3. जगदीश मोहंती की
श्रेष्ठ कहानियाँ

जगदीश मोहंती की कहानियों और उपन्यासों का
अनुवाद करने के दौरान मैं उनकी रचना प्रक्रिया से परिचित हुआ। मेरे लिए ऐसे भी यह
सहज था कि लगभग एक दशक तक मैं उनका पड़ोसी था, भले ही उस समय उनकी साहित्यिक कृतियों के बारे में मुझे
जानकारी नहीं थी। मगर मेरे नौकरी के दूसरे दशक की शुरुआत से मुझे उनके लेखन जीवन
का गहरा अनुभव होने लगा और ऐसे भी एक चिर-परिचित इंसान की जीवन शैली उनके
लेखन-कला, विचार-धारा और साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता की जानकारी अवश्य देती है।
मैंने उनकी कहानियों को मुख्य पाँच भागों में बांटने की कोशिश की है :-
1॰
पारिवारिक एवं आंचलिक कहानियाँ:-
उनकी निरीक्षण शक्ति अत्यंत ही सूक्ष्म व
संवेदनशील थी।वे अपने सृजन के लिए मौलिक रूप से घर-परिवार, आस-पास के परिवेश तथा
समाज की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं के भीतर अपनी कथावस्तु /कथानक खोजते थे। जहां
उनकी कहानियाँ “अंतिम पंक्ति का इंसान”, “दिग्वलय”, “माँ के लिए घर” पारिवारिक
पृष्ठभूमि से उभरकर आई है वहीं “कालाहांडी का मानचित्र और बांझ समय”, “रायगढ़ा-रायगढ़ा”
ओड़िशा के कुछ विशिष्ट आंचलिक परिवेश को दर्शाती है। ‘अंतिम पंक्ति का इंसान’कहानी
में दो अलग-अलग व्यक्तित्व वाले दोस्त पात्र हैं। बहिर्मुख, तेज-तर्रार व्यक्तित्व
वाला देवारचन देखते-देखते राजनेता बन जाता है, वहीं प्रतिभावान चंदर अंतर्मुखी स्वभाव और भोलेपन के कारण अपने
जीवन में कुछ भी हासिल नहीं कर पाता है। जबकि उसके चचेरा भाई नेताओं का पिछलग्गू
बन चापलूसी करते सफलता के मुकाम को अर्जित करता है। लोग उसकी उन्नति का उदाहरण
देते हैं। यहीं पर लेखक अपने जीवन की यथार्थ भूमि पर कटाक्ष करते हुए अपने आप को ‘अंतिम पंक्ति के इंसान’ की श्रेणी में गिनने लगता है कि वह
रेवेन्सा कॉलेज की हॉस्टल में चार साल तक साथ रहे मित्र के नेता बनने पर बातचीत करने से भी कतराता है। इसी तरह ‘दिग्वलय’ एक पारिवारिक कहानी है, जिसमें बड़े भाई के मेहनत,लगन अपने परिवार के प्रति समर्पण और त्याग की वजह से छोटा भाई
प्रकाश आईएएस तो बन जाता है, मगर घर के प्रति उत्तरदायित्वों का
सफल निर्वाह नहीं कर पाता है, यहाँ तक कि पिताजी की मृत्यु पर
केश मुंडन के समय भी घर तक नहीं पहुंचता है। बड़ा भाई पेशे में अध्यापक होने के वजह
से उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ नहीं होती है तो वह सोचता है कि छोटा भाई आई.ए.एस. है
तो अपने हिस्सेवाली जमीन अगर छोड़ देता तो बेटी की
शादी आसानी से हो जाएगी। हजरत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर लौटने के समय वह अपने
मन की बात प्रकाश को कहना चाहता है,मगर
इससे पहले ही वह कहने लगता है,“भाई मुझे पैसों की जरूरत है।सोच
रहा हूँ की भुवनेश्वर में एक फ्लैट खरीद लूँ। पैसा नहीं हो पा रहा है। अच्छा होता
