4. मुठभेड़ ::
उद्भ्रांत

हिन्दी के प्रसिद्ध कवि उद्भ्रांतजी को मैंने पहली बार 27 अगस्त 2012 को लखनऊ
के उमाबली प्रेक्षागृह में आयोजित द्वितीय अंतरराष्ट्रीय हिन्दी ब्लागर सम्मेलन को
बतौर मुख्य अतिथि संबोधित करते हुए सुना था। जहां तक मुझे याद आ रहा है, तब उन्होंने कहा था- यह
वहीं उमाबली प्रेक्षागृह है, जहां सन 1921 मेँ कभी उपन्यास सम्राट मुंशी
प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक-संघ की अध्यक्षता करते हुए उपस्थित लेखकों से अपील की
थी कि वे हमारे देश की तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में
रखते हुए ऐसा साहित्य-सृजन करें, जो देश को गुलामी के पंजों से मुक्त करा सके। और आज यही वह उमाबली
प्रेक्षागृह है, जो एक नई
क्रांति की शुरुआत करने जा रहा है, जो हिन्दी जगत के एक विश्व-व्यापी सामाजिक
नेटवर्क से जुड़कर ब्लॉगर/लेखक अपने विचारों का खुले रूप से वर्ल्ड वाइड वेब पर
आदान-प्रदान कर सारे अनावश्यक बंधनों को तोड़कर समूचे विश्व को एक छोटे-से गाँव में
बदल दें अर्थात हमारे भारतीय मनीषियों की परिकल्पना "वसुधैव कुटुंबकम"
को साकार रूप दे सकें। उन्होंने कुछ समय बाद अपने एक आलेख के कुछ अंश पढे थे, अपने जोशीले
भाषण मेँ हंस के संपादक स्वर्गीय राजेंद्र यादव के बारे में। तब तक मुझे आलोचना
क्या होती हैं और कैसी उसकी रूपरेखा होती है, बिल्कुल पता न था| यह थी मेरी
उद्भ्रांतजी से पहली एकतरफा मुलाक़ात। और उनसे आमने-सामने दूसरी मुलाक़ात होती है
चीन के शंघई राज्य के पुडोंग अंतर-राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर| वह भी मेरी
तरह सृजनगाथा डॉट कांम द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन बींजिग मेँ
विशिष्ट अतिथि की भूमिका मेँ भाग लेने जा रहे थे। उन्हें देखते
ही मैंने कहा "सर, मैंने आपको लखनऊ मेँ देखा और सुना हैं |
परिकल्पना-तस्लीम के एक प्रोग्राम मेँ |"
उन्होंने कहा, "आप भी
थे?"
" जी, सर| मैं भी था| मुझे वर्ष 2011 के श्रेष्ठ लेखक (संस्मरण)
के लिए परिकल्पना सम्मान मिलना था| उस आयोजन में मुद्रा राक्षस जी भी थे और 'अभिव्यक्ति
एवं अनुभूति' वेब पत्रिका
की संपादिका पूर्णिमा वर्मन भी आबूधाबी से लखनऊ आई हुई थी| और शिखा
वाष्णेर्य लंदन से और कई बड़े-बड़े नाम भी थे| "
फिर मैंने अपना परिचय देते हुए कहा," सर, मैं दिनेश
कुमार माली, ब्रजराजनगर, ओडिशा से| ओड़िया से
हिन्दी मेँ अनुवाद कर रहा हूँ| ऐसे दो-तीन प्रसिद्ध ब्लाग भी हैं मेरे, सरोजिनी साहू की श्रेष्ठ कहानियाँ, जगदीश मोहंती
की श्रेष्ठ कहानियाँ और कोल माइन्स मैनेजमेंट आदि।"
उन्हें
यह सुनकर बहुत खुशी हुई, मगर मुझे याद हैं कि मंच पर हुए उनके तथा अन्य विशिष्ट अतिथियों के
