर समय कैसे बता पाता।
“इला तो अभी घर पर नहीं हैं। बाजार गई हुई है।”
“जी, हमें डॉ॰ दिनेश्वर प्रसाद साहब से मिलना
था।” नरम
रूख से मैंने कहा।
“आइए,आइए,भीतर आइए। अभी वे सो रहे हैं। आप लोग
बैठिए, मैं
उन्हें उठा लेती हूँ...” साड़ी का पल्लू सिर पर डाले एक भद्र
महिला ने आदरपूर्वक हमें भीतर बुलाया। मैंने मन ही मन सोचा, जरूर
इलाजी की माताजी होगी और मेरी बात सही थी। कुछ समय बाद भीतर से पूरी बाजू वाले
स्वेटर पहनकर उस पर शाल ओढ़े सिर पर मंकी केप लगाए एक बुजुर्ग व्यक्ति बैठक कक्ष
में आए। हम सभी लोगों ने उनका चरण-स्पर्श कर अभिवादन किया। उन्होंने सोफ़े पर बैठने
का संकेत किया। मुझे किसी भी प्रकार का असहज नहीं लग रहा था, बल्कि
मुझे इतना आत्मीय लग रहा था मानो मैं अपने
पिताजी की झलक उनमें देख रहा था। वही लंबी कद-काठी, वही दुबला-पतला शरीर, वही
सौम्य भाषा। इतनी समानता! कुछ समय के लिए मैं अपने अतीत में खो गया था। पिताजी अक्सर
कहा करते थे, ‘बच्चों, भाषाओं पर अधिकार प्राप्त करो।चाहे वह
अंग्रेजी हो या फिर हिन्दी। जिनका भाषा पर अधिकार है, दुनिया उनकी मुट्ठी में है। और जिनके
पास वाग्धारा का अभाव है, उन्हें विद्वानों की सभा में सम्मान
नहीं मिलता है। ठीक उसी प्रकार की बात है “ते न शोभन्ते हंसों मध्ये बको यथा।”
“इला ने अब तक आप लोगों का इंतजार किया था। अभी-अभी वह बाजार गई
है। थोड़े समय बाद आ जाएगी।” कहकर उन्होंने हमारे तथा बच्चों के बारे
में पूछना शुरू किया। पूरी तरह से आत्मीय माहौल था। घर के बैठक रूम नीचे दरी बिछी
हुई थी और सामने की दीवार में बनी अलमारी किताबों से ठूंस-ठूंस कर भरी हुई थी।
टेबल पर कुछ कागज बिखरे हुए थे। जैसे ही उपन्यास का जिक्र आया, प्रोफेसर
साहब ने प्रशंसा भरे लहजे में कहा, “बहुत बड़ी रचनाकार है सरोजिनी साहू! ऐसे
रचनाकार को हिन्दी भाषा में लाकर आपने बहुत बड़ा काम किया है। अनुवादक दो भाषाओं
की सरिताओं का सेतुबंध है।”
उसके
बाद उन्होंने हिन्दी भाषा के वर्तमान स्वरूप, उर्दू भाषा का उसमें सम्मिश्रण,फ़िल्मी-हिन्दी, आसपास
की जन जातीय भाषा और बोलियों के अतिरिक्त
लोक साहित्य पर इस विस्तार से चर्चा की। डॉ. दिनेश्वर प्रसाद पटना
विश्वविद्यालय (नवम्बर 1955-जुलाई 1957) एवं रांची विश्वविद्यालय (अगस्त
1957-फरवरी 1993) के पूर्व प्रोफेसर और हिंदी विभागाध्यक्ष तथा मानविकी
संकायाध्यक्ष रह चुके थे। वे हिन्दी में एम. ए (पटना), डी. लिट (रांची) थे। बात-बात में
उन्होंने बताया कि उनका जन्म 04.01.1932 को ग्राम मयादारियापुर, मुंगेर
