1.शतायु लोहिया :: प्रो॰ नन्द चतुर्वेदी
कुछ ही माह पूर्व
जब मैं
उदयपुर गया
हुआ था, प्रोफेसर नन्द
चतुर्वेदी जी से किसी
साहित्यिक काम
हेतु मिलने
के लिए।
मगर उस समय मेरे
पास उनके
न तो मोबाइल नंबर
थे और न ही मुझे उनका
पता मालूम
था। कार
में जाते
समय मेरे
स्मार्ट-फोन
पर गूगल
सर्च-इंजिन
में उनका
नाम लिखने
पर ‘अपनी माटी’ वेब मेगज़ीन
में प्रकाशित एक आलेख
में उनका
संदर्भ दिया
हुआ मिला, जिसके नीचे
लेखक का नाम हिम्मत
सेठ तथा
उनका मोबाइल
नंबर दिया
हुआ था।
हिम्मत जी से फोन
पर बातचीत
करने पर उन्होंने मुझे
अपने पास
भूपालपुरा बुलाया
और कुछ
आत्मीय बातचीत
करने के बाद वे मुझे नंद
चतुर्वेदी के घर ले गए। वार्तालाप के दौरान
मुझे पता
चल गया
था कि कभी हिम्मत
सेठ साहब
हिंदुस्तान जिंक
लिमिटेड में
कभी ट्रेड-यूनियन नेता
हुआ करते
थे और प्रबंधन ने उन्हें समय
के अनुकूल
अपने सिद्धांतों से समझौता
नहीं करने
के कारण
नौकरी से बर्खास्त कर दिया था।
उसके अतिरिक्त, वे बीस-बाईस साल
से असमानता के विरुद्ध समता का आंदोलन को सक्रियता से आगे बढ़ाने
हेतु महावीर
समता संदेश
नामक पत्रिका का सम्पादन कर रहे
हैं। औपचारिक बातचीत के दौरान ही मुझे उनसे
बहुत कुछ
सीखने को मिला। उन्होंने मुझे अपने
प्रकाशन-गृह
की दो पुस्तकें ‘शतायु लोहिया’ तथा डॉ॰
सौभाग्यवती की ‘आधी आबादी
के सवाल’ मुझे पढ़ने
के लिए
दी। ‘शतायु लोहिया’ पुस्तक के सम्पादन-मण्डल
में प्रो॰
नंद चतुर्वेदी, एडवोकेट ईश्वर
चन्द भटनागर, डॉ॰ नरेश
भार्गव, हिम्मत सेठ
तथा डॉ॰
हेमेन्द्र चंडालिया थे। बड़े
दुख की बात है कि इस पुस्तक पर मैंने समीक्षा लिखने में
बहुत देर
कर दी, जिस प्रो॰
नंद चतुर्वेदीजी को मैं
सितंबर में
मिलने गया
था, उस समय
वे एकदम
स्वस्थ दिख
रहे थे और उनका
तीन माह
बाद अर्थात
दिसंबर माह
में अकस्मात देहांत हो गया। काश!
यह काम
मैं पहले
पूरा कर पाता और अगर प्रो॰
चतुर्वेदी जीवित
होते तो उनके विचार-पुंज से प्राप्त आशीर्वाद-स्वरूप ऊर्जावान अणुओं को अपने इर्द-गिर्द पाकर
इस आलेख
में समाहित
कर लेता।
कितनी प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने हमारे साथ
फोटो खींचवाई थी, अपने कुर्ते
के बटन
को ठीक
करते हुए
टेबल पर किताब खोलकर
अपनी डायरी
में कुछ
लिखते समय।
किसे पता
था, इतने जल्दी भगवान
उन्हें हमेशा
के लिए
हमसे छीन
ले जाएगा।
भले ही, वे हमारे
साथ नहीं
है मगर
उनकी वैचारिक ऊर्जा के अजस्र स्रोत
को संपादक, प्रकाशक हिम्मत
सेठ अपनी
स्मृतियों में
समेटे आज विश्व में
उनके दर्शन
को उजागर
करने में
लगे हुए
हैं।
हिम्मत सेठ
साहब तो स्वयं इस पुस्तक के प्रकाशक है और मैं
उन्हें हार्दिक धन्यवाद देना
चाहूँगा कि इस पुस्तक
के माध्यम
से हमारी
परिपक्वता की ओर अग्रसर
पीढ़ी तथा
आने वाली
पीढ़ी को राम मनोहर
लोहिया जैसे
विराट व्यक्तित्व के धनी
को परिचित
करवाने का अत्युत्तम काम
किया। मैंने
अपने छात्र
जीवन में
लोहिया जी के बारे
में सुना
अवश्य था, थोड़ा-बहुत
पढ़ा भी था, मगर
उनके बारे
में इतनी
खास जानकारी मुझे नहीं
थी और न ही मैं उनके
सिद्धांतों से कुछ अवगत
भी था।
उस समय
ऐसे भी भारी-भरकम
शब्द ‘समाजवाद’,
‘साम्यवाद’,
‘पूंजीवाद’,
‘मार्क्सवाद’ आदि मेरे
पल्ले नहीं
पड़ते थे।
ये सारे
शब्द मुझे
हिमालय पर्वत
श्रेणी में
हो रहे
भू-स्खलन
की तरह
प्रतीत होते
थे। अमेरिका में पूंजीवाद, रूस में
साम्यवाद। दोनों
विकास मॉडलों
में त्रुटियां ही त्रुटियां, इसलिए शायद
भारत ने दोनों के बीच का रास्ता अपनाया
और वह था समाजवाद। यह विचारधारा पैदा कहाँ
से हुई
?