संबोधनों मेँ ब्लागरों को लेखक का दर्जा देने और पूर्णकालिक लेखक मानने मेँ
हिचकिचाहट हुई थी| उनका मानना
यह था, कोई भी ब्लॉगर
अपने ब्लाग मेँ जो चाहे,वह लिख सकता हैं| न व्याकरण का ध्यान, न भाषा-शैली, न वाक्य-विन्यास का ख्याल, अधकचरी भाषा का प्रयोग,
हिन्दी-अंग्रेजी मिश्रित| क्या साहित्य की भाषा यही होती हैं? साहित्य मेँ भाषा के प्रयोग का खास ध्यान
रखा जाता हैं, यह भाषा
मार्जित होनी चाहिए पूरी तरह से| एक प्रवाह होता हैं, जो पाठक को खींचते ले जाता हैं| अभिव्यक्ति की स्वतत्रता का अर्थ यह तो नहीं
है कि जो मन मेँ आए कह दो। ब्लॉग और अपने आपको श्रेष्ठ लेखक मानकर स्थापित कर लो, उंचें दर्जे
के लेखकों मेँ| ब्लॉगर
सम्मेलन में ही तरह-तरह के आक्षेप लगे थे ब्लॉग की मान्यता पर। ऐसा लग रहा था, जैसे आलोचना
का कोई शिविर चल रहा हो। खैर, यह भी बात उठी थी मंच पर, जहाँ अंग्रेजी भाषा मेँ लाखों ब्लॉग देखने को मिलते हैं, वहीं हिन्दी
मेँ ब्लॉगों की संख्या बहुत ही सीमित हैं| "हिन्दी ब्लॉग का इतिहास" के लेखक
तथा इस आयोजन के संयोजक रवीन्द्र प्रभात ने कहा था, " हम हिन्दी का विस्तार चाहते हैं, न कि भाषा को
साहित्यिक जटिलता मेँ जकड़कर संकीर्ण रास्ते पर लाकर खड़ी करना|" हरेक का
अपना-अपना दृष्टिकोण था और ऐसे भी जितने मुंह, उतनी बातें| लेकिन मुझे नए ब्लॉगरों तथा स्थापित लेखकों
की पक्ष-विपक्ष की दलीलें सुनने में बहुत अच्छा लग रहा था| पुराने
स्थापित लेखक तकनीकी से घबरा रहे थे, जबकि नए उभरते लेखक तकनीकी के प्रयोग मेँ
स्मार्ट होने की वजह से आपने आप मेँ ज्यादा आत्मविश्वास अनुभव कर रहे थे| गिरीश पंकज
जी भी उस आयोजन मेँ उपस्थित थे|
दो
साल बाद अचानक शंघाई हवाई अड्डे पर उद्भ्रांत जी तथा उनके साथ चंडीगढ़ के मशहूर
लेखक डॉ॰ जसवीर चावला से मिलना मेरे लिए विस्मयकारी घटना थी| यद्यपि इन दो
सालों के भीतर मैंने उद्भ्रांतजी को 'कविता-कोश' में थोड़ा-बहुत पढ़ा था, फिर भी उनके
बारे में साहित्यकारों से मिलने वाली जानकारियों से मैंने यह अनुमान लगा लिया था
कि वह बहुत विद्वान कवि हैं, बड़े आलोचक हैं, कुछ क्रोधी स्वभाव के हैं, आदि-आदि| यह भी सही था, मेरे मन में उनके प्रति एक अगाध श्रद्धा व
प्रेम उमड़ आया था| दूरदर्शन के उपमहानिदेशक पर से दो वर्ष पूर्व
सेवा निवृत हुए एक बड़े लेखक के साथ मेरा आत्मीय होना किसी सपने से कम नहीं था| सृजनगाथा डॉट
कांम के बीजिंग सम्मेलन का में अत्यंत आभारी था, जिसने मुझे एक और अवसर प्रदान किया, बड़े-बड़े
लेखकों जैसे डॉ खगेन्द्र ठाकुर, उद्भ्रांतजी, डॉ॰ रंजना अरगड़े, डॉ॰ मीनाक्षी जोशी, डॉ॰ विजय चौरसिया, डॉ॰ जयप्रकाश
मानस,राकेश पाण्डेय, असंगघोष, डॉ॰ राजेश श्रीवास्तव सभी को नजदीकी से देखकर जानने, परखने और
