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क्रूसेडर या कोन्स्पिरेटर :: प्रकाश चन्द्र पारख

क्रूसेडर या कोन्स्पिरेटर :: प्रकाश चन्द्र पारख


कुछ दिन पहले मैंने फ्लिपकार्ट से कोल मंत्रालय के भूतपूर्व सचिव पी॰सी॰ पारख की बहुचर्चित पुस्तक "क्रूसेडर ऑर कान्सपिरेटर?" मँगवाई और उसे बार-बार पढ़ा। मुझे ऐसा लगा कि इस किताब को हिन्दी में अनुवाद कर आम-जनता तक पहुंचाना चाहिए, देश के संसदीय लोकतन्त्र की रक्षा के लिए। मैंने इस पुस्तक के प्रकाशक "मानस पब्लिकेशन्स" से इस संदर्भ में बात कर हिन्दी में अनुवाद करने की अनुमति प्राप्त कर यह निश्चय किया कि सर्वप्रथम इस किताब की समीक्षा तैयार कर आपके समक्ष प्रस्तुत करूँ ताकि एक कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार नौकरशाह की जीवनी को समझने के साथ-साथ हम अपनी कंपनी के सीएमडी या चेयरमैन लोगों के ऊपर आने वाले भीतरी व बाहरी दबाव का निष्पक्ष रूप से आकलन कर सकें ।
       समय के सापेक्ष साहित्य बदलता जाता है। कभी परियों की कहानियां, तो कभी राजा-रानी या तिलस्म-कहानियां तो कभी प्रेमचंद की यथार्थवादी सर्वहारा वर्ग की कहानियों का दौर शुरू होता है, समय की मांग के अनुरूप। मगर अब वह समय आ चुका है कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ जीवन भर संघर्ष करते उन विशाल व्यक्तित्वों के भीतर झांकने का प्रयास करें, जो नींव की ईंट बनकर अपने सिद्धांतों से बगैर समझौता किए, आजीवन कष्ट झेलते हुए लोकतन्त्र के इमारत की रक्षा करने में सतत लगे हुए हैं। ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व का नाम है प्रकाश चन्द्र पारख। जिनकी जीवन-गाथा सभी नागरिकों के लिए अनुकरणीय है, जो आपकी अंतरात्मा को सचेतन कर एक अच्छा व सच्चा इंसान बनने की प्रेरणा देती है। श्री प्रकाश चन्द्र पारख का जन्म अड़सठ साल पहले जोधपुर में हुआ था। सन 2005 में कोल-सचिव के पद से वे सेवानिवृत हुए। कोल-सेक्टर में पारदर्शिता लाने के लिए पारख साहब ने अथक प्रयास किया। कोयला बाजार में माफ़ियों का दबदबा कम करने के लिए ई-मार्केटिंग की शुरुआत की। कोल-ब्लॉकों के आवंटन में भी पारदर्शिता लाने के लिए ओपनबिडिंग का प्रस्ताव रखा। पारख साहब ने रुड़की से मास्टर इन एप्लाइड जियोलोजी में गोल्डमेडल प्राप्त किया था। फिर उन्होंने नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन और हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड में काम किया। अपने मित्र एच॰एस॰ मदान के सुझाव पर 1969 में आई॰ए॰एस॰ की परीक्षा दी और उन्हें सफलता मिली। बाद में यू॰के॰ के बाथ विश्वविद्यालय से फिस्कल स्टडीज़ में मास्टर डिग्री प्राप्त की। नौकरी का अधिकांश समय अपने पेरेंट केडर-आंध्र-प्रदेश के उद्योग मंत्रालय में व्यतीत हुआ और उन्होंने आंध्रप्रदेश को निवेश के हिसाब से उपयुक्त स्थान बनाने का भरसक प्रयास किया ।
