11. इच्छाधारी लड़की
:: राजेश श्रीवास्तव
यद्यपि डॉ. राजेश श्रीवास्तव से मेरी अनौपचारिक
मुलाक़ात रायपुर की सुविख्यात साहित्यिक संस्था सृजनगाथा द्वारा आयोजित राजनांदगाव, भिलाई, विलासपुर
और रायपुर के रचना-शिविरों, कवि-सम्मेलनों और अन्य साहित्यिक
संगोष्ठियों में हो चुकी थी, मगर आत्मीयता इसी संस्था द्वारा सन 2014
में चीन की राजधानी बीजिंग में आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के सात दिवसीय
प्रवास के दौरान हुई। उस सम्मेलन में न केवल उन्हें सृजनगाथा सम्मान से सम्मानित
किया गया था, वरन उनकी पुस्तक ‘इच्छाधारी लड़की’ का भी विमोचन हुआ। हिन्दी फिल्म नागिन
की तरह ‘इच्छाधारी
लड़की’
कहानी-संग्रह का शीर्षक अपने आप में अजूबा था मेरे लिए। उनसे इस बारे में बातचीत
के दौरान यह पता चला कि वह हमारे समाज में व्याप्त अंध-विश्वास और धर्मभीरुता को
समाप्त करना चाहते हैं। अपनी अभिरुचियों के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि
उनकी विशेष दिलचस्पी भारतीय धर्मग्रन्थों, अध्यात्म और पौराणिक शास्त्रों में है,
यही कारण है कि उन्होंने डाक्टरेट की उपाधि भी इसी विषय में प्राप्त की। यद्यपि
डॉ॰ राजेश श्रीवास्तव का नाम हिन्दी साहित्य जगत में सुपरिचित है, फिर
भी नए पाठकों के लिए इस किताब के बारे में कुछ लिखने से पूर्व उनके बारे में
संक्षिप्त जानकारी देना मैं अपना मौलिक दायित्त्व और कर्तव्य समझता हूँ। सन 1965
में भोपाल में जन्मे डॉ॰ राजेश श्रीवास्तव ने हिन्दी, अंग्रेजी और दर्शनशास्त्र में एम॰ए की
डिग्री प्राप्त की है। उन्हें डी॰ लिट. व पी॰एच॰डी की उपाधियाँ भी प्राप्त है।
इस कहानी के पूर्व में उनका एक और कहानी-संग्रह ‘अहं ब्रह्मास्मि’
प्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त, उनकी भाषा विज्ञान, लोक-साहित्य, दृश्य-श्रव्य
माध्यम लेखन, हिन्दी साहित्य का अर्वाचीन व प्राचीन इतिहास, उर्वशी
और पुरुरवा की प्रेमाख्यान परंपरा और दिनकर की उर्वशी जैसे कई पुस्तकें प्रकाशित
हो चुकी है। उर्वशी जैसी वेब पत्रिका का कई सालों से वह सम्पादन भी कर रहे है।
मेरा यह मानना है की किसी भी रचनाकार को व्यक्तिगत संपर्क स्थापित करने के साथ
उसकी कृतियों को पढ़कर उसे ज्यादा समझा जा सकता है। उस रचनाकार के आंतरिक व बाहरी
व्यक्तित्व को जानने के साथ-साथ उसके मनोभाव, मानसिक-सरंचना और विचार-शक्ति का उसकी
सृजनशीलता और रचना-प्रक्रिया पर होने वाले प्रभाव पर भी अधिकाधिक ध्यान आकृष्ट
किया जा सकता है। लेखक डॉ॰ राजेश श्रीवास्तव को, जिसे मैंने वेब-पत्रिकाओं, ब्लॉग, गद्यकोश
और कविता-कोश आदि पर पहले से ही पढ़ा था, बीजिंग में प्राप्त उनकी पुस्तक ‘इच्छाधारी
लड़की’
पढ़ना मेरे लिए अत्यंत ही सौभाग्य का विषय था।
‘इच्छाधारी लड़की’ कहानी-संग्रह में लेखक ने बारह
कहानियों की रचना की है। सभी कहानियों के कथानकों की विविधता,