कि गाँव में मेरे हिस्से की जमीन बेच देते।”
इस तरह लेखक ने कबीर की मुक्ति ‘बड़ा
भया तो क्या भया जैसे पेड़ खजूर, पंथी को छाया नहीं फल लागे अति
दूर” उक्ति को चरितार्थ करते हुए उच्च पदस्थ अधिकारियों की स्वार्थ-लिप्सा, विच्छिन्न होते पारिवारिक संबंध और सामाजिक
विद्रूपताओं को पाठकों के समक्ष लाया है।
तीसरी कहानी
‘माँ के लिए घर’ हिन्दी साहित्य के सातवें दशक की नई कहानी
आंदोलन के प्रवर्तकों में गिने जाने वाले महान साहित्यकार भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’ की याद दिलाती है।दोनों की कहानियाँ माँ पर केन्द्रित है। एक
कहानी में माँ अपने बेटे के घर को अपना नहीं समझ पाती है। बहू के डर से न तो वह
पूजा के आले का उपयोग कर पाती है और न ही दूसरे बेडरूम में रखे बिस्तर का, क्योंकि उस पर बहू की पालतू बिल्ली सोई हुई
होती है।अपने सामान की पोटली को एक कोने में रखकर वह दुबक कर बैठी रहती है, भूख लगाने के बावजूद भी उनके फ्रिज को छूती
तक नहीं है।“चीफ की दावत” में बेटा अपने प्रमोशन पाने के लिए बॉस को घर बुलाकर
दावत देता है और उस पार्टी में कुछ विध्न न पड़ जाए,इसलिए वह अपनी माँ को बरामदे में किसी कुर्सी पर बैठाता
है।
ओडिशा के
ग्राम्यांचल,गरीबी,अनाहार-मृत्यु एवं नकसलवाद समस्या को लेखक ने तथा ‘रायगढ़ा-रायगढ़ा’ में प्रस्तुत किया है। कालाहांडी के मानचित्र में दरिद्रता
प्रदर्शनी के लिए विभिन्न स्टॉलों जैसे “लालफ़ीताशाही
जिंदाबाद”,“विश्व के सारे नेता एकजुट हो”, “कालाहांडी के पास फोटो खींचने वाला
स्टूडियो”,“बच्चा महिला बिक्री सहकारी
समिति”आदि के माध्यम से लेखक ने कालाहांडी की गरीबी के नाम पर फायदा उठाने वाले
नेताओं,पत्रकारों और एन.जी.ओ. आदि पर करारा
व्यंग्य किया है। व्यंग्य की भाषा शैली
इतनी तीक्ष्ण,मारक और प्रभावशाली है कि हिन्दी
पाठकों को “भोलाराम का जीव” के लेखक हरिशंकर परसाई की याद आ जाती है।
“रायगढ़ा-रायगढ़ा”
दूसरी आंचलिक कहानी है, जो फणीश्वर नाथ रेणु के बंगाल
पूर्णियाँ गाँव पर आधारित उपन्यास “मैला आँचल” तथा शिव प्रसाद की कहानी “कर्मनाशा
की हार” की याद दिलाती है। ओडिशा में नक्सलवाद के फलने फूलने के कारणों का उल्लेख
करते हुए वह लिखते है कि –
“.... तुम
कम से कम एक बार रायगढ़ा आओ। मैं तुम्हें नाकूआ पहाड़ के उस पार वाले गाँव में ले
जाऊंगा। वहाँ तुम देख पाओगे कि भूख क्या चीज होती है? तुम एक बार आओ तो मैं तुम्हें दिखा देता हूँ शोषण कैसे होता है? तुम देख लोगे कि रायगढ़ा जहां पाँच रुपए में
दस केले मिलते हैं फिर भी कंध जाति के मांगेजी की
वृद्ध माँ अनाहार मृत्यु का शिकार कैसे हो गई और सरकार ने किस तरह इस
मृत्यु को कुपोषण का शिकार होने की वजह बताया। तुम आओ मैं तुम्हें एक दूसरा ओडिशा
दिखाऊँगा।” इन कहानियों का विश्लेषण करने से कभी-कभी तो यह लगता है कि मुंशी