इसका खास
हिमायती कौन
था?
‘शतायु लोहिया’ पुस्तक पढ़ने
के बाद
ही पता
चला कि इस विचारधारा के प्रवर्तक थे राम
मनोहर लोहिया। समता और संपन्नता के स्वर मुखरित
करने वाले
लोहिया साहब।
वास्तव में, वह किसी इतिहास
पुरुष से कम नहीं
थे। इस बात की जानकारी इस पुस्तक में
बड़े-बड़े
राजनेताओं, साहित्यकारों, अर्थशास्त्रियों, कवियों, वकीलों तथा
भाषाविदों द्वारा
उनके साथ
गुजरे लम्हों
की स्मृतियों को पन्नों
में उकेरते
हुए प्रस्तुत किया है।
आचार्य दादा
धर्माधिकारी, अशोक मेहता, नंद चतुर्वेदी, ओंकार शरद, डॉ॰ नरेश
भार्गव, लक्ष्मीकांत वर्मा, एडवोकेट कनक
तिवारी, ईश्वर चंद
भटनागर, अनिल त्रिवेदी, रघु ठाकुर, हनुमान प्रसाद
आदि द्वारा
उनके बारे
में अपने
विचार, व्यक्तव्य, संस्मरण तथा
उनके दर्शन
की तत्कालीन और वर्तमान के सापेक्ष में आवश्यकता तथा सार्थकता पर अत्यंत
ही स्मरणीय, पठनीय और विचारोत्तेजक आलेख
प्रस्तुत किए
हैं। यही
नहीं, बड़े-बड़े कवि
भी इस मामले में
पीछे नहीं
रहे। कविवृन्द में नरेश
सक्सेना, रामधारी सिंह
दिनकर, महादेवी वर्मा, सतवीर अग्रवाल, उमाकांत मालवीय, बाल कवि
वैरागी और सर्वेश्वर दयाल
सक्सेना ने उनके स्वतः
स्फूर्त व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उन्हें तरह-तरह की शब्दातीत साहित्यिक उपमाओं से विभूषित किया
है। सिकंदर, पोरस, लौह-पुरुष, चट्टानी इंसान, अनुकरण-अनुसरण
की बैसाखियों से परे
मसीहा, विप्लव कुंवारा, बगावत की प्रबल उद्दीप्त पीढ़ी के जनक, चिनगारी जैसे
पता नहीं
कितने-कितने
विशेषणों का प्रयोग किया
है उनकी
कविताओं में
उनके व्यक्तित्व के चित्रण
के दौरान।
ये सारे
विशेषण इस बात के प्रतीक हैं
कि उनके
व्यक्तित्व में
कितनी खास
विशेषताएँ रही
होगी, जिसकी बदौलत
वह भारत
की विपुल
जनसंख्या के भीतर चिरकाल
के लिए
अपनी अमिट
छाप छोड़
जाने में
सक्षम रहें।
आचार्य धर्माधिकारी के आलेख
‘मूर्ति सप्त
धातु की’ में उनके
तीन प्रतीकों जेल, फावड़ा और वोट की सार्थकता और अपनी शताब्दी के तीन
महान हस्तियों गांधी, जार्ज बर्नाड
शा व आइंस्टीन से प्रभावित होने
का उल्लेख
मिलता है। उनके अनुसार
दुनिया में
पिछले छ सौ सालों
में गांधीजी जैसा दूसरा
कोई महापुरुष पैदा नहीं
हुआ। इसके
अतिरिक्त, लोहिया का दर्शन विश्व-भाषा, विश्व-नागरिकता और विश्व-लोकसभा जैसे
सपनों पर आधारित था।
इसी आलेख
में लोहिया
का एक वक्तव्य हमें
यथार्थ धरातल
पर सोचने
के लिए
विवश कर देता है कि सरकार
में जब भी विपक्ष
संयुक्त गठबंधन
बनाती है तो इसका
सीधा अर्थ
होता है राजनीतिक लूटपाट।
रामधारी सिंह
दिनकर ने अपने संस्मरण में चीनी
आक्रमण से पूर्व सन 1962
में उनके
द्वारा रची
गई व्यंग-कविता ‘एनार्की’ की पंक्तियों –
“तब कहो
लोहिया महान
है, एक ही तो वीर
यहां सीना
रहा तान
है” को दोहराकर न केवल
उनके प्रति
झलकते अपने
प्रेम को दर्शाया है वरन लोहिया
जी के वीर-चरित्र
की विशेषता को भी सामने लाया
है। जिस
क्षुधा का महाभारत में
गांधारी द्वारा
भगवान श्री
कृष्ण को कहे गए श्लोक का वर्णन आता
है:-
वासुदेव, जरा कष्टम्, कष्टम निर्धन
जीवनम्
पुत्रशोक महाकष्टम्, कष्टातिकष्टम् क्षुधा।
उस क्षुधा
को ही लोहिया ने अपना लक्ष्य
बनाया। नंद
चतुर्वेदीजी ने अपने आलेख
‘लोहिया का अवदान’ में उनके
जीवन और कर्म की सबसे प्रामाणिक जानकारी देने
वाली इंदुमति केलकर की पुस्तक ‘लोहिया’ का हवाला
देते हुए
उनके जन्म, मृत्यु,शिक्षा, राजनीति में
प्रवेश, सोशलिस्ट पार्टी
का गठन, हिन्दी को लोकसभा में
दर्जा दिलवाने, नई समाजवादी संस्कृति, सप्त-क्रांति, निराशा के कर्तव्य और वर्तमान विकृतियों पर पाठकों