रचनाकार के विस्तृत अनुभव, प्रकांड ज्ञान व अत्यंत सूक्ष्म
निरीक्षण शक्ति का परिचय देती है। वह अपने खुले नयन, संवेदनशील हृदय और सक्रिय कलम से अपनी
रचनाओं में स्मरणीयता के साथ-साथ पठनीयता जैसे गुणों को जन्म देकर हिंदी-जगत के
सुधी पाठकवृंद को बरबस अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे है।
सन 2009 में समावर्तन पत्रिका में प्रकाशित
इस कहानी-संग्रह की शीर्षक-कहानी ‘इच्छाधारी लड़की’ हमारे समाज में व्याप्त अंधविश्वासों
पर अपने निजी-स्वार्थों के खातिर खबर बनाकर प्रकाशित और प्रसारित करने वाले मीडिया
वर्ग पर एक करारा प्रहार है। उदाहरण के तौर पर गणेशजी के दूध पीने और हनुमानजी के
रोने जैसी कलयुगी मीडिया खबरों की तरह लेखक ने अपनी कहानी में बिलोई जैसे छोटे
गाँव मे किसी इच्छाधारी लड़की अर्थात अपनी इच्छा अनुसार रूप बदलने की अफवाह को अपना
कथानक बनाया है, जिसकी पुष्टि करने के लिए आधुनिक न्यूज चैनल के मालिक अपनी
मीडिया टीम को इस अफवाह को खबर का रूप देने के लिए वहाँ भेजता है। संवाददाता
चक्रेश के साथ मिलकर कैमरामेन राधा इस बारे में गाँव वालों का साक्षात्कार करते
हैं। मगर अफवाह होने की पुष्टि होने तथा संवाददाता द्वारा वास्तविक स्थिति बताने
के बावजूद भी न्यूज चैनल अपनी टीआरपी (लोकप्रियता सूचकांक) में वृद्धि करने के लिए
बिलोई गाँव के किसी खपरीले घर की कच्ची दीवार के अंदर से चमकती हुई दो आंखें,
सहमे हुए कुछ वहमी आदमियों के इंटरव्यू पर आधारित स्टोरी बनाकर उसे प्रसारित कर
देता हैं। इस पर जब संवाददाता चक्रेश अपना प्रतिरोध जताता है तो उसका अधिकारी उसे
प्रमोशन देने का लालच दिखाता है। लेखक ने इस कहानी में यह बात रखने की भी चेष्टा
की है,
किस तरह व्यवसायिक घराने अफवाहों तक को किसी बाजारू उत्पाद का रूप देकर समाज के
सामने परोस रहे हैं। उन्हें ऐसी खबरों से समाज पर पड़ने वाले अच्छे-बुरे प्रभाव की
कोई चिंता नहीं है, सिवाय अपने निजी-स्वार्थों की पूर्ति
के। इच्छाधारी नागिन की कथाओं को पढ़कर अथवा नागिन जैसे फिल्मों को देखकर जिस तरह
साधारण मनुष्य आसानी से नागिन द्वारा अपनी इच्छा के अनुरूप स्त्री, पुरुष
या किसी का रूप धारण कर अपना प्रतिशोध लेने जैसे अंधविश्वासों पर विश्वास कर सकता
है,
वैसे ही इच्छाधारी लड़की जैसी अनेक अफवाहें समाज के सभी वर्गों को प्रभावित कर सकती
है। इस मनोविज्ञान का सजीव वर्णन कहानीकार ने किया है। इस कहानी की अगर तुलना
ओडिया कहानीकार जगदीश मोहंती की कहानी ‘कालाहांडी और बांझ समय’
से की जाए तो दोनों कहानियां में एक विशेष साम्य सामने आएगा। अस्सी के दशक में जिस
तरह जगदीश मोहंती अपनी कहानी ‘कालाहांडी और बांझ समय’
में पत्रकारिता के माध्यम से अपनी आजीविका अर्जन करने वाले पत्रकार कालाहांडी के
अकाल में बच्चे बेचने, अनाहार-मृत्यु तथा लड़कियों की तस्करी