प्रेमचंद ‘गोदान’ की रचना करते समय जिस तरह उत्तरप्रदेश के सेमारी और बेलारी
गांवों के किसानों की समस्या को उठाते है, वैसे ही जगदीश मोहंती ओडिशा के कोरापुट,बोलांगीर,केंदुझार जिलों में नक्सलवाद की समस्या को सामने रखते है।
2 –
मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित कहानियाँ :-
जगदीश
मोहंती की समाज के दलितवर्ग, गरीब और मजदूरों के प्रति हमेशा से
सहानुभूति रही है। उनकी ‘बाघ’ कहानी में सटीक भाषा का प्रयोग, प्रभावोत्पादक भाषाशैली, कथ्य सम्प्रेषणशीलता इतनी सहज है कि किसी भी पाठक के समक्ष
दृश्य उभरकर इस तरह सामने आता है मानो 360 डिग्री वाला एक सीसीटीवी कैमरा अलग-अलग
भाषा से एक बार मुंह खोलकर जम्हाई लेते बाघ की ओर फोकस करता है तो दूसरी बार बच्चे
को बेचते पत्थर दिल पिता को,तो तीसरी बार रोती बिलखती बच्चे की
माँ सुरवानी कि मार्मिक संवेदनशीलता को। वह बाघ और कुछ नहीं, पत्थर दिल पिता की प्रतिच्छाया है। हिन्दी
के प्रतिष्ठित लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यान ‘अज्ञेय’ अपनी हिन्दी कहानियों में भाषा
के साथ प्रयोग करते है, इसी तरह जगदीश मोहंती ने भाषा के साथ अपनी रचनाओं में अनेक बार
प्रयोग किया है। “पापा मैं खाने के लिए कुछ मांग रहा था इसलिए आप मुझे बेच रहे हो ? मैं और कभी खाने को नहीं माँगूँगा।” सामने
से देखते-देखते ओझल होते गोल-मटोल मासूम चेहरे वाले बच्चे तथा उसकी नन्ही-नन्ही
नरम हथेलियों का स्पर्श छूटने की अनुभूति से पाठकों की आँखें स्वतः नम हो जाती है।
ऐसी एक
कहानी ‘दरिद्रय’ है। तीर्थाटन के समय हैदराबाद में बुनकरों के दरिद्र जीवन से
द्रवित एक दंपत्ति काफी सोच समझकर बार्गेनिंग कर एक हजार रुपए की साड़ी को 250 रुपए
में खरीदने का निर्णय लेता है, पोस्टल खर्च भी बुनकर के ऊपर। और जब वह साड़ी डाक से उनके निवास स्थान
पर पहुँचती है तो शेष राशि के भुगतान के डर से मध्यम वर्गीय सोच के कारण वह वीपीपी
नहीं छुड़ाता है। लेखक अपनी कहानी के माध्यम से गरीबों के प्रति सहानुभूति जताने
वाले छदम इन्सानों पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगा देता है कि उनकी सहानुभूति मगरमच्छी
आँसू के सिवाय कुछ भी नहीं है। यशपाल की कहानी ‘कुत्ते की पुंछ’
भी कुछ इस तरह की है।
इस वर्ग
की तीसरी कहानी ‘हृदय सिंहासन’ मार्क्सवाद से आगे अस्तित्ववाद की ओर ले
जाती है। कथानक एक प्रश्न के रूप में सामने आता है कि प्यार बड़ा होता है या पेट की
भूख? कहानी की मुख्य पात्र गति नाहक
ओडिशा के कोरापुट जिले को छोडकर गुजरात राज्य के सूरत में दादन मजदूरी के लिए जाता
है, मन से अपनी प्रेमिका को पाने के
सतरंगी सपनें लिए। मगर सूरत में कारखाने बंद होने की कगार पर होते है, इसलिए उसे लौटना पड़ता है खाली हाथ, सिवाय प्रेमिका की कुछ शृंगार सामग्री साथ
लिए। घर लौटकर वह देखता है कि उसकी प्रेमिका के हृदय सिंहासन पर किसी दूसरे आदमी