का ध्यानाकृष्ट किया है।
“.....डॉ॰ राममनोहर लोहिया
का जन्म 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जनपद में (वर्तमान-अम्बेदकर
नगर जनपद)
अकबरपुर
नामक
स्थान में हुआ था। उनके पिताजी श्री हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे
राष्ट्रभक्त थे। ढाई वर्ष की आयु में ही उनकी माताजी (चन्दा देवी) का देहान्त हो
गया। उन्हें दादी के अलावा सरयूदेई, (परिवार की नाईन) ने
पाला। टंडन पाठशाला में चौथी तक पढ़ाई करने के बाद विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल में
दाखिल हुए। उनके पिताजी गाँधीजी के अनुयायी थे। जब वे
गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। इसके कारण
गांधीजी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ। पिताजी के साथ 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में
पहली बार शामिल हुए। बंबई के मारवाड़ी स्कूल में पढ़ाई की। लोकमान्य गंगाधर तिलक की
मृत्यु के दिन विद्यालय के लड़कों के साथ 1920
में
पहली अगस्त को हड़ताल की। गांधी जी की पुकार पर 10 वर्ष की आयु में
स्कूल त्याग दिया। पिताजी को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आंदोलन के चलते सजा
हुई। 1921 में फैजाबाद किसान
आंदोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात हुई। 1924 में प्रतिनिधि के रूप
में कांग्रेस के गया अधिवेशन में शामिल
हुए। 1925 में मैट्रिक की
परीक्षा दी। कक्षा में 61 प्रतिशत नंबर लाकर
प्रथम आए। इंटर की दो वर्ष की पढ़ाई बनारस के काशी विश्वविद्यालय में हुई। कॉलेज के
दिनों से ही खद्दर् पहनना शुरू कर दिया। 1926 में पिताजी के साथ गौहाटी कांग्रेस अधिवेशन में
गए। 1927 में इंटर पास किया
तथा आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता जाकर ताराचंद दत्त
स्ट्रीट पर स्थित पोद्दार छात्र हॉस्टल में रहने लगे। विद्यासागर कॉलेज में दाखिला
लिया। अखिल बंग विद्यार्थी परिषद के सम्मेलन में सुभाषचंद्र बोस के न पहुंचने पर
उन्होंने सम्मेलन की अध्यक्षता की।
1928
में
कलकता में कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए। 1928
से
अखिल भारतीय विद्यार्थी संगठन में सक्रिय हुए। साइमन कमिशन के बहिष्कार के लिए
छात्रों के साथ आंदोलन किया। कलकत्ता में युवकों के सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू
अध्यक्ष तथा सुभाषचंद्र बोस और लोहिया विषय निर्वाचन समिति के सदस्य चुने गए। 1930 में द्वितीय श्रेणी
में बीए की परीक्षा पास की। 1930 जुलाई को लोहिया
अग्रवाल समाज के कोष से पढ़ाई के लिए इंग्लैंड रवाना हुए। वहाँ से
वे बर्लिन गए। विश्वविद्यालय के
नियम के अनुसार उन्होंने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो॰ बर्नर जेम्बार्ट को अपना
प्राध्यापक चुना। 3 महीने में जर्मन भाषा सीखी। 12 मार्च 1930 को गांधी जी ने दाण्डी यात्रा प्रारंभ की। जब नमक
कानून तोड़ा गया तब पुलिस अत्याचार से पीड़ित होकर पिता हीरालाल जी ने लोहिया को
विस्तृत पत्र लिखा। 23 मार्च को लाहौर में भगत सिंह को फांसी दिए जाने के
विरोध में लीग ऑफ नेशन्स की बैठक में बर्लिन
में पहुंचकर सीटी बजाकर दर्शक दीर्घा से विरोध प्रकट किया। सभागृह से उन्हें निकाल
दिया गया। भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे बीकानेर के महाराजा द्वारा
प्रतिनिधित्व किए जाने पर लोहिया ने रूमानिया की प्रतिनिधि को खुली
चिट्ठी लिखकर उसे अखबारों में छपवाकर उसकी कॉपी बैठक में बंटवाई। गांधी इर्विन समझौते का लोहिया ने प्रवासी