जैसे झूठी खबरों को माध्यम से नेताओं द्वारा राजनीतिक लाभ उठाने के साथ-साथ
संपादकों की उनके साथ साँठ-गांठ को जनता के सामने परोसे जाने का वर्णन किया है,
ठीक वैसा ही डॉ॰ राजेश श्रीवास्तव ने अपनी कहानी में एक अफवाह को टिवस्ट कर एक
एक्सक्लूसिव स्टोरी के रूप में प्रस्तुत किया है।
सन 2013 में नेशनल दुनिया में प्रकाशित इस
कहानी संग्रह की दूसरी कहानी ‘आईना’ समझदार लोगों के बीच वैचारिक मतभेद के
कारण पैदा हो रहे झगड़ों की दास्तान है। झगड़ा शुरू होता है, किसी प्रदर्शनी में लगाई हुई किसी
आधुनिक चोर की तस्वीर को लेकर। चोर के हुलिये को लेकर दर्शकों में हो रही पहले
कानाफूसी, फिर
बहस हिंदू-मुस्लिम झगड़े का कारण बन जाती
है और उस शहर में अघोषित कर्फ़्यू लगा दिया जाता है। देखते-देखते चारों तरफ तनाव ही
तनाव दिखाई देने लगता है। शांति की स्थिति आने पर फिर जब प्रदर्शनी चालू होती है
तो तस्वीर की जगह एक आईना रख दिया जाता है, उसमें जो कोई दिखता है, उसे
अपनी तस्वीर नजर आती है। इस प्रकार यह अत्यंत ही शिक्षाप्रद कहानी पाठकों में जाति, धर्म, प्रांत, नस्ल
और रंगभेद से ऊपर उठकर निष्पक्ष रूप से सोचने के लिए प्रेरित करती है।
लेखक ने ‘पलाश के फूल’ कहानी में किसी दूर-दराज गाँव के स्कूल
की खस्ता-हालत, वहाँ पढ़ने वाले बच्चों की अनुपस्थिति, सरपंच द्वारा स्कूल के कच्चे कमरों का
दुरुपयोग के बावजूद एक ईमानदारी, आदर्शवादी और कर्तव्यनिष्ठ संविदा शिक्षक
नीरज द्वारा उस स्कूल को नियमित रूप से चालू करने के लिए उठाई जाने वाली
परेशानियों का एकदम यथार्थ चित्रण किया है। आज भी हमारा देश गाँव में बसता है,
मगर वहाँ की शिक्षा-असुविधा से कोई भी नागरिक अछूता नहीं है। इस अवस्था में क्या
भारत की शिक्षा-प्रणाली वैश्विक स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा सकती है,
जबकि गाँव के प्राथमिक विद्यालयों की हालत इस कहानी के अनुरूप होगी?
कभी नहीं। न केवल विद्यार्थियों, शिक्षकों वरन लोक-तंत्र की जड़ पंचायती
राज से लेकर संसद के गलियारों को प्रतिध्वनित करती है यह कहानी।
‘ईहामृग’ एक पौराणिक कहानी है,
कि किस तरह मनु की कन्या इला की बुध देव से शादी होने पर त्रिवेणी के निकट कुछ समय
रहने के कारण उस स्थान को इलावास कहा गया, जो कालांतर में इलाहाबाद बन गया। इस कहानी में इला के पुत्र
पुरुरवा और स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी की प्रेमाख्यान का वर्णन है। इस कहानी में वीर
और शृंगार रसों के वर्णन में तो जैसे लेखक की कलम को ही पंख लग गए है। उर्वशी और
पुरुरवा के प्रेमालाप का सजीव वर्णन, घटनाक्रम की तीव्रता और सौन्दर्य का
मनोहारी चित्रण करने में डॉ॰ श्रीवास्तव का जवाब नहीं है।
जहां ‘काली घटा’ मुस्लिम परिवार में लड़की के मंगेतर की
मौत पर देवर के साथ दादागिरी से निकाह करने की रिवाज के खिलाफ विरोध है,