का राज है, वह दूर हट जाता है। दूसरा प्रेमी
जब पारो से शादी का आग्रह करता
है तो वह
एक कमरे में अपने को निर्वस्त्र कर कहने लगती है,“ठीक से देखो, सूरत भाई मेरी तरफ। ये है कुपोषण
का भार झेलते हुए स्तन, अस्थि-मज्जा रहित शरीर की सारी
हड्डी-पसलियाँ, काली चमड़ी, रूखे बाल।जरा मेरे मुंह के नजदीक आओ, मुंह से पसलिया की दुर्गंध सूंघ पाओगे। ऐसे शरीर को लेकर कोई
सुखी रह सकता है क्या? इस वक्तव्य के माध्यम से लेखक
भारतीय दर्शन में राजा भृतहरी रचित “वैराग्य शतक” की याद दिलाता है। जिसके अनुसार
यह शरीर मलमूत्र का थैला है। अमृत जैसे पेय पीने तथा स्वादिष्टतम खाद्य पदार्थ
खाने पर मूत्र और मल में कन्वर्ट हो जाता है। चेतना स्तर को अगर छोड़ दे तो शरीर एक
कन्वर्टिंग मशीन है। भृर्तहरि वैराग्य लेने से पूर्व अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को
बुलाकर कहता है, “मेरा मन पिंगला पर, पिंगला का मन चौकीदार पर, चौकीदार का मन वैश्या पर और वैश्या का मन
मुझ में। यह अंतहीन तृष्णा है।” ऐसे ही
वाक्य कहानी की पात्र पारो अपने दूसरे प्रेमी से कहती है, “कल मेरा मन गति नाहक पर था, आज तुम्हारे साथ और कल किसी और का नहीं होगा, इस बात की क्या गारंटी है। परिस्थितियों ने
किसी को देवी बना दिया तो किसी को सूर्पनखा। मगर सीता और सूर्पनखा दोनों ही एक ही
सिक्के के दो पहलू है।” जगदीश मोहंती की इस कहानी में एक साथ तीन विचारधाराओं का
अभ्युदय हुआ है। कहीं पर वह दादन मजदूरी दिखाकर मार्क्सवाद पर नजर रखते है तो कहीं
पर निर्वस्त्र पारो को देखकर फ्रायड के प्रभाव में उलझकर रह जाते हैं तो कहीं पर
उनका लेखन ‘प्यार बड़ा या पेट की भूख?” प्रश्न अस्तित्ववाद की चिंगारियाँ फेंकता
है।
3–पाप-पुण्य
की परिभाषा पर प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करती कहानियाँ :-
भारतीय
दर्शन में कर्म और प्रारब्ध के आधार पर पुनर्जन्म, पाप-पुण्य
का आकलन
किया जाता है। किसी के साथ अगर कुछ खराब हो जाता है अथवा वह बीमार हो जाता है तो
अपने पिछले जन्म के बुरे कर्म समझकर मन को तसल्ली देने का प्रयास करता, मगर लेखक इस विचारधारा से सहमत नहीं है।
अपनी कहानी ‘सुंदरतम पाप’ में अपने-अपने घरों से परित्यक्त कुष्ठरोगी
सुनंदा और मैकेनिक पहली ही कुष्ठ रोग को अपने पाप का फल समझती हैं। लेखक पूछना
चाहता है कि क्या चोर, डकैत,लुटेरे,आतंकवादी,ड्रग बेचने वाले पापी नहीं है। ऐसे देखा जाए तो जिंदा रहना ही
पाप है। अन्यथा जीवन भर मांसाहार से दूर रहने वाले ईश्वर का भजन करने वाले क्या
कैंसर जैसी बीमारियों से नहीं मरते ?
धर्मशास्त्रों में कर्म, अकर्म, विकर्म पर आधारित पाप-पुण्य कि सारणी को अगर उलट दिया जाए और
अगर किसी को जीवन जीने के लिए विवशता वश अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन करना भी पड़े तो
क्या वह भी ‘पाप’ की श्रेणी में आएगा?