समझने का| किसी लेखक को
पढ़ना और उसके साथ रहकर समझना दोनों में आकाश-पाताल का फर्क होता है। आज के आपाधापी
के युग में क्या ऐसा संभव हैं, कि आप इतने बड़े लेखकों के साथ कुछ दिन गुजर सको| शायद कभी
नहीं| तभी तो
अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के आयोजनों की कल्पना की होगी सृजनगाथा के प्रवर्तक
डॉ जयप्रकाश मानस ने। यह चीन में आयोजित नवां अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन था| इस समारोह
में उद्भ्रांत जी की पुस्तक 'मुठभेड़' का विमोचन
हुआ |
मेरी उद्भ्रांत जी से खास घनिष्ठता बढ़ी,
अंतरराष्ट्रीय रचना पाठ बाद| उन्होंने अपनी कविता 'अधेड़ होती औरत" और मैंने
सीताकान्त महापात्र व रमाकांत रथ की कविता 'ओड़िशा' का अनुवाद सुनाया तो एक दूसरे के प्रति
साहित्यिक दृष्टिकोण से ध्यान आकृष्ट हुआ| लौटते समय उद्भ्रांत जी ने मुझे अपनी अद्यतन
पुस्तक 'मुठभेड़' अपने
स्वाक्षर के साथ दिल्ली हवाई अड्डे पर दी| यह भी संयोग की बात थी कि 'चाइना ईस्टर्न' फ्लाइट में
उनकी सीट मेरे पास आई और हम दोनों चीन से दिल्ली की छ घंटे की यात्रा में कम से कम
तीन घंटे से ज्यादा इधर-उधर साहित्यिक चर्चाएं करते रहे| वे एक बहुत
बड़े कवि, लेखक व आलोचक
भी हैं, 90 से ज्यादा
पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और आधुनिक हिन्दी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में
विलक्षण प्रतिभा के कारण अपना स्थान बना चुके हैं| देश-विदेश की कई भाषाओं में उनकी रचनाओं का
अनुवाद भी हुआ है,
मगर मेरे लिए विशेष आकर्षण का केंद्र था ओडिया भाषा के विशिष्ट कवि उद्गाता
जी द्वारा उनके प्रबंध-काव्य 'राधा माधव' का ओडिया
भाषा में अनुवाद| उद्गाता जी
ओड़िया-भाषा के कवि होने के साथ-साथ ओड़िया से हिन्दी तथा हिन्दी से ओड़िया भाषा के
प्रमुख काव्यानुवादक हैं तथा ओड़िशा के प्रसिद्ध कवि रमाकांत रथ के काव्य 'श्री राधा' का हिन्दी
में तथा धर्मवीर भारती की 'कनुप्रिया' का ओड़िया भाषा
में पहले ही अनुवाद कर चुके है। हिन्दी और ओड़िया भाषा के अलग-अलग विचारधारा के
विशिष्ट कवियों रमाकांत रथ और उद्भ्रांत का तुलनात्मक अध्ययन कर भारतीय साहित्य को
समृद्ध बनाया है उदगाताजी ने|
जब उद्भ्रांत जी ने अपने महाकाव्य 'त्रेता' और 'प्रज्ञावेणु' के बारे में
बताया और विस्तार से 'मुठभेड़' में उनके कुछ
आलोच्य अंशों को पढ़ा तो मुझे अत्यंत खुशी हुई कि भारतीय संस्कृति, साहित्य और
दर्शन में उनकी कितनी गहरी रुचि हैं, जी त्रेता युग के रामराज्य की सारी नारियों
को एक धरातल पर खड़ा कर उनके वैचारिक दृष्टि कोण की समरूपता की तुलना करते हैं और 'गीता' जैसे