वहीं ‘ठहरा
हुआ समय’
कहानी में एक विधवा द्वारा पुनर्विवाह करने के लिए अपने आप को तैयार करने का एक
मधुर स्वप्न है। जीवन की कठोर वास्तविकता के साथ-साथ भावानुभूति की स्वाभाविकता भी
देखते बनती है।
‘खिड़की के बाहर बादल’
कहानी उस कॉलेज की कहानी है, जहां सीनियर कक्षाओं के छात्रों द्वारा
जूनियर कक्षाओं से प्रवेश लेने वालों
छात्रों की रैगिंग ली जाने की प्रथा है। कहानी की नायिका नीलम द्वारा रैगिंग करने
वाले लड़कों को मुहतोड़ जबाब देकर उन्हें वहाँ से भागने पर मजबूर करने वाली एक
साहसिक घटना को दर्शाती यह कहानी अपने आप में अद्वितीय है। चूंकि लेखक का संबंध
शिक्षा-क्षेत्र से है, अतः उनकी कहानियों के अधिकांश कथानक इस
क्षेत्र से जन्म लेते हैं, जिसमें वे अपने यथार्थ अनुभव व
संवेदनाओं को पिरोकर सहज भाव से अभिव्यक्त करते हुए उसे एक अच्छी कहानी का स्वरूप
दे सकें।
‘छोटा पंडित’ उनकी एक आध्यात्मिक कहानी है,
जिसमें प्रगाढ़ आस्था और श्रद्धा के कारण एक निरा मूर्ख इंसान भी गुरु का स्नेह और
आशीर्वाद पाकर भगवद कृपा से आध्यात्मिक स्तर पर किसी ऊंचे पद को पा सकता है। ऐसे
कई उदाहरण हमारे समाज में आसानी से देखने को मिल जाते हैं,
जैसे कालीदास,
विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस आदि महान पुरुषों ने गुरु-कृपा से अपने जीवन
सफल बनाएँ। लेखक की इस कहानी में स्वामी चतुर्भुजदास के आश्रम में कौए की पाल पर
बाल्टी से पानी सींचने वाला श्रीधर निस्वार्थ भाव से गुरु की सेवा करने के कारण
उनका प्रिय बन जाता है, धीरे-धीरे मंगलवार और शनिवार को वह अपने
भिक्षुक गुरु के स्थान पर अपने कंधे पर झोली टांग कर हाथ में पूजन-पात्र लिए नगर
की गलियों में भिक्षा-दान लेने के लिए निकलने लगता है।यह ही नहीं,
कीर्तन व प्रवचनों में भाग लेते समय धीरे-धीरे वह भाव-विभोर होने लगता है, तो
यह देखकर स्वामीजी उसका नाम रख देते हैं “छोटा पंडित। एक दिन स्वामीजी मंदिर का
सारा कारोबार उसके भरोसे छोडकर उज्जयिनी दर्शन के लिए चले जाते हैं और वहीं समाधि
लेते हैं। समाधि लेते समय उनके मुख से अंतिम-शब्द निकलते हैं, ‘छोटा
पंडित’।
श्रीधर की आस्था, विश्वास, समर्पण और हृदय की सरलता से उसे छोटे
पंडित में बदल देती है। अध्यात्मवाद की ओर कहानीकार का रुझान ज्यादा होने के कारण
उनका मन सात्विक गुणों वाले कथानकों की ओर स्वतः खींचा जाता है।
‘चूड़ी वाली’एक गरीब विधवा स्त्री की मार्मिक कहानी
है,जो
चूड़ियाँ बेचकर अपना जीवन यापन करती है। अभावग्रस्त जिंदगी जीने के बावजूद दूसरों
के प्रति उसका मन अत्यंत ही सुकोमल व संवेदनशील है। चूड़ी खरीदने के लिए जिद्द कर
रही छः वर्षीय छोटी बच्ची को उसकी माँ द्वारा लताड़ने पर बिना पैसा लिए चूड़ियाँ
देना चाहती है। वह सोचती है कि चूड़ी पाकर बच्ची कितना खुश होगी,
मगर उसकी खुशी के बारे में किसका ध्यान जाता है? चूड़ी बेचने का धंधा छोडकर बर्तन माँजने