अगर वह ‘पाप’ है तो लेखक कहता है वह मेरी दृष्टि से सुंदरतम पाप है। लेखक
समाज में पीढ़ियों से प्रचलित आस्थाओं,
पौराणिक परम्पराओं की मान्यता को ठुकराते हुए कहानी के पात्र पहली और सुनंदा
द्वारा जिजीविषा हेतु उठाए गए कदमों की खुलेमन से सराहना करता है। ऐसी कहानिया
भारतीय में अन्यत्र दुर्लभ है।
4.स्वार्थगत
राजनीति और पत्रकारिता के विकृत रूप पर करारा प्रहार:-
लेखक ने
वर्तमान समय की बिगड़ती राजिनीति और छदम पत्रकारिता पर पूरी तरह से कटाक्ष किया है।
जहां ‘कालाहांडी के मानचित्र’ में धन लोलुप पत्रकारों के हथकंडों को
उजागर किया है, वहीं “स्वप्नदर्शी लड़का और प्रधानमंत्री” कहानी में लालफ़ीताशाही, नेतागिरी और स्वार्थगत पत्रकारिता को आड़े
हाथों लिया है। इन कहानियों में समाज के दो यथार्थ पहलुओं शोषक और शोषितों की
पृष्ठभूमि को समेटा गया है। एक तरफ एक गरीब अपने इकलौते बेटे कालिया को जमीन पर
सुलाकर, ‘हाय! मेरा बेटा बीमारी में मर गया’ कहते हुए उसकी अन्त्येष्टि कर्म के बहाने
चिल्ला-चिल्लाकर पैसों की भीख मांगता है,
वहीं दूसरी तरफ भुवनेश्वर में प्रधानमंत्री के दौरे के समय गांवों से भीड़ इकट्ठी
करने के लिए नेताओं द्वारा किए जाने वाले
काले कारनामों, अपना-अपना पद बचाने के लिए
विधायकों द्वारा चापलूसीयुक्त व्यवहार,अखबारों
के संपादकों के हाथों पत्रकारों के कठपुतली बनकर फोटो खींचने व खींचवाने की होड,धक्का-मुक्की,लड़ाई-झगड़े दंगा फसाद के पीछे की राजनीति पर लेखक ने प्रकाश डाला
है।जहां लेखक ने लोकतन्त्र की खामियों को उजागर किया है, वहीं गरीब लोगों की दयनीय अवस्था को प्रकट करने में कोई कसर
नहीं छोड़ी है। प्रधानमंत्री को देखने आई अपार भीड़ में उपद्रव होने की वजह से
स्वप्नदर्शी कालिया की उनके पाँवों के नीचे रौंदे जाने से मृत्यु हो जाती है और
उसका पिता शिरीष पेड़ के नीचे उसकी लाश के पास बैठकर शून्य को झाँकने लगता है, उसे भी एक फोटोग्राफर अपनी कमाई का साधन
मान कर फोटो लेने से नहीं चुकता है तो बताइए फिर इस सभ्य समाज में भी मानवता की
बात कहाँ रह जाती है।
5.अंतरात्मा
की आवाज को तलाशती मनोवैज्ञानिक कहानियाँ:-
जगदीश
मोहंती की मनोवैज्ञानिक कहानियाँ आपके अंतस को स्पर्श करती है। ऐसी कहानियाँ में ‘सोन-मछ्ली’ और ‘स्तब्ध-महारथी’ का विशिष्ट स्थान है। बाल मनोविज्ञान पर
आधारित जिज्ञासु प्रवृत्ति को उजागर करती कहानी ‘सोन-मछ्ली’ उनकी अन्यतम कहानियों में से एक
है। अगर बच्चों के मन की उत्सुकता को शांत नहीं किया जाता तो धीरे-धीरे वह
कुंठाग्रस्त होकर विद्रोही हो जाता है। चाँदीपुर के समुद्र तट पर तरह-तरह के
प्रश्न पूछने वाला जिज्ञासु प्रवृत्ति वाला पुपुन पिता के कहने के बावजूद भी
केंकड़ों के डर से पानी की तरफ नहीं जाता है, क्योंकि उसके मन में
भय घुसा हुआ होता है कि केंकड़े मांसाहारी होते है और उसे खा सकते है। भले
ही,यह भय निराधार क्यों न हो। दूसरी
तरफ पिता के रोकने के बाद भी मन में आए हुए ख्याल सोन-मछ्ली की तलाश में लगातार
गहरे पानी की तरफ बढ़ता चला जाता है,
जबकि पिता ‘चोराबालू’ के डर से रोकना चाहते है। इस तरह मनोवैज्ञानिक धरातल पर लेखक
