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5. आगे खुलता रास्ता :: नन्द भारद्वाज

5.  आगे खुलता रास्ता :: नन्द भारद्वाज


नन्द भारद्वाज राजस्थानी और हिंदी भाषा के  बहुचर्चित कवि, कथाकार, समीक्षक और संस्कृति कर्मी के रूप में एक जाना पहचाना नाम है।पत्रकारिता, दूरदर्शन और आकाशवाणी में सम्पादन,लेखन,कार्यक्रम-निर्माण और प्रशासन के क्षेत्र में सैंतीस वर्षों के सक्रिय कार्य-अनुभव ने आपकी संवेदनशीलता को वह पैनी धार प्रदान की है, जो आधुनिक सामाजिक व्यवस्था की मूल्य-हीनता पर सीधा कुठाराघात करती है तथा जीवन के अनेक झंझावातों को अपनी जिजीविषा के बल पर जूझने के लिए एक नए मार्ग का प्रतिपादन करती है, इस दर्शन की स्पष्ट झलक आपके साहित्य-सृजन में मिलती है।

       आपने राजस्थान की जीवन-शैली, देश-काल एवं परिस्थितियों को आत्मसात कर अपनी जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए वहाँ की सामुदायिक-विचारधारा और मानवीय-संवेदनाओं से ओत-प्रोत अपने अनुभव का एक नया संसार "साम्है खुलतौ मारग" राजस्थानी भाषा में उपन्यास के माध्यम से रचा। यह उपन्यास सन 2003 में मारवाड़ी सम्मेलन, मुंबई द्वारा घनश्याम दास सरार्फ सर्वोत्तम साहित्य पुरस्कार तथा 2004 में केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा  पुरस्कृत हुआ।  इसी कृति को हिंदी पाठकों के सम्मुख पहुंचाने के लिए आपने स्वयं इसका अनुवाद और पुनः सृजन "आगे खुलता रास्ता" (आईएसबीएन 978-81-89228-64-4) के रूप में किया। जिसका प्रकाशन "रचना प्रकाशन" जयपुर ने सन 2009  में प्रकाशित किया। हार्ड कवर, सुन्दर छपाई, और वाजिब दाम (200 रुपये) के लिए प्रकाशक भी बधाई के पात्र हैं। इस उपन्यास का युवा रचनाकार अतुल कनक द्वारा अँग्रेजी में भी अनुवाद हो चुका है।
       लेखक ने अपने अनुभव विवेक से यह सिद्ध किया है कि जीवन में कुछ भी पूर्व निर्धारित या प्रारब्ध-वश घटित नहीं होता। जो कुछ होता है उसका निश्चित कार्यकरण संबन्ध दृश्य में मौजूद होता है। अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्ष करने वाले हर व्यक्ति को एक बेहतर मानव जीवन के लिए अपना रास्ता स्वयं खोजना या बनाना पड़ता है, जो भोगा हुआ दारुण यथार्थ भी होता है और अनुभूत किया हुआ दारुण यथार्थ के प्रति करुणा का भाव भी अर्थात लेखक उपन्यास में कहानी गढ़ता नहीं है प्रत्युत सामाजिक संकल्पनाओं में व्याप्त एक विराट कथा से गुजरता हुआ दिखाई पड़ता है वह भी पूरी तटस्थता के साथ। किन्तु विवेक की थाती और सहृदयता की समूची धारा इस पथ पर लेखक के पूर्ण पाथेय के रूप में साथ-साथ चलती है।
       राजस्थान की ग्राम्य-पृष्ठभूमि से जुड़े होने के कारण उपन्यास के पात्रों का जीवंत चित्रण आँखों के सामने इस तरह  गुजरता हुआ नजर आता है मानो पाठक स्वयं रामबाबू, उनकी धर्म पत्नी गीता, बेटियाँ सत्तो (सरस्वती), दुर्गा तथा बेटा वीरू को साक्षी-भाव से देखते हुए इस परिवार के उतार-चढ़ाव तथा जिन्दगी के थपेड़ों  को बड़े ही नजदीक से अनुभव करता है। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है राजस्थान के विभिन्न अंचल जैसे जोधपुर, पचपदरा, कवास, बाड़मेर, पीलीबंगा इत्यादि जगहों पर खोजने लगता है कि किस-किस जगह पर रह कर उस परिवार ने संघर्ष किया होगा। इसके अतिरिक्त, सत्यवती और दुर्गा की जीवनगाथा मानो आसपास के लोगों के साथ गुजरने वाली एक यथार्थ कहानी प्रतीत हो रही हो। निश्चित तौर पर राजस्थानी पाठकों को मूल उपन्यास राजस्थानी में और ज्यादा  प्रभावित  करता होगा।
       यह उपन्यास परत दर परत जिस तरह जिन्दगी के विभिन्न पहलुओं को आगे नए रास्ते में  जिस प्रभावशाली ढंग से दिखाता जाता है,  मानो सिनेमा घर में बैठे दर्शक की आँखों के आगे कोई सामाजिक चलचित्र गुजर रहा हो और पात्रों के सुख-दुख की स्वानुभूति करता हुआ दयार्द्र होता जा रहा हो।  यह उपन्यास सामाजिक जीवन के सत्य की पड़ताल ही नहीं करता, अपितु उन सत्यों की विद्रूपताओं के शमन के प्रति भी अपरोक्ष रूप से समुत्सुक दिखाई पड़ता है। इसलिए गहरे और गहरे उतरता विद्रूपताओं के मूल तक पहुँचने की कोशिश भी करता है ।