(बिहार) में हुआ। वे फादर कामिल बुल्के का जिक्र करना नहीं भूले कि किस तरह एक
विदेशी आदमी ने बेल्जियम से भारत आकर इलाहाबाद से सन 1947 में एम. ए॰(हिन्दी) तथा ‘रामकथा:
उत्पत्ति और विकास’ विषय पर गहन शोध कर डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी
की उपाधि प्राप्त की। फिर उन्होंने
साहित्य अकादमी से प्रकाशित अपनी पुस्तक फादर कामिल बुल्के के पहले पृष्ठ
पर अपने हस्ताक्षर कर मुझे देते हुए कहा,
“तुम इसे अवश्य पढ़ना। जिस कुर्सी पर तुम बैठे हो, उसी
कुर्सी पर हमेशा फादर कामिल बुल्के साहब बैठा कराते थे। वे मेरे परम मित्र थे और मैं
उनका वैयाकरण का काम करता था। जब वे बाइबिल का हिन्दी में अनुवाद कर रहे थे और
उन्हें किसी भी प्रकार की व्याकरण संबंधित समस्याएं आती थी तो मैं उनका निराकरण
करता था। कहते है जब कोई संत पुरुष किसी के घर में आते हैं तो एक अद्भुत शांति का
अनुभव होता है और ठीक वैसा ही अनुभव उनके आने पर होता था। सही मायने में वह बहुत
बड़े संत थे। अंग्रेजी-हिंदीकोश और बाइबिल का हिन्दी में अनुवाद कर भारत और
पश्चिमी जगत को भावात्मक बिन्दु पर जोड़ने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।”
ऐसे
संस्मरण सुनाते-सुनाते वे कहीं खो से जाते थे। फिर वर्तमान में लौटकर कहना जारी
रखते थे,
“उन्हें कम सुनाई पड़ता था। कानों में सुनने की मशीन लगा रखी थी।
इस वजह से वे संगीत का आनंद नहीं ले पाते थे। एक बार दिल्ली जाते समय हवाई जहाज
में गिर गए थे, तब से उनके पाँव में एक घाव हो गया था,
जो आगे जाकर उनकी मौत
का कारण बना।भारत सरकार ने उन्हें इलाज के
लिए बाहर भेजना चाहा, मगर उन्होंने स्वीकार नहीं किया।शायद
उन्हें अपनी मौत का पूर्वानुमान हो चुका था। सही अर्थों में,वह
सच्चे भारतीय थे।”
तभी
माताजी ने टेबल पर चाय लाकर रख दी। चाय पीने का संकेत करते हुए डॉ. दिनेश्वर
प्रसाद जी ने कहना जारी रखा। मैं चाय की चुस्की लेते हुए तन्मय भाव से उन्हें सुन
रहा था।
“जब बनारस हिन्दी यूनिवर्सिटी में डॉ॰धीरेन्द्र वर्मा ने उन्हें
तुलसीदास की राम चरित मानस पर डाक्टरेट करने से रोका, यह कहकर कि एक अंग्रेज आदमी तुलसी
साहित्य पर पीएच.डी॰ कर पाएगा? फिर भी उनको परखने के लिए रामचरित मानस
के किसी श्लोक का भावार्थ समझाने के लिए कहा गया, जिस तरीके से सविस्तार पूर्वक उन्होंने
अर्थ समझाया। इतना सटीक और सही अर्थ सुनकर डॉ.धीरेन्द्र वर्मा चकित रह गए और सहर्ष
पीएच.डी॰ करने की अनुमति प्रदान कर दी। तुलसी दास की तुलना वह ईसा मसीह से करते थे
और दोनों को भगवान का प्रिय पुत्र मानते थे।”....