       कौन नहीं चाहता है अपने जीवन में आई॰ए॰एस॰ बनना! हर किसी प्रतिभाशाली विद्यार्थी का एक मनोरम ख्वाब होता है आई॰ए॰एस॰ बनने का। आप अपने बचपन, किशोरावस्था या युवावस्था के दिनों को झांक कर देखें तो कहीं न कहीं सुषुप्तावस्था में आपके अंदर इस सुनहरे ख्वाब को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से पल्लवित होते हुए पाओगे। मेरा बचपन राजस्थान के सिरोही जिले में बीता और मेरे पिताजी सिरोही जिला-कोषालय में अपर डिवीजन क्लर्क थे। यह कार्यालय सिरोही के महाराजा स्वरूप सिंहजी के कभी निवास-स्थान रहे सरूपविलासमें स्थित था और उसी सरूपविलासमें कलेक्ट्रेट भी था। कभी-कभी किसी काम से मुझे अपने पिताजी को मिलने उनके ऑफिस जाना पड़ता था, तो कलेक्टर का राजशाही ऑफिस को देखकर लगता था कि सिरोही का कलेक्टर किसी भी मायने में सिरोही के राजा से कम नहीं है। पारंपरिक राजस्थानी वेशभूषा व चूँदड़ी का साफा पहने बड़ी-बड़ी मूंछों वाले दरबान को उनके ऑफिस के बाहर खड़ा देखकर उनके राजसी ठाटबाट का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। यही नहीं, ऑफिस के बरामदे में जैसे ही कलेक्टर की लाल-बत्ती वाली एम्बेसेडर कार पहुंचती, तो वह बड़ी-बड़ी मूंछों वाला वह दरबान सैल्यूट मारकर दौड़कर जाता था उस कार के पास। कार का दरवाजा खोलकर अपने साहब की अटैची उठाता और उन्हें एस्कॉर्ट करते हुए अपने रूम की ओर ले जाता, यह दृश्य राजपूताना (वर्तमान राजस्थान) के किसी राज-घराने या किसी राजसी आभिजात्य-वर्ग की याद दिलाता था।
       जब मैंने सन 1987 में जोधपुर की मगनीराम बागंड मेमोरियल आभियांत्रिकी महाविद्यालय में प्रवेश लिया था, तो पास ही बने कलेक्टर के रेजीडेन्स तथा तत्कालीन राजस्थान के हाई-कोर्ट के परिसर में बने कलेक्टर-ऑफिस देखकर मैं अभिभूत हो जाता था और सपनों की दुनिया में खो जाता था कि अगर जीवन में नौकरी करनी है तो आई॰ए॰एस॰ की करनी चाहिए अन्यथा नहीं। एक सम्मोहन-सा लगता था!
       और संयोग ही देखिए, हमारी इंजीनियरिंग कॉलेज के 1992 बैच के इलेक्ट्रानिक संकाय में टॉपर रहे अश्विनी वैष्णव ने पूरे भारत में आई॰ए॰एस॰ परीक्षा में 32 वी रैंक प्राप्त कर ओड़िशा कैडर में नौकरी ज्वाइन की। और मेरे जैसे खनन संकाय वालों के लिए तो आई॰ए॰एस॰ के बारे में सोचना भी बड़ी बात होती थी। पारख साहब जैसे बहुत ही कम बिरले विद्यार्थी होते हैं, जो ज्योलोजी जैसे कठिन विषय का अध्ययन करने के बावजूद आई॰ए॰एस॰ परीक्षा अच्छी रैंक से उतीर्ण कर पाते हैं।
       माइनिंग में इंजीनियरिंग करने के बाद मैंने सन 1993 में महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड की ब्रजराजनगर स्थित ओड़िशा की सबसे पुरानी भूमिगत कोयला खदान हिंगर रामपुर कोलियरी में प्रबंध-प्रशिक्षु के रूप में अपना व्यवसायिक कैरियर शुरू किया । मुझे पता नहीं था कि अश्विनी के कैरियर का शुभारंभ सुंदरगढ़ के सब-कलेक्टर के रूप में हुआ। सुंदरगढ़ ब्रजराजनगर से महज  साठ-सत्तर किलोमीटर दूर था, मगर मुझे अश्विनी को खोजने में सात साल लगे। कॉलेज छोड़ने के बाद सब अपने-अपने कार्यों में व्यस्त, अपने-अपने नए जीवन का शुरुआती दौर, शादी-ब्याह और