भारतीय विद्यार्थियों की संस्था
"मध्य
यूरोप हिन्दुस्तानी संघ" की बैठक में संस्था
के मंत्री के तौर पर समर्थन किया। कम्युनिस्टों ने विरोध किया।
बर्लिन के स्पोटर्स पैलेस में हिटलर का भाषण सुना। 1932 में लोहिया ने
नमक सत्याग्रह विषय पर अपना शोध प्रबंध पूरा कर बर्लिन विश्वविद्यालय
से
डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
1933 में मद्रास
पहुंचे। रास्ते
में सामान
जब्त कर लिया गया।
तब समुद्री जहाज से उतरकर हिन्दु अखबार के दफ्तर पहुंचकर दो लेख
लिखकर 25 रुपया प्राप्त कर कलकत्ता गए। कलकत्ता से बनारस
जाकर मालवीय जी से मुलाकात की। उन्होंने रामेश्वर दास
बिड़ला से मुलाकात कराई
जिन्होंने नौकरी
का प्रस्ताव दिया, लेकिन दो हफ्ते साथ
रहने के बाद लोहिया
ने निजी
सचिव बनने
से इनकार
कर दिया।
तब पिता
जी के मित्र सेठ जमुनालाल बजाज लोहिया को गांधी जी के पास
ले गए तथा उनसे
कहा कि ये लड़का
राजनीति करना
चाहता है।
कुछ दिन तक जमुनालाल बजाज के साथ रहने के बाद
शादी का प्रस्ताव मिलने पर शहर छोड़कर वापस कलकत्ता चले गए। विश्व राजनीति के
आगामी 10 वर्ष विषय पर ढाका विश्वविद्यालय में व्याख्यान देकर
कलकत्ता आने-जाने की राशि जुटाई। पटना में 17 मई 1934 को आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश
के समाजवादी अंजुमन-ए-इस्लामिया हॉल में इकट्ठे हुए, जहां समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय
लिया गया। यहां लोहिया ने समाजवादी आंदोलन की रूपरेखा प्रस्तुत की। पार्टी के
उद्देश्यों में लोहिया ने पूर्ण स्वराज्य का लक्ष्य जोड़ने का संशोधन पेश किया, जिसे अस्वीकार कर
दिया गया। 21-22
अक्टूबर 1934 को बम्बई के बर्लि
स्थित 'रेडिमनी टेरेस' में 150 समाजवादियों ने
इकट्ठा होकर
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की।
लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य चुने गए। कांग्रेस सोशलिस्ट सप्ताहिक
मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए।
गांधी जी के विरोध
में जाकर
उन्होंने कांउसिल प्रवेश का विरोध किया।
गांधी जी ने लोहिया
के लेख
पर दो पत्र लिखे।
1936
के
मेरठ अधिवेशन में
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने कम्युनिस्ट पार्टी
के सदस्यों के लिए
पार्टी का दरवाजा खोल
दिया। लोहिया
बार-बार
कम्युनिस्टों के प्रति सचेत
रहने की चेतावनी जयप्रकाश नारायण जी एवं
अन्य नेताओं
को देते
रहे। 1935 में जवाहर
लाल नेहरू
की अध्यक्षता में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जहां
लोहिया को परराष्ट्र विभाग
का मंत्री
नियुक्त किया
गया जिसके
चलते उन्हें इलाहाबाद आना पड़ा।
1938
में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी
में लोहिया
राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य
चुने गए।
उन्होंने कांग्रेस के परराष्ट्र विभाग के मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
1940
में रामगढ़
कांग्रेस के कम्युनिस्टों को पार्टी से निकालने का निर्णय लिया
गया। 1939 में त्रिपुरी कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस को समाजवादियों ने समर्थन
किया। डॉ॰
लोहिया तटस्थ
बने रहे।
लोहिया ने गांधी जी द्वारा यह कहे जाने
पर की बोस का चुनाव मेरी
शिकस्त है पर प्रस्ताव पेश करते
हुए कहा
कि यह प्रस्ताव गांधी
जी से सम्मानपूर्वक आह्वान
करता है कि उनकी
शिकस्त नहीं
हुई है।
गांधी जी की इच्छानुसार सुभाषचंद्र बोस
कार्यसमिति बनाने
को तैयार
नहीं हुए
तथा नेहरू
सहित अन्य
कांग्रेस के नेताओं ने बोस के साथ कार्यसमिति में रहने