संस्कृतनिष्ठ महाकाव्य का 'प्रज्ञावेणु' के नाम से हिन्दी मुक्तछंद काव्य में रूपान्तरण जन-साधारण को सुलभ कराकर
हिन्दी साहित्य की बहुत बड़ी सेवा की हैं| उनकी कविता 'रुद्रावतार' की तुलना निराला की 'राम की शक्ति
पूजा' से होना उनकी
काव्य-प्रतिभा का भारतीय मनीषा द्वारा किया गया श्रेष्ठ आकलन हैं| उनके यथार्थ
अनुभवों तथा काव्य प्रतिभा को तराजू के दो पलड़ों में रखकर यही कहता होगा कि
प्रतिभा के विस्फोट 'उद्भ्रांत' का सही
मूल्यांकन अभी तक नहीं हो पाया है| समय ही उनकी कृतियों को पाठकों के द्वारा
सही मूल्यांकन के लिए विवश कर देगा |
'मुठभेड़' पुस्तक उनकी
एक रियल इनकाउंटर का दस्तावेज़ हैं- साहित्य और असाहित्य, प्रेम-नफरत और खरी-खोटी की सीमा पर होने वाली लड़ाई का, जिसमें एक सैनिक अपने चारों तरफ चक्रव्यूह
में फँसकर लगातार साहित्य-अकादमियों, संपादकों, लेखकों तथा अनेक शातिरदासों के साथ लगभग चार
दशकों से अभिमन्यु की तरह लड़ रहा हो, कलम के
रथ का पहिया निकाल कर और लड़ते-लड़ते क्लांत हो गया हो, बचा रह गया
तो केवल क्रोध में जवाबी हमले के लिए| जब एक महान लेखक अपने इर्द-गिर्द होने वाली
अव्यवस्थाओं व अलोकतंत्र से जूझता हैं, तो उसका अंतस प्रतिक्रिया स्वरूप तीखे हमले
की तैयारी कर रहा होता हैं| उसका उद्देश्य दुर्भावना-सदभावना फैलाना नहीं होता है, वरन
साहित्यिक खेमों में फैल रही गंदगी, भ्रष्टाचार, स्वेच्छाचार व स्वतंत्र मनोवृति पर कुछ हद तक
अंकुश लगाना होता है कि किसी की नजर तो है उनके दुराचरण पर| बात यही खत्म
नहीं होती, शुरू होती है
उनके निर्भीक बेबाकीपन की, जिसकी वजह से वे कई चापलूस साहित्यकारों की नजरों में खटकने लगे है, उनकी लगातार
उपेक्षा के प्रयास किए जाते है, कई लब्ध-प्रतिष्ठित पुरस्कारों से भी वंचित किया जाता है।
डॉ॰ जयप्रकाश मानस द्वारा इस किताब के एक
अध्याय 'कालिया ने
पाला बदल दिया' शीर्षक से
फेसबुक पर कुछ उद्धरण प्रस्तुत किए गए तो कई जाने-माने लेखकों व बुद्धिजीवियों
जैसे 'किशन कालजी' 'संतोष
श्रीवास्तव' आदि की
प्रतिक्रियाएँ सामने आई और उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वे लोग भी कालिया
जी की उपेक्षा के शिकार हुए है। राकेश अचल की प्रतिक्रिया ऐसी भी थी, मुठभेड़ें तो
अक्सर चंबल के बीहड़ों में होती है। मगर यह किताब पढ़ने के बाद लगा कि उद्भ्रांत जी
की मुठभेड़ साहित्यिक गिरोह से होना चंबल की मुठभेड़ से कहीं गुना भयंकर है। बहुत ही
ज्यादा मानसिक यातनाओं का शिकार होता है एक निष्कपट साहित्यकार, अगर उसकी
लगातार अवहेलना होती है।
यह
पुस्तक तीन खंडों में संकलित की गई है। पहला भाग 'बहस-मुबाहिसा', दूसरा 'वाचिक' और तीसरा 'पत्र-संवाद'। तीनों भागों में उद्भ्रांत जी के आलोचना का