ऐसे
ही बातों का दौर चल रहा था कि छाता लिए हुए इलाजी ने अपने घर में प्रवेश किया।
बाहर अभी बारिश हो रही थी। हम सभी ने उनका अभिवादन करते हुए चरण स्पर्श किया तो वह
सकुचाने लगी। उन्हें देखकर मैं सोचने लगा कि क्या वह वही इलाजी है,जिन्हें
मैं ‘अभिव्यक्ति
और अनुभूति’ वेब-पत्रिका में पढ़ता था। आज भी मुझे उनकी ‘खिड़की’ जैसी
मर्मान्तक कहानी और कई हृदय-स्पर्शी कविताएँ याद है।सांवला रंग, दुबला-पतला
शरीर और मध्यम कद। वही इलाजी है, मेरे ब्लॉग पर जिनकी एक टिप्पणी ने मुझे
आंदोलित किया था। वही इलाजी है, आई॰आई॰टी॰ में जिनके शोधपरक वैज्ञानिक
आलेख आज भी चर्चित है। क्या वही इला नरेन है, जिनके आकाशवाणी रांची से कई प्रोग्राम
प्रकाशित होते थे। बस, मानो मन के भीतर सवालों की झड़ी-सी लग गई
थी। पहली बार देखने से, पता नहीं, मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि वह काफी अंतर्मुखी
और शर्मीली है। वह सीधे रसोई घर में चली गई, हो न हो, वह बाजार से सब्जी खरीद कर लाई हो। अपनी
माँ के साथ मिलकर कुछ बनाने लगी। बैठक-कक्ष में हमारी साहित्यिक चर्चा जोरों पर थी।
गरम-गरम
पकौड़ी अपने हाथ से बनाकर उन्होंने हमारे सामने परोस दिए। विदेश से अभी-अभी इतने
सालों के बाद भारत लौटी है, उन्हें कुछ समय के लिए विश्राम करना
चाहिए था, मगर
भारतीय संस्कृति और परिवेश में पली-बड़ी लड़की इतने बड़े ओहदे पर होने के बाद भी अपनी
माँ के काम में हाथ बंटा रही है। अल्पाहार कर लेने के बाद इलाजी ने हमसे पूछा,
“ आप ओड़िया है?”
“नहीं, मैं राजस्थान से हूँ। जोधपुर से माइनिंग
में आभियांत्रिकी का कोर्स करने के बाद ओड़िशा में नौकरी कर रहा हूँ।”
“मतलब बेसिकली आप मारवाड़ी हैं। फिर ओड़िया
भाषा...?”
“यह प्रयोजनमूलक है। ओड़िशा में रहते-रहते
पंद्रह साल हो गए, अतः यहाँ की कला, संस्कृति
साहित्य से परिचित हूँ।”
मैंने
उनसे अमेरिका के बारे में पूछा। वह थकी हुई लग रही थी। उन्होंने बताया कि कल वह
अपने गुरु स्वामी सत्यानंद जी के दर्शनार्थ मुंगेर जाएगी,
उनसे दीक्षा ले रखी
थी। मैंने इधर-उधर देखा। सोनू-मोनू शायद बोर होने लगे थे। पत्नी भी थकान अनुभव कर
रही थी, वह
अपना इशारा अपनी थैली की तरफ कर रही थी, जिसमें उसने सम्बलपुर के नजदीक रेंगाली
गाँव से पीतल का एक छोटा-सा कलश उन्हें उपहार देने के लिए लाई थी। फिर भी, मैंने
जिज्ञासावश उनसे काफी बातें की। जैसे ही हम उठ खड़े हुए जाने के लिए, वैसे
ही उस कलश को शीतल ने उनके हाथों में पकड़ा दिया।
“अरे, यह क्या? क्या जरूरत थी इसकी?”