से इंकार
कर दिया
तब बोस
ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया
तथा कांग्रेस से नाता
तोड़ लिया।
लोहिया ने महायुद्ध के समय युद्धभर्ती का विरोध, देशी रियासतों में आंदोलन, ब्रिटिश माल
जहाजों से माल उतारने
व लादने
वाले मजदूरों का संगठन
तथा युद्धकर्ज को मंजूर
तथा अदा
न करने, जैसे चार
सूत्रीय मुद्दों को लेकर
युद्ध विरोधी
प्रचार शुरू
कर दिया।
1939
के मई महीने में
दक्षिण कलकता
की कांग्रेस कमेटी में
युद्ध विरोधी
भाषण करने
पर उन्हें
24
मई को गिरफ्तार किया
गया। कलकत्ता के चीफ
प्रेसीडेन्सी मजिस्टे्रट के सामने
लोहिया ने स्वयं अपने
मुकदमे की पैरवी और बहस की।
14
अगस्त को उन्हें रिहा
कर दिया
गया। 9 अक्टूबर 1939 को कांग्रेस समिति के बैठक वर्धा में हुई
जिसमें लोहिया
ने समझौते
का विरोध
किया। उसी
समय उन्होंने शस्त्रों का नाश हो नामक प्रसिद्ध लेख लिखा।
11
मई 1940 को सुल्तानपुर के जिला
सम्मेलन में
लोहिया ने कांग्रेस से 'सत्याग्रह अभी
नहीं' नामक लेख
लिखा। गांधी
जी ने मूल रूप
में लोहिया
द्वारा दिए
गए चार
सूत्रों को स्वीकार किया।....”
इस पुस्तक
का सबसे
चर्चित आलेख
मेरी नजरों
में उनका
संसद में
दिया गया
भाषण ‘तीन आने
बनाम पंद्रह
आने’ है। उस जमाने में
अर्थशास्त्र के सारे आंकडों
को लेकर
सहज, सरल और सीधी भाषा
में उदाहरण
देते हुए
संसद में
अपना भाषण
प्रस्तुत किया
था, जो आज भी अपने
आप में
एक मिशाल
है। ‘समता और संपन्नता’ और ‘निराशा के कर्तव्य’ राम मनोहर
लोहिया जी के दूरदर्शिता वाले आलेख
हैं, जिसमें यह दर्शाया गया
है कि समाजवाद और मार्क्सवाद के मध्य महीन
अंतर को पाटते हुए
किस तरह
देश को समता के माध्यम से संपन्न बनाया
जा सकता
है। कलमघीसू धंधों की छंटनी, प्राथमिक शिक्षा
का साधारणीकरण, स्व-निर्माण से सर्व
निर्माण, स्वच्छ व स्वस्थ राजनीति, जाति-प्रथा
का उन्मूलन, मशीनी उत्पादन के दुष्परिणाम, बुनियादी शिक्षा, हिन्दी भाषा
के महत्व, अंतर्जातीय विवाह
तथा गरीब
व अमीर
में बढ़ती
खाई आदि
विषयों पर बेबाकी से अपने विचार
प्रस्तुत किए
हैं। लोहिया ही थे जो राजनीति की गंदी गली में भी शुद्ध आचरण की बात करते थे। वे एकमात्र ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपनी पार्टी की सरकार से खुलेआम त्यागपत्र की मांग की, क्योंकि उस सरकार के शासन में आंदोलनकारियों पर गोली चलाई गई थी।
‘लोहिया के बाद लोहिया’ आलेख में
डॉ॰ नरेश
भार्गव बताते
हैं कि बर्लिन विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त डॉ॰ लोहिया
प्राथमिक रूप
से अर्थशास्त्री थे।
सांस्कृतिक पक्ष
में उन्होने द्रोपदी के चरित्र को सराहा। लक्ष्मीकांत वर्मा
ने अपने
आलेख ‘डॉ॰ लोहिया
कि आर्थिक
दृष्टि’ में व्यक्ति और गाँव
को अर्थ-संपन्न और प्रतिभा संपन्न
बनाने हेतु
डॉ॰ लोहिया
के आर्थिक
चिंतन को प्रस्तुत किया
हैं। वह विदेशों में
दौलत, बुद्धि और स्थान के हिसाब से पैदा हो रहे वर्ग-संघर्ष पर मार्क्सवादी सिद्धांतों को प्रासंगिक मानते हुए
भारत में
वर्ग-संघर्ष
के कारण
जाति, संपत्ति और भाषा को मानते थे।
किस तरह
आभिजात्य वर्ग
शूद्रों और स्त्रियों से संस्कृत भाषा
बोलने का अधिकार छिनकर
उन्हे केवल
प्राकृत में
बोलने पर मजबूर करता
है, जिसमें शोषित
और शोषक
का संबंध
साफ झलकता
है। हमारे
देश में
निम्न-वर्ग
के नीचे
एक और वर्ग है, वह है सर्वहारा वर्ग।
जिसके पास
न जाति
है न संपत्ति और न ही भाषा। इस आलेख में
भारतीय समाज
में प्राप्त विषमताओं को मिटाने के लिए डॉ॰
लोहिया के जाति, भूमि, अन्न, आय, मूल्य, राष्ट्रीय-श्रम
और भाषा