       जहाँ सत्तो (सत्यवती) बचपन से अपने घर की परिस्थितयों को भांपते हुए माँ का मौन रहकर अपने पिता की अवहेलना को स्वीकार करना और साथ ही साथ पिता से उसे उचित प्यार न मिलने पर भी अपने प्रतिभाशाली व्यक्तित्व और  पढ़ाई में तेज होने की वजह से वह अपने पाँवों पर खड़ा होकर अपने जीवन का रास्ता तत्कालीन सामाजिक संकीर्णता को दर-किनार करते हुए स्वयं प्रेम-विवाह करके तय करती है। यही नहीं, अपनी बहन दुर्गा के लिए भी अपने पैरों पर खड़ा होने का एक प्रेरक आदर्श बन जाती है। शादी के बाद भी उसे घर में यथोचित आदर न मिलने पर भी अपने माता-पिता के प्रति कोई शिकवा-शिकायत का भाव मन में नहीं रखती है। इतना ही नहीं, जुझारू प्रवृति की होने के कारण शिक्षिका बन कर शिक्षक-संघ के नेतृत्व की कमान संभाल लेती है और संघ के सोये हुए संघर्षशील नेताओं में एक नई जान फूक देती है।
       केंद्रीय  साहित्य अकादमी से पुरस्कृत  इस राजस्थानी उपन्यास पर वास्तव में अगर  फिल्मांकन  होता तो  समाज में एक आम-आदमी के जिन्दगी की समस्याओं और उसके परिवार की गुंफित भावनाओं को समझने के साथ-साथ सत्यवती जैसी सहनशील लड़की को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढकर अपने जीवन का रास्ता खुद तय करना अपने आप में एक अनुकरणीय उदाहरण होता। इस उपन्यास में मेरे लिए सबसे बड़ी सम्मोहित करने वाली बात यह थी कि इसके  पृष्ठभूमि में जिप्सम खदान के परिवेश का जितना यथार्थ चित्रण हुआ है जिस परिवेश को हरपल मैं यहाँ कोयले की खानों में पाता हूँ। आफिसरों में व्याप्त  भ्रष्टाचार को लेकर ईमानदार कर्मचारियों को किस तरह जगह-जगह पर स्थानान्तरित होकर भटकना पड़ता है और असंख्य मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, एकदम सटीक प्रतीत होता है। किस तरह ठेकेदार अपना काम निकलवाने के लिए रिश्वत देकर ईमानदार  कर्मचारियों को अपने साथ मिलाने का प्रयास करते हैं और शराब जैसी बुरी आदतों की लत गिराते हैं।
       सत्यवती की माँ और उसके खुद के संघर्ष को दर्शाता हुआ यह उपन्यास स्त्री-विमर्श से जुड़े अनेक सुप्त पहलुओं को उजागर करता हुआ दो पीढ़ियों में आए वैचारिक-अंतराल को पाटते हुए नई दिशा प्रदान करता है। बचपन में जहाँ वह अपनी माँ के वात्सल्य और ममता के आँचल का स्पर्श पाती है, वहीँ शराबी पिता से दूर होती जाती है। जब पिताजी घर में उसकी सगाई की बात करते हैं तो वह तुरंत विरोध कर देती है। पीलीबंगा, गंगानगर और जैसलमेर में बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त होने वाले पंजाबी शब्दों जैसे चंगा,थंगा,प्राहजी, पुत्तर, काके इत्यादि के प्रयोग ने इस उपन्यास में चमत्कारिक ढंग से वहाँ की आंचलिकता और परिवेश को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। इस क्षेत्र में रहने वाला राजस्थानी पाठक तो बरबस ही मंत्र-मुग्ध हो जाएगा। कहीं-कहीं संवेदनशील पाठक सत्यवती और उसकी माँ की पीड़ा को अनुभव करते हुए स्वयं ही अपनी आँखों को नम पायेगा तथा कहीं-कहीं तो उसे फूट- फूटकर रोने की इच्छा पैदा भी होगी। इस उपन्यास की एक और ख़ास विशेषता यह भी है कि मुख्य पात्र रामबाबू, गीता, सत्यवती, किसी को भी किसी भी कारण से किसी भी परिस्थिति में गलत नहीं ठहराया जा सकता। राम बाबू भी ईमानदार कर्मचारी हैं। हालात-वश वह नशे का शिकार हो जाते हैं। गीता पति की हर आज्ञा का इस तरह पालन करती है मानो उसका स्वयं का कोई अस्तित्व ही न हो। लाड़ली बेटी सत्यवती दोनों के संस्कारों को पोषती हुई सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाए कहावत को चरितार्थ करती हुई न केवल एक आदर्श शिक्षिका के रूप में स्वयं को स्थापित करती है वरन एक सुशील पुत्री का दायित्व पूरा करते हुए सामजिक बन्धनों के परवाह किए बगैर अपने माता पिता का नाम रोशन करती है।
       अनंतोगत्वा, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि यह उपन्यास न  सिर्फ राजस्थानी पाठकों के बल्कि हिंदी के सुधी पाठकों के दिलों को भी गहराई तक छू जाएगा। इतना ही नहीं अपने आप में एक कालजयी कृति का स्थान प्राप्त भी करेगा। गागर में सागर भरने वाले इस उपन्यास को सही ढंग से प्रस्तुत करने के लिए नन्द भारद्वाज साहब के प्रति कृतज्ञता एवं आभार व्यक्त करने के लिए भावतिरेक की वजह से सही शब्द नहीं मिल पा रहे है।


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