पैनापन नजर आता है। प्रथम खंड 'जंगल में हाँका', 'हाय तौबा
क्यों?', 'शाबर मंत्र या
अनाप-शनाप', 'हिग्स बोसॉन', 'चर्चा राग
दरबारी', 'कॉपी राइट', 'औरत का नजरिया' आदि विषयों पर
छिडी बहस को अपने तर्क-वितर्कों के माध्यम से निस्वार्थ और निष्पक्ष पाठक खुद को
बहस का हिस्सा मान सोचने के लिए मजबूर हो जाता है कि अगर वह स्वयं भी बहस में भाग
लेता तो शायद वह भी यही बात रखते जो उद्भ्रांतजी ने आलेखों के माध्यम से इस किताब
में रखी है ।
उदाहरण के तौर पर,"..... जंगल में शेर
पकड़ने के लिए ज़ोर-शोर से ढ़ोल-नगाड़े बजाते हुए अलग-अलग दिशाओं से शिकारियों के दल
उसके छुपने का स्थान तलाशते बढ़ते रहते है, उसे हाँका कहते है। उससे डरकर असली शेर बाहर
निकाल आता है और मारा जाता है। ऐसा ही कुछ प्रकरण 2005 की साहित्य अकादमी का
पुरस्कार देने वाली त्रिसदस्यी जूरी के एकमात्र उपस्थित सदस्य सेवा राम यात्री के
प्रकट होने से हुआ। कमलेश्वर उस जूरी में नहीं पहुंचे ,मगर घर से
लिखकर अपनी संस्तुति भेज दी। जबकि दूसरे सदस्य श्रीलाल शुक्ल लखनऊ विमान सेवा
बाधित होने के कारण दिल्ली नहीं पहुंचे, अगर चाहते तो शताब्दी, राजधानी या
गोमती से पहुँच सकते थे आखिर लखनऊ से दिल्ली दूर थी कितनी! तब उस समय कभी कभार
कविताएं लिखने वाले यात्री 'कविता की समझ' रखने वाला कविता की कोटि निर्धारित करने वाला निर्णायक बन जाता है और
डंगवाल की कविताएं पुरस्कृत हो जाती है अपने परम मित्र मंगलेश और अन्य मित्रों के
साथ उन्हें पुरस्कृत कराने का अभियान चलाकर। इस तरह सरकारी अकादमी से पुरस्कृत
होकर कागजी प्रमाणों के आधार पर किस तरह कोई जूनियर कवि किस तरह अपने वरिष्ठों और
उत्कृष्टों को लंगड़ी मारकर आगे बढ़ने में कामयाब होता है।"
"ऐसी हाय तौबा क्यों?" में
उद्भ्रांत जी ने 'उद्भावना' पत्रिका के
ज्योतिबसु विशेषांक में अतिथि संपादक सुश्री सरला माहेश्वरी द्वारा संपादकीय को
प्रारम्भ करते समय 'प्रज्ञावेणु' के छंद को उद्धृत करना, मगर उसमें फुटनोट संबंधी स्टार चिह्न लगा होने के बावजूद फुटनोट न देना
जिसमें कृति 'प्रज्ञावेणु' और लेखक
उद्भ्रांत का संदर्भ होता, आपत्तिजनक बताया है। तात्पर्य या
तो प्रेस की गलती हुई है या प्रकाशक ने जान-बूझकर ऐसा किया है, क्योंकि अगर
अतिथि संपादक को करना होता तो वे उसे उद्धृत नहीं करती ।
इसी प्रकार भगवान सिंह, एक तरफ कवि के
'रुद्रावतार' की तुलना 'राम की
शक्तिपूजा' से करते है
तो दूसरी तरफ उसी संदर्भ में 'शाबर मंत्र' का अर्थ शबर जाति के ओझाओं की झाड-फूँक से जोड़कर 'शब्दों के
पीछे' से वार करते
है। 'साबर मंत्र' का सही अर्थ
शैव-मंत्रों से नहीं लिया जाना उद्भ्रांत जैसे शब्द-साधक के लिए कम दुख की बात
नहीं है !