संबन्धित नीतियों पर अपने
विचारों का उल्लेख है।
इसके अतिरिक्त, नागरिकों की खर्चे की सीमा तथा
उसके मनोवैज्ञानिक आधार, भूमि का पुनर्वितरण, राष्ट्रीयकरण का महत्व, विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ
नौकरशाही पर नियंत्रण, फिजूल-खर्ची
पर सार्थक
रोक, अनुत्तरदायित्व पर कठोर दंड, श्रमिकों की साझेदारी, प्रतिभा-विकास
के अवसर
प्रदान करने
जैसे विषयों
पर लोहिया
का दृष्टिकोण दिया हुआ
है।
ऐसे ही विचारोत्तेजक संस्मरणात्मक आलेखों
में एडवोकेट कनक तिवारी
के “लोहिया: बुद्धिजीवी का सांस्कृतिक मानस या अतिमानव का विद्रोह” एडवोकेट महेश
कुमार भार्गव
के आलेख
“डॉ॰ लोहिया
धौलपुर में”, एडवोकेट ईश्वर
चंद भटनागर
के आलेख
“डॉ॰ राम
मनोहर लोहिया
व भारत
के न्यायालय” तथा एडवोकेट हरीशंकर गोयल
के आलेख
“समाजवादी मनीषी
डॉ॰ लोहिया
के दौरों
की यादें” में डॉ॰
लोहिया की अंतर्दृष्टि को देखने को मिलेगी। इसी
तरह कुछ
आलेखों में
उनका अनुसरण
करने वाले
अर्थात लोहियावादियों में
कर्पूरी ठाकुर, मधुलिमये तथा
राजनारायण के संस्मरण भी दिए गए हैं। अंत
में, डॉ॰ लोहिया
के रमली, रमा के नाम लिखे
गए पत्र
संकलित है तथा ‘लोहिया ने कहा था’ में उनके
नीति संबन्धित वाक्यों का संकलन किया
गया है।
एक जगह
संपादक ने उनकी जन्म
शताब्दी के अवसर पर भाषा के प्रति लोहिया
जी के विचारों को प्रस्तुत करते
हुए कहा
है कि जब हमारे
देश में
अंग्रेजी खत्म
हो जाएगी, तभी केवल
ईमानदारी कायम
हो सकती
है, अन्यथा नहीं।
इस प्रकार
उन्होंने भाषा
को ईमानदारी और बेईमानी से जुड़ा
सवाल बताया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद
के राजनेताओं में लोहिया
मौलिक विचारक
थे। लोहिया के मन में
भारतीय गणतंत्र को लेकर
ठेठ देसी
सोच थी।
अपने इतिहास, अपनी भाषा
के संदर्भ
में वे कतई पश्चिम
से कोई
सिद्धांत उधार
लेकर व्याख्या करने को राजी नहीं
थे। सन्
1932
में जर्मनी
से पीएचडी
की उपाधि
प्राप्त करने
वाले राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में
देश से अंग्रेजी हटाने
का जो आह्वान किया। अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन की गणना
अब तक के कुछ
इने गिने
आंदोलनों में
की जा सकती है।
उनके लिए
स्वभाषा राजनीति का मुद्दा
नहीं बल्कि
अपने स्वाभिमान का प्रश्न
और लाखों–करोडों को हीन ग्रंथि
से उबरकर
आत्मविश्वास से भर देने
का स्वप्न
था– ‘‘मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण
लोग अपने
अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व
करें। इस सामंती भाषा
को उन्हीं
के लिए
छोड़ दें
जिनके मां-बाप अगर
शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे
हैं।’’
इसी तरह
‘प्रजातन्त्र और समाजवाद’ वाले आलेख
में लोहिया
ने सभी
धर्मावलम्बियों को संकीर्ण भावनाओं से ऊपर
उठकर विशाल
मानव धर्म
अपनाने का आग्रह किया।
वह राम
को मर्यादा, कृष्ण को उन्मुक्ता और शिव को असीम व्यक्तित्व वाला मानते
थे, इसीलिए उन्होंने भारत माता
से प्रार्थना भी की कि हमें
शिव का मस्तिष्क,कृष्ण का हृदय और राम के धर्म और वचन दो। हलांकि लोहिया
भी जर्मनी यानी विदेश
से पढा़ई
कर के आए थे, लेकिन उन्हें
उन प्रतीकों का अहसास
था जिनसे
इस देश
की पहचान
है।
शिवरात्रि पर चित्रकूट में
रामायण मेला
उन्हीं की संकल्पना थी, जो सौभाग्य से अभी
तक अनवरत
चला आ रहा है।
आज भी जब चित्रकूट के उस मेले में
हजारों भूखे
नंगे निर्धन
भारतवासियों की भीड़ स्वयमेव जुटती है तो लगता
है कि ये ही हैं जिनकी
चिंता लोहिया
को थी, लेकिन आज इनकी चिंता
करने के लिए लोहिया
के लोग
कहां हैं?