का काम किसी घर में शुरू करती है, तो उस घर के मालिक मेहरा साहब उस जवान
विधवा के साथ बलात्कार कर लेता है। वह आत्महत्या करना चाहती है,
मगर बच्चों को कौन देखेगा, सोचकर वह रुक जाती है। एक बार मोहल्ले
का दादा रघु उसके घर में अकेलेपन का फायदा उठाते हुए घुस जाता है। एक पड़ोसन की
सहायता लेकर जैसे-तैसे अपने आप को बचा लेती है। बच्चों को लेकर उसकी आँखों में फिर
भी सुहाने सपने है। सारे सपने तो तब टूट जाते हैं, जब कोई उसकी सूखी झोपड़ी में आग लगा
देता है। आग लगी झोपड़ी में कूद कर अपनी टोकरी और बच्ची को बचा लाती है,मगर
उसका जीवन अधजले बांस और बल्लियों की राख़ में अपना भविष्य तलाशते हुए फिर से अपनी
बेटी को कमर में लिए चूड़ी बेचने निकल पड़ती है। अत्यंत ही मार्मिक कहानी है एक
विधवा की। कहते है,जिस पर दुखों की गाज गिरती है, तो
गिरती ही चली जाती है, वे फिर कभी ऊपर नहीं उठ पाते। एक विधवा
स्त्री को अपने जीवन में कितने खतरों से खेलकर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए
संघर्ष करना पड़ता है, उन यथार्थ संवेदनाओं को जीवित करने
वाली कहानी ‘चूड़ीवाली’ पाठकों के हृदय में विवश स्त्रियों के
प्रति मानवीय-प्रेम की किरण अवश्य जगाएगी।
‘प्रारब्ध’ कहानी गीता के दर्शन को उजागर करती है,
जिसके अनुसार मनुष्य को अपने अर्जित कर्मों के साथ-साथ प्रारब्ध का भी फल भुगतना
पड़ता है। गीता के कर्म-सिद्धांत हमें सुख-दुख, हानि-लाभ, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में रहते
हुए स्थितप्रज्ञ होने का संदेश देता हैं। इस कहानी में प्रकाश सेवानिवृत्त बाबू
है। उसका परिवार ही उसकी खुशियाँ है। अपनी पत्नी, दो बच्चे, माँ-पिता को पालने का सारा दायित्व उसके
कंधे पर है। उसकी इच्छा है कि बड़ा बेटा रूपेश
नौकरी करें और छोटा बेटा इंजीनियर बन जाए। मगर प्रारब्ध को कुछ और मंजूर होता है।
रूपेश छोटी-मोटी नौकरी करना नहीं चाहता है। वह कलेक्टर-ऑफिस के सामने भ्रष्टाचार
के खिलाफ जुलूस निकालता है और युवा नेता बनने का प्रयास करता है। उसके दादाजी उसे
समझाते है कि वह कलेक्टर से समझौता कर अपनी नौकरी की बात करें। मगर उसे अपने
उसूलों से समझौता करना अपनी खुद्दारी के खिलाफ लगता है। अपने पिताजी का देहांत के
बाद सारे परिवार का बोझ उसके कंधे पर आ
जाता है। तब उसे संकल्प और निश्चय जैसे शब्द निरर्थक लगने लगते है। वह समझ जाता है कि आदमी के हाथ में
कुछ नहीं है। वह केवल और केवल परिस्थिति का गुलाम है। शायद यह परिस्थितियाँ ही
प्रारब्ध का दूसरा नाम होती है। न केवल बेरोजगार युवकों वरन साधारण आदमी के मन को शांति
प्रदान करने वाली कहानी ‘प्रारब्ध’ अपने आप में गीता के श्लोक ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन’ का समर्थन करती है।
‘सलोनी’ कहानी में भाषा, कल्प