“नहीं, यह तो कुछ भी नहीं है। सिर्फ एक
स्मृति-चिह्न है। आपको सात समंदर दूर उत्कल धरा की याद दिलाता रहेगा।” मुस्कराते
हुए शीतल ने कहा।
वास्तव
में उन्हें वह प्रतीक-चिह्न बहुत पसंद आया। बदले में वह सोनू- मोनू को कुछ देना
चाह रही थी।मैंने कहा, “आप चिंता मत कीजिए। आज से यह हमारा घर
है। और कभी, हम तो यहाँ किसी न किसी काम की वजह से आते रहेंगे। आखिर कितना
दूर है रांची, ब्रजराजनगर से! पिताजी की तबीयत का ध्यान रखिएगा।”
यह
कहते हुए मैंने उनसे अनुरोध किया कि हम सभी का एक सामूहिक फोटोग्राफी हो जाएँ। जब
कभी भी उसे देखेंगे तो सारी मधुर स्मृतियाँ ताजी हो जाएगी और जब बच्चे बड़े हो
जाएंगे तब फोटो देखकर वे अपने आपको भाग्यशाली समझेंगे।बात भी सही थी। जैसे ही
इलाजी का आलेख ‘स्मृति-शेष’ में बाबूजी के फोटोग्राफ देखे तो एक ही
क्षण में सारी यादें मानस पटल पर उभरकर सामने आ गई।
बाबूजी
के दिवंगत होने की खबर मुझे फोन पर झा साहब ने रांची में अखबार देखकर सूचित कर
दिया था। उस समय मैं राजस्थान के दौरे पर था। मेरे लिए यह बहुत ही दुखद खबर थी।
मैं आसानी से उस दर्द को अनुभव कर रहा था, जब मैंने अपने पिताजी से आखिर बार
सिरोही (राजस्थान) से ब्रजराजनगर (ओड़िशा) आने के लिए विदा ली थी और जैसे ही वहाँ
पहुंचा ही था कि उनके मरने की खबर भाई ने फोन पर दी थी। मैं असहाय था, पूरी
तरह लाचार था। मैं उनकी अन्त्येष्टि कर्म में शामिल नहीं हो पाऊँगा। मैं इतना भाग्यहीन
था! हवाईजहाज से वहाँ नहीं पहुंचा जा सकता था। अच्छा हो, यह समय यहीं रूक जाएँ। मगर मौत और समय
ने कब किसका इंतजार किया है? आज मैं इलाजी की मनःस्थिति को अपने अंदर
अनुभव कर रहा था। वह भी वही असहायपन अनुभव कर रही होगी, जिसे मैंने चौदह साल पहले अनुभव किया था।
यहाँ तक कि मेरे पिता की मृत्यु के दो दिन बाद चुपके से श्मशान जाकर उनके भस्मीभूत
देह की राख को अपने साथ एक छोटी डिब्बी में लेकर आया था। वह अभी भी मेरे साथ है।
अगर इलाजी कनाडा में नहीं होती तो कम से कम अपने बाबूजी की मृत्यु के समय आखिर बार
उनका चेहरा देख पाती। मगर समय किसका मोहताज है? वह अपने ईमेल में लिखती थी कि मेरा ऐसा
कोई दिन नहीं जाता, जब मैं अपने बाबूजी से बात नहीं कर लेती
हूँ। अब वह किसे फोन करेगी? बाबूजी ही तो थे जो उसे दिल से चाहते थे
और बचपन में कितना प्यार-दुलार किया था उन्होंने! मगर विधि का विधान पर किसका जोर
है? गीता
के श्लोक की यथार्थता पर यकीन होने लगा- “न हन्यते हन्यमाने शरीरे’।
आज महान साहित्यकार डॉ दिनेश्वर प्रसाद(इलाजी के बाबूजी) का
पार्थिव शरीर भले ही इस संसार में विद्यमान नहीं हो, लेकिन उनका ज्ञान हम सभी के भीतर प्रेरणा
स्रोत के रूप में अमर है। भगवान उनकी दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें! मेरी
प्रेरणा के अजस्र स्रोत थे डॉ॰दिनेश्वर प्रसाद। मैं उनकी आत्मा को शत-शत नमन करता
हूँ और इलाजी को भी सादर चरण-स्पर्श कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ कि एक महान
साहित्यकार के घर जन्म लेने के बाद भी अंहकार से कोसों दूर थी वह और उनके माध्यम
से ही मैं अपने गुरु पिता को खोज सका।
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