तो और उस जमाने में इन्टरनेट, फेसबुक और मोबाइल भी नहीं थे। आज तो पालक झपकते ही, “गूगलजैसे सर्च इंजिन से किसी भी भूले-बिसरे दोस्तों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। यह भी एक विचित्र संयोग था, जब में पारादीप में आयोजित बालि-यात्राहमारी कंपनी की ओर लगाई जाने वाली एक स्टॉल का प्रभारी बनकर गया हुआ था। वहाँ खाने-पीने की एक स्टॉल पर नाश्ता करते समय मेरा ध्यान ओड़िया अखबार के पहले पेज पर छपे एक फोटो की तरफ गया। उस समय मुझे ओड़िया-लिपि पढ़ना नहीं आता था, मगर वह फोटो मुझे बरबस आकर्षित कर रहा था। ऐसा लग रहा था, अवश्य किसी न किसी दोस्त का होगा। मगर मन मानने से इंकार कर रहा था, राजस्थान से बाईस सौ किलोमीटर दूर यहाँ मेरा कोई दोस्त क्यों आएगा। फिर भी मैंने वह अखबार लेकर अपने एक ओड़िया दोस्त से पढ़ने का आग्रह किया तो जानकर आश्चर्य-चकित रह गयावह फोटो कटक के कलेक्टर अश्विनी वैष्णव का था। कॉलेज के फर्स्ट ईयर मेँ जब इंजीनियरिंग के सारे संकाय के स्टूडेंट एक साथ बैठते थे, एल्फाबेट के अनुसार अश्विनी हमारे ग्रुप में आता था, आगे-पीछे बेंच पर बैठने के बाद भी आज ऐसा लग रहा था कि यह फोटो किसी दूसरे अश्विनी का तो नहीं है। मैंने फिर से ध्यान-पूर्वक उस खबर को पढ़ने के लिए कहा। उसने विस्तार से बता दिया कि वकीलों के 'छालघर' तुड़वाने का आदेश देने के कारण अश्विनी के खिलाफ वे कटक मेँ नारेबाजी व आंदोलन कर रहे हैं। बाद मेँ, इधर-उधर से जानकारी मिली कि अश्विनी अत्यंत ही ईमानदार व कुशल प्रशासक है। यहां तक कि वह किसी भी भवन मेँ उदघाटन या शिलान्यास के दौरान कभी भी अपना नाम लिखवाना तक पसंद नहीं करता था। मेरे कटक के कई दोस्तों ने भी अश्विनी की बहुत तारीफ की। अंत में,मैंने अश्विनी से मिलने का तय किया। पूछ-ताछ करने पर पता चला कि कटक के भीड़-भाड़ वाले इलाके बक्सी बाजार के अंतिम छोर पर उसका रेजीडेन्स ऑफिस है। जब मैं मिलने उनके घर गया और कागज की एक चिट पर अपना व एम॰बी॰एम॰ इंजीनियरिंग कॉलेज का नाम लिख कर भेजा तो तुरंत ही अश्विनी ने मुझे भीतर बुला दिया। सात-आठ साल के दीर्घ अंतराल मेँ चेहरे काफी बदल जाते हैं, किन्तु अश्विनी के चेहरे पर कोई खास बदलाव नहीं था। वही भोला-भाला मासूम चेहरा, दोनों कनपटियों के पास गहरे बालों मेँ कुछ-कुछ सफ़ेद बाल नजर आने लगे थे, जो उनके चेहरे की गंभीरता को और ज्यादा मुखर कर रहा था। वह फर्राटेदार ओड़िया भाषा मेँ अपने सामने बैठे अधिकारियों को निर्देश दे रहे थे।
       मुझे पहचाने मेँ उन्हें थोड़ा वक्त जरूर लगा,लेकिन जैसे ही पता चला तो अपनी कुर्सी से उठकर वह गले मिले। उसके बाद चाय-पानी, नाश्ता और कॉलेज के जमाने की इधर-उधर की बातें। मुझे याद हैं कि वह रेसर सायकिल पर बैठकर रिक्तिया भैरुजी चौराहा के नजदीक बने मैदान मेँ बेडमिंटन खेलने जाता था। ब्रजराजनगर लौटने के कुछ महीनों के बाद फोन पर बातचीत के दौरान अश्विनी ने बताया कि वह प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ज्वाइन करने जल्दी ही दिल्ली जा रहा