और शैली का एक अभिनव प्रयोग है। कहानी-संरचना का प्रारूप बनाते-बनाते अपने मन की
बात को प्रश्नोत्तरी में रखकर कहानी के धारा-प्रवाह तोड़े बिना आगे बढ़ाए जाने का उत्कृष्ट उदाहरण है। जहां बस में बैठकर
कहानी का नायक अपनी छोटी बच्ची सलोनी के लिए पलकें झपकाने वाली गुड़िया का उपहार लेकर उसकी दिनचर्या
की स्मृतियों को ताजा करने लगता हैं,वहीं बस में उसके पास की सीट पर बैठी
महिला की सलोनी जैसी दिखने वाली छोटी बच्ची का नाम भी संयोगवश सलोनी होता है।यह
कहानी का क्लाइमैक्स है।
‘पसंद’ एक सस्पेंस कहानी है जिसमें रमेश
शॉपिंग मॉल में राधिका को साड़ियाँ खरीदते देखकर उसका पीछा करता है। जिस-जिस दुकान
में वह जाती है, वह उसका अनुकरण करता है। जिस-जिस साड़ी को वह देखती है,उस-उस
साड़ी को वह अलग रखवा देती है। दुकानदार इन दोनों के बीच में संबंध नहीं समझ पाता
है। रहस्य तो तब उजागर होता है, जब राधिका उसे अपने लिए साड़ी खरीदने के
लिए कहती है तो रमेश उसकी पसंद वाली साड़ियाँ खरीदकर देते हुए कहता है कि हम दोनों
की पसंद कितनी मिलती-जुलती है। कपड़ा समेटेने वाली लड़की को आश्चर्य तो तब समाप्त
होता है, जब
रमेश कहता है कि राधिका उसकी पत्नी है। रहस्यमयी तरीके से पुरुष-स्त्री के
संबन्धों पर अनजाने लोगों के दृष्टिकोण को सामने रखती कहानी ‘पसंद’
मनोवैज्ञानिक धरातल पर बुनी हुई एक श्रेष्ठ कहानी है। डॉ॰ राजेश श्रीवास्तव के इस
कहानी संग्रह की बारह कहानियां पढ़ने के बाद मैं कुछ उनके बारे में कहने की स्थिति
में पाता हूँ।
एक- पौराणिक, आध्यात्म, धर्मशास्त्र और दर्शन में उनकी विशेष
अभिरुचि है। ‘ईहामृग’, ‘छोटा पंडित’ और ‘प्रारब्ध’ कहानियां के कथानक उपरोक्त किसी न किसी
विषय पर आधारित है।
दूसरा– स्त्रियों के प्रति शोषण उन्हें
उद्धेलित व विचलित करता है। ‘काली घटा’, ‘ठहरा हुआ समय’,
और ‘चूड़ीवाली’
उसके उदाहरण है।
तीसरा– सामाजिक-अंधविश्वासों, धार्मिक
वैचारिक मतभेद से उपजे धार्मिक उन्माद उन्हें दुखी करते हैं। ‘इच्छाधारी
लड़की’
व ‘आईना’
कहानी इस बात की पुष्टि करती है।
चौथा– प्राथमिक शिक्षा के उत्थान तथा
व्यावसायिक विद्यालयों में होने वाली रैगिंग के खिलाफ आवाज उठाने की सलाह देते
हैं। ‘पलाश
के फूल’
और ‘खिड़की
के बाहर बादल’ कहानी इसके उदाहरण है।
पांचवा– पारिवारिक संबन्धों में उष्णता
हेतु उपहार आदि देने के समर्थन में हैं। उदाहरण– कहानी ‘सलोनी’ और ‘पसंद’ है।
आशा करता हूँ हिंदी जगत में प्राथमिक
शिक्षा के उत्थान, स्त्रियों के शोषण, अधिकार की लड़ाई,
असमानता,
सामाजिक अंधविश्वासों, असामाजिकता के विरोध में विद्रोह के
स्वर मुखरित करने वाला यह कहानी संग्रह पाठकों द्वारा पसंद किया जाएगा।
(पुस्तक:-
इच्छाधारी लड़की/लेखक:- डॉ॰ राजेश श्रीवास्तव/प्रकाशक:- शब्द प्रकाशन, अलीगढ़/मूल्य
:- 100 रु/संस्करण
:- 2014)
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