"औरत के
नजरिए से कुछ और भी कहना जरूरी है ।"
में उन्होंने बड़े-बड़े साहित्यकार यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय, चतुरसेन
शास्त्री, द्वारिका
प्रसाद (घेरे के बाहर) जैसे लेखकों के उपन्यासों के साथ-साथ कमलेश्वर (मांस का दरिया), डॉ॰ माहेश्वर (पेशाब), और कामतानाथ (लाशें) आदि पर लगे अश्लीलता के आरोपों को जहां उजागर किया है, यह कहते हुए 'लाशें' का नायक तो
लाश के साथ संभोगरत रहता है, वैसे ही रमाकांत श्रीवास्तव की कहानी 'मध्यांतर' में चौराहे पर पड़ी किसी बेहोश या मृत स्त्री
की उघाड़ी देह को ढाँकने के बजाय भीड़ की निगाहें उसकी नंगी टांगों के बीच की जगह का
मुजाहिरा करने जैसी मानसिक विकृति को प्रदर्शित करती है। शालिनी माथुर ने कविता
जैसी विधा में घुसपैठ कर रही पोर्नोग्राफिक बीमारी की पड़ताल के लिए अपनी परखनली में
जिन दो कवियों की कविताएं ली, वे हिन्दी के जाने-माने चेहरे है। कैंसर जैसी व्याधि पर लिखी पवन करण की
कविता 'स्तन'तथा अनामिका
की कविता 'ब्रेस्ट कैंसर'की कविता बिना
अपने अनुभव के परकाया प्रवेश शायद ही रोगग्रस्त स्त्रियों द्वारा जेड़ गुड़ी की तरह
अनुभूति देने के बाद रची गई होगी,जो उन औरतों को आत्महत्या करने जैसा भयानक कदम उठाने के लिए उद्यत करे। कभी
बच्चन जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि एक बार कवि सम्मेलन से लौटते समय ट्रेन
में उनके गीतों की बार-बार फरमाइश करने वाले युवक ने उसी ट्रेन से कटकर आत्मह्त्या
कर ली थी। तब उन्हें अपनी मौरबिड पोइट्री का अहसास हुआ, जो समाज के
किसी भी संवेदनशील युवा पर आत्महंता प्रभाव डाल सकती है। पश्चाताप में उन्होंने
ऐसी कविताएं लिखना ही बंद कर दिया। लेखक ने 'नारीवाद लेखन' के माध्यम से समाज में परोसे जा रहे क्रूर, हिंसक, हृदयहीन कविताओं
के रचियताओं को 'शीर्ष' विशेषण देने
पर उंगली उठाई हैं। 'हिग्स बोसान अर्थात विज्ञान का भगवान' बहस में उन्होंने ब्रह्मांड की जटिलताओं पर
हो रहें अनुसंधान पर धर्म भीरु मीडिया द्वारा 'पंचेंद्रियों द्वारा प्रकृति का साक्षात
अनुभव' करने के बाद
भी हिग्स बोसान कण को 'गॉड पार्टिक्ल' जैसा छद्मनाम देकर 'ईश्वर की खोज' मनुष्य की महज कल्पना मात्र बताते हुए 'हिग्स फील्ड' को 'पिग्स फील्ड' कहकर चुटकी ली हैं!