ने असंख्य सवाल पाठकों के लिए अनुत्तरित छोड़ दिए है।
‘स्तब्ध-महारथी’ कहानी अध्यात्म के पक्षधरों के मन में उठ
रहे अंतर्द्वंद्व की अनोखी प्रस्तुति है। स्वामी शिवानंद की पुस्तक “प्रेक्टिकल
लेसन इन योगा” से प्रभावित होकर कहानी का मुख्य पात्र अरुणाभ उनकी कविता “adopt adjust accommodate,bear
insult,bear injury,this is the highest sadhna” को अपने जीवन जीने का माध्यम बना लेता है।
समस्या तो तब खड़ी होती है, जब उसका मित्र दिव्येंदु उसके पास
रहने के लिए आता है और धीरे-धीरे उसके स्वाभाव का फायदा उठाते हुए उसे सामान समेत
अपने रूम से उठाकर बाहर वाले डाइनिंग रूम में रहने के लिए विवश कर देता है। जब वह
विरोध नहीं कर पाता है तो दिव्येंदु की बदमाशी और बढ़ जाती है। एक बार वह दूसरा
ताला लगातार कहीं चला जाता है तो अरुणाभ को छत पर सोना पड़ता है। शिवानंद का दर्शन
हर समय उसे विरोध करने से रोकता है:- “लौकिक जगत को मिथ्या समझकर ही मनुष्य अपनी
चेतना शक्ति का विस्तार कर सकता है।“ हद तो तब हो जाती है जब दिव्येंदु अपनी किसी
गर्लफ्रेंड को लेकर वहाँ रखना चाहता है और उसे छत पर सोने के लिए कहता है, तब भी वह महारथी चाहकर भी स्तब्ध रहता है।
इस कहानी ने मेरे मन में निम्न सवालों के झंझावात पैदा किया –
1 – क्या
आध्यात्मिक दर्शन किसी आदमी को इस कदर कमजोर कर देता है कि वह चाहकर भी अपने
अधिकारों के लिए संघर्ष करने से रोकता है ?
2 – क्या
शिवानंद और गांधी दर्शन एक ही है?
3 – क्या
भौतिक आवश्यकताओं की अवहेलना करके आध्यात्मिक परकाष्ठाओं को प्राप्त किया जा सकता
है?
4 – ‘मैन टू सुपरमेन’ की परिकल्पना करने वाले महर्षि अरविंद की फिलोसोफी शिवानंद के
एडजस्टमेंट फिलोसोफी का विरोध करती है।
5 –
आधुनिक युग में स्तब्ध महारथी बनकर जीना क्या आत्म-दमन नहीं है। यह कहानी एक
अत्यंत ही सफलतम मनोवैज्ञानिक कहानी है।
कलाशिल्प,भाषा-शैली और कथानक वैविध्यता:-
जगदीश
मोहंती की भाषा का न केवल ओड़िया साहित्य में विशेष स्थान है, वरन उनकी कहानियों की अनूदित भाषा भी
हिन्दी साहित्य में अनोखी पहचान बना चुकी है। बोलचाल की भाषा, दृश्य-श्रव्य बिंब पारंपरिक प्रतीक-विधानों
के रूप में जगदीश मोहंती एक ‘ट्रेंड सेटर’ लेखक है, धारा-प्रवाह भाषा-शैली के साथ-साथ अपनी सूक्ष्म अनुभूतियों के
आधार पर लेखक ने अपने कहानी संसार में व्यापक, विस्तृत और वैविध्यतापूर्व कथानकों का अन्वेषण किया है, स्थूल से सूक्ष्म को तलाशते। जगदीश मोहंती
हिन्दी जगत में भी खासे लोकप्रिय है,
तभी तो बोधि प्रकाशन जयपुर से निकलने वाली पत्रिका ‘उत्पल’ ने उनके निधनोपरांत एक विशेषांक
निकाला था। इस अंक के लिए मैंने ‘जगदीश मोहंती कभी नहीं मरते’ आलेख भी लिखा था, उस समय ‘संवाद’ में आए शोक संदेशों का मैंने अनुवाद भी किया था। जगदीश मोहंती
के साहित्य को विशिष्ट ओड़िया कवि राजेन्द्र किशोर पांडा ने ‘अतुलनीय तेजस्विता का साहित्य’ कहा था तो श्यामा प्रसाद चौधरी ने उन्हें ‘ओडिया कहानियों का ईश्वर’ तक कहा था। इसके अतिरिक्त,अन्य विशिष्ट साहित्यकारों ने उनके कालजयी
साहित्य के प्रति अपनी असीम श्रद्धा के सुमन भी अर्पित किए।
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