लेखक हनुमान
प्रसाद ने अपने आलेख
‘9
अगस्त भारत
छोडों और लोहिया’ में लाहौर
किले की अंधेरी तंग
कोठरी में
लोहिया को बंदी बनाकर
उन पर थर्ड डिग्री
की यातनाओं का वर्णन
है। हाथों
में वजनदार
हथकड़ियाँ, बगल में
फांसी-घर, बीच-बीच
में दर्द
भरी चीत्कार, हफ्ते-हफ्ते
उन्हें सोने
नहीं देना, ब्रस,पेस्ट, नीम की दातुन तक नहीं देना
आदि अत्यंत
ही अमानुषिक और क्रूर
व्यवहार अंग्रेजों द्वारा उन पर किए
गए, उनका मनोबल
तोड़ने तथा
विवशतापूर्वक आजादी
के गुप्त
अड्डों की सूचना देने
के लिए।
मगर लोहिया
के राष्ट्र-प्रेम के आगे अंग्रेज़ पूरी तरह
विफल रहे।
लोहिया जी केवल चिन्तक ही नहीं, एक कर्मवीर भी थे। उन्होंने अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक आन्दोलनों का नेतृत्व किया। सन १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन के समय उषा मेहता के साथ मिलकर उन्होंने गुप्त रेडियो स्टेशन चलाया। १८ जून १९४६ को गोआ को पुर्तगालियों के आधिपत्य से मुक्ति दिलाने के लिये उन्होंने आन्दोलन आरम्भ किया। अंग्रेजी को भारत से हटाने के लिये उन्होंने अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन चलाया।
7 जून 1940 को डॉ॰ लोहिया को 11 मई को दोस्तपुर (सुल्तानपुर) में दिए गए भाषण के
कारण गिरफ्तार किया गया। उन्हें कोतवाली में सुल्तानपुर में इलाहाबाद के स्वराज भवन से ले
जाकर हथकड़ी पहनाकर रखा गया। 1 जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून
की धारा 38 के तहत दो साल की
सख्त सजा हुई। सजा सुनाने के बाद उन्हें 12
अगस्त
को बरेली जेल भेज दिया गया। 15 जून 1940 को गांधी जी ने 'हरिजन' में लिखा, कि 'मैं युद्ध को गैर
कानूनी मानता हूं किन्तु युद्ध के खिलाफ मेरे पास कोई योजना नहीं है इस वास्ते मैं
युद्ध से असहमत हूं।' 25
अगस्त
को गांधी जी ने लिखा कि 'लोहिया और दूसरे
कांग्रेस वालों की सजाएं हिन्दुस्तान को बांधने वाली जंजीर को कमजोर बनाने वाले
हथौडे क़े प्रहार हैं। सरकार कांग्रेस को सिविल-नाफरमानी आरंभ करने और आखिरी
प्रहार करने के लिए प्रेरित कर रही है। यद्यपि कांग्रेस उसे उस दिन तक के लिए
स्थगित करना चाहती है जब तक इंग्लैंड मुसीबत में हो।' गांधी जी ने बंबई में
कहा,
कि 'जब तक डॉ॰ राममनोहर
लोहिया जेल में है तब तक मैं खामोश नहीं बैठ सकता, उनसे ज्यादा बहादुर
और सरल आदमी मुझे मालूम नहीं। उन्होंने हिंसा का प्रचार नहीं किया जो कुछ किया है
उनसे उनका सम्मान बढ़ता है।' 4 दिसम्बर 1941 को अचानक लोहिया को
रिहा कर दिया गया तथा देश के अन्य जेलों में बंद कांग्रेस के नेताओं को छोड़ दिया
गया। 19 अप्रैल 1942 को हरिजन में लोहिया
का लेख 'विश्वासघाती जापान या
आत्मसंतुष्ट ब्रिटेन' गांधी जी द्वारा प्रकाशित किया गया।
गांधी जी ने टिप्पणी की कि मेरी उम्मीद है कि सभी संबंधित इसके प्रति ध्यान देंगे।