'चर्चा राग दरबारी' में श्री लाल
शुक्ल की कृति राग दरबारी में प्रकाशक द्वारा दी गई विज्ञप्ति को आधार बनाकर स्थिति, पात्र, काल की कुछ
विसंगतियों पर तुषारापात करते हुए कृति में एक पक्षीय चित्रण की
ज्यादती होने की संभावना को व्यक्त किया हैं उद्भ्रांत जी ने। साथ ही साथ
अत्याधुनिकता के मोह में अपनी उत्कृष्ट शैली को दरकिनारकर नई पीढ़ी की विशेषता को
आयातित करने के साथ भाषा और शिल्प की अपेक्षित जागरूकता पर ध्यान दिए बगैर
कुरुचिपूर्ण, भद्दे
मुहावरों और किसी हद तक अश्लील प्रयोगों का सहारा लिया है श्री शुक्ल ने। "आग खाएगा तो
अंगार हंगेगा", "आँखें हैं कि टिन?", शिकार के वक्त कुतिया हगसी" आदि-आदि। ऐसे
ही हमारे देश की शिक्षा पद्धति की तुलना रास्ते में पड़ी हुई कुतिया से की है।
गांधी जी महत्व का प्रदर्शन 'एक चव्वनी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गांधी की' के नारों तथा जहां-तहां प्रजातन्त्र का खूब मजाक उड़ाया है।
'कॉपीराइट' के बारे में
उद्भ्रांत जी ने लेखक और प्रकाशक के बीच के रिश्ते मिल मालिक और मजदूर से जोड़ कर
देखा है। मजदूर को अपना मेहनताना मिलना चाहिए वरन मालिक के खिलाफ संगठित होकर लड़ने
का पूरा-पूरा हक है। इसी में आगे जाकर पूर्णकालिक लेखन को साहित्य का भद्दा मजाक
बताने वालों पर करारी चोट की है, उन्होंने अमृत लाल नागर, निर्मल वर्मा, भगवती प्रसाद वाजपेयी के आजीवन मिसिजीवी रहने
का उदाहरण देकर। चूंकि अधिकांश लेखकों का परिवार भी है इसलिए वह 'कॉपीराइट' से मुक्ति की
बात कभी नहीं करेगा।
'मुठभेड़' के दूसरे खंड 'वाचिक' में उन्होंने अपनी आप-बीती, अपने अनुभवों
को उजागर करते हुए कुछ आलेखबद्ध विवरण प्रस्तुत किया है। पंत या गुलेरी से उनकी
कोई स्पर्धा या अनुसरण करने की कोई ख़्वाहिश नहीं। अपने कविता संग्रह 'काली मीनार को
ढहाते हुए' के लोकार्पण
के अवसर पर उन्होंने बताया कि नक्सल आंदोलन को लेकर तरह-तरह के मन में विचार उठे, यहाँ तक कि
कविता को लेकर मोह भंग भी हुआ। 'स्वयंप्रभा' राम कथा का
एक एस मिथकीय चरित्र है जिस पर कुछ भी नहीं लिखा गया। 'स्वयंप्रभा' ने भी अपने
योगबल से हनुमान सहित वानर सेना का पथ प्रदर्शन किया था। दूसरे सर्ग में कंदु ऋषि
का वर्णन आता है, जिनके पुत्र
का प्रदूषित पर्यावरण के कारण होने वाली बीमारियों से असामयिक मृत्यु हुई थी और
ऋषि के कोप से जंगल की हरीतिमा नष्ट हो गई, जीवन लुप्त हो गया। तब स्वयंप्रभा ने अपने
तपोबल से हरा भरा सरोवर युक्त आश्रम बनाया और मरणासन्न वानर सेना को नया जीवन
प्रदान किया। इस प्रकार 'स्वयंप्रभा' में पर्यावरण और स्त्री स्वातंत्र्य के सवाल शामिल है।
विश्व पुस्तक मेले में 'प्रज्ञावेणु' के लोकार्पण
के समय उद्भ्रांत जी अपने मुक्त छन्द शैली को अपनाने का कारण बताते हुए एक बात कही
कि वह सामान्य जन तक गीता के सारे 18 सर्गो के गूढ़ ज्ञान को
यथारूप पहुंचाना चाहते थे। अपने कविता संग्रह 'अस्ति' महाकाव्य 'अभिनव पांडव', और प्रबंध-काव्य
'राधा माधव' के लोकार्पण
के समय आयोजित विचार-गोष्ठी 'समय, समाज, मिथक:
उद्भ्रांत का कवि-कर्म' विषय पर बोलते हुए उन्होंने संक्षिप्त में इतना ही कहा कि मैंने अपना काम किया, समय अपना काम करेगा। उनके मन में एक मलाल था
कि उनके कवि कर्म का अभी तक सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। उन्हें अफसोस इस बात का भी
है कि अगर पुस्तकों का लोकार्पण न हो तो विद्वतजन महीनों तक किताब को खोलकर भी न
देखें। लोकार्पण के बहाने कम से कम कुछ पेज तो जरूर टटोलेंगे और अगर थोड़ा बहुत
अवसर मिला तो कुछ न कुछ अवश्य पढ़ेंगे। 'रुद्रावतार विमर्श' के लोकार्पण
पर सहज भाव से उद्भ्रांत जी ने स्वीकार किया कि वह स्वयं किसी शिखर पर बैठे हुए
नहीं है और 'राम की
शक्तिपूजा' की तुलना इस
कविता से नहीं की जानी चाहिए। हमारे यहाँ मान्यता है कि विष्णु के अवतार होते हैं, शिव के नहीं।
मगर उनकी कविता पर नामवर, केदारनाथ ने कोई चर्चा नहीं की। रामकथा पर उद्भ्रांतजी की कलम खूब चली है, उनके महाकाव्य
'त्रेता' के प्रारम्भिक
पृष्ठों में रामकथा के सभी स्त्री-पात्रों को एक
सूत्र में गूँथने की उलझन का जिक्र किया है। लंबी आर्ष कविता 'अनाद्य सूक्त' सृष्टि के
उद्भव की खोज करती है।
'मुठभेड़' के तीसरे
हिस्से में पत्र-संवाद के माध्यम से जहां-जहां उन्हें कुछ कमी या जान-बूझकर की गई
गलती नजर आई तो तुरंत पत्र लिखकर संपादकों का ध्यान आकृष्ट किया है। 'नूतन सवेरा' के प्रधान
संपादक श्री नन्दकिशोर नौटियाल को पत्र लिखकर अपनी मूल प्रति और प्रकाशित पत्र का
हवाला देते हुए जान-बूझकर किए गए शब्द-परिवर्तन के कारण 'प्रज्ञा वेणु' को उन्होंने
छापने के लिए मना कर दिया। मूलरूप था, "काम/जो उत्पन्न होता रजोगुण से/और
जिससे क्रोध रहते है सदैव अतृप्त" जबकि प्रकाशित रूप
था, "काम और
क्रोध/जो उत्पन्न होते रजोगुण से/रहते है सदैव अतृप्त"
'धर्मयुग' के संपादक विश्वनाथ सचदेव जी के नाम भी
उन्होंने एक खुला पत्र लिखा, जिसमें ठाकुरभाई के निधन पर धर्मयुग (16 नबम्बर 1993) में प्रकाशित डॉ
राममनोहर त्रिपाठी द्वारा दी गई श्रद्धांजलि से उत्पन्न गलत फहमियों पर उन्होंने बेबाकी से ध्यान आकर्षण किया| ऐसे ही 'नटरंग' की संपादिका
रश्मि, हंस के
संपादक 'राजेंद्र यादव' को भी अपनी
पत्र-टिप्पणी के माध्यम से आलोचना को लोकतांत्रिक ढंग तथा पत्रकारिता में नैतिकता
बनाए रखने का भी आह्वान दिया| और साहित्यक खेमों में होने वाली चालाकियों, गैरजिम्मेदाराना
समीक्षाओं के पीछे छुपे शातिरदासों की पोल खोलने से भी वह नहीं चूके| यहाँ तक कि रवींद्र कालिया के पाला बदलने व अशोक वाजपेयी की
होशियारी को भी सहज ढंग से जनता के सामने लाया हैं| इस प्रकार उनकी पुस्तक 'मुठभेड़' विभिन्न मुद्दों पर पत्र-पत्रिकाओं में चलने वाली बहसों, यथास्थिति
में बदलाव लाने के लिए संपादकों के नाम खुले पत्र उनके साहस तथा बिल्कुल भिन्न
खांटी बेबाक रूप से परिचय कराती है| हिन्दी के हर सजग पाठक को यह पुस्तक अवश्य
पढ़नी चाहिए|
(प्रकाशन: नमन प्रकाशन, नई दिल्ली/नाम:
मुठभेड़/लेख : उद्भ्रांत/मूल्य: 350/-/संस्करण: 2014/ISBN: 978-81-8129-502-6)
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