9 अगस्त १९४२ को जब
गांधी जी व अन्य कांग्रेस के नेता गिरफ्तार कर लिए गए, तब लोहिया ने भूमिगत
रहकर 'भारत छोड़ो आंदोलन' को पूरे देश में
फैलाया। लोहिया, अच्युत पटवर्धन, सादिक अली, पुरूषोत्तम टिकरम दास, मोहनलाल सक्सेना, रामनन्दन मिश्रा, सदाशिव महादेव जोशी, साने गुरूजी, कमलादेवी
चट्टोपाध्याय,
अरूणा
आसिफ अली, सुचेता कृपलानी और पूर्णिमा बनर्जी
आदि नेताओं का केन्द्रीय संचालन मंडल बनाया गया। लोहिया पर नीति निर्धारण कर विचार
देने का कार्यभार सौंपा गया। भूमिगत रहते हुए 'जंग जू आगे बढ़ो, क्रांति की तैयारी
करो,
आजाद
राज्य कैसे बने'
जैसी
पुस्तिकाएं लिखीं।
इस पुस्तक
में डॉ॰
राम मनोहर
लोहिया का तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य
कृपालिनी के नाम अलगाव
तत्त्वों से सावधान रहने
हेतु लिखा
पत्र भी शामिल है, जब 1947 में देश
आजाद होने
वाला था और उस समय सांप्रदायिक शक्तियों सिर
उठा रही
थी। उस समय की तमाम ऐसी घटनाओं और स्थितियों का जिनके प्रति एक आम भारतीय नागरिक के मन में बहुत स्पष्ट और तार्किक व्याख्या नहीं है, लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘गिल्टी मैन एंड इंडियाज पार्टीशन’ (भारत विभाजन के गुनहगार) में परद दर परत रहस्यों को खोला है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि उस समय के पूरे आंखों देखे इतिहास को ही नहीं, बल्कि उसके एक सक्रिय, जीवंत पात्र रहे लोहिया की बातों को आजाद भारत में सत्तारूढ़ दल द्वारा एक विपक्षी नेता की ‘खीझ’ से ज्यादा नहीं समझने दिया गया, जबकि सच्चाई यह है कि सत्ता हस्तांतरण के खेल की असलियत संग्रहालयों में दफन दस्तावेजों से ज्यादा लोहिया जैसे नेताओं को भी मालूम थी जिसे होते हुए उन्होंने अपनी आंखों से देखा था। डॉ राममनोहर लोहिया ने अनेकों विषयों
पर अपने
विचार लेख
एवं पुस्तकों के रूप
में प्रकाशित कीं। उनकी
कुछ रचनाएँ
हैं- ‘अंग्रेजी हटाओ’, ‘इतिहास चक्र’, ‘देश- विदेश,’ ‘नीति-कुछ
पहलू’, ‘धर्म पर एक दृष्टि’, ‘भारतीय शिल्प’, ‘भारत विभाजन
के गुनहगार’, ‘मार्क्सवाद और समाजवाद’, ‘राग’, ‘जिम्मेदारी की भावना’, ‘अनुपात की समझ’, ‘समलक्ष्य’, ‘समबोध’, ‘समदृष्टि’, ‘सच, कर्म, प्रतिकार और चरित्र निर्माण आह्वान’, ‘समाजवादी चिंतन’, ‘संसदीय आचरण’, ‘संपूर्ण और संभव बराबरी
और दूसरे
भाषण’, ‘हिंदू बनाम
हिंदू’। इस तरह यह पुस्तक वैश्विकरण के दौर
में नई पीढ़ी को डॉ॰ राम
मनोहर लोहिया
और उनके
समाजवाद के सिद्धांतों से परिचित करवायेगी। मुझे आशा
है, हिन्दी के पाठक इस पुस्तक से अवश्य लाभान्वित होंगे और देश के विकास में
सदैव तत्पर
रहेंगे।
(पुस्तक:- शतायु
लोहिया/प्रथम संस्कारण:- 2011/
प्रकाशक :- हिम्मत सेठ, महावीर समता
संदेश,उदयपुर(राजस्थान) /
मूल्य:- रुपए
100/-
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