है। दिल्ली जाने के बाद भी एकाध साल तक मैं उनके संपर्क मेँ रहा, उसके बाद पारख साहब की किताब ने फिर से उनकी स्मृतियों को तरोताजा कर दिया। अश्विनी का इस भूमिका में जिक्र करने का तात्पर्य था, पारख साहब के जीवन में अश्विनी को तलाश करना। दोनों जोधपुर के थे और दोनों ही गोल्ड-मेडलिस्ट थे। बातचीत के दौरान एक बार अश्विनी ने कहा था, “ध्यान से काम करना। दुश्मनी किसी से मत लेना। तुम्हारे कोल इंडिया मेँ माफिया लोग मारकर कन्वेयर बेल्ट मेँ फेंक देते हैं।शायद उन्होंने ऐसी कोई बात सुन रखी हो, जब वह सुन्दरगढ़ में उप-जिलापाल थे। मैंने उत्तर दिया था ऐसी डरने की कोई बात नहीं है। आपस में ठेकेदारों में अनबन होने पर कभी-कभी गोलीबाजी की छुटपुट घटनाएँ अवश्य होती है और वे भी ठेके पाने की प्रतिस्पर्धा में। अन्यथा ओड़िशा बहुत ही शांत जगह है।
       पारख साहब की यह पुस्तक पढ़ने के बाद, पता नहीं क्यों लगने लगा कि जिस तरह से ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और कर्तव्यपरायणता के कारण पारख साहब को आजीवन अपने पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिवों से विचार-मतभेदों के कारण तनाव व दबाव झेलना पड़ा, उसी तरह क्या अश्विनी वैष्णव लोकतंत्र के बदलते परिवेश मेँ किसी गुत्थी का शिकार तो नहीं हुआ होगा। पारख साहब की यह पुस्तक न केवल वर्तमान भारतीय लोकतंत्र के मुखौटे को आईने मेँ दिखा रही है, वरन आने वाली पीढ़ी को समय रहते सचेत होने की प्रेरणा भी प्रदान करती है ।
       इस पुस्तक मेँ तीन भाग है तथा इक्कीस अध्याय। पहला आन्ध्रप्रदेश सरकार मेँ पारख साहब के अनुभव, दूसराकेंद्र सरकार के कोलमंत्रालय मेँ उनके अनुभव और तीसरे भाग मेँ भारतीय सिविल सर्विस को विश्व-स्तर पर उत्कृष्ट बनाने के लिए दिए अमूल्य सुझाव। इसके अतिरिक्त इस पुस्तक में बहुत-सारी परिशिष्ट भी जोड़ी गई है, जो इन सारी घटनाओं की विश्वसनीयता की पुष्टि करने के साथ-साथ उस समय के वातावरण का संकेत करती हैं, जिसमें वे निर्णय लिए जा सके ।
       पहले अध्याय मेँ पारख साहब ने सन 1969 मेँ आई॰ए॰एस॰ परीक्षा पास करने के उपरांत एन॰एम॰डी॰सी॰ की जियोलोजिस्ट की नौकरी छोड़कर राजस्थान से बिलकुल पृथक सांस्कृतिक, भाषायी व राजनैतिक परिवेश वाले राज्य आंध्र प्रदेश में अपने प्रशासनिक जीवन की शुरुआत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि प्रोटोकॉल के अनुसार जब उनकी मुलाक़ात मुख्यमंत्री से होती है और उस पहली मुलाक़ात मेँ मुख्यमंत्री का यह वक्तव्य- मेरे घर के दरवाजे आप लोगों के लिए चौबीस घंटे खुले हैं, जब भी किसी भी प्रकार की तकलीफ हो, बेहिचक आप मेरे पास आ सकते है’‌‌-- उनका यह आश्वासन नए आई॰ए॰एस॰ प्रशिक्षुओं के लिए उत्साहवर्धक था। मगर उन्हें क्या पता था कि कोई जरूरी नहीं है कि दूसरा मुख्यमंत्री उनके कष्टों को सुनने या निवारण करने के लिए अपने घर के दरवाजे खोलेगा ।
       दूसरे अध्याय मेँ आसिफाबाद मेँ सब-कलेक्टर के रूप मेँ ज्वाइन करने के बाद उनके भ्रष्टाचार की छोटी-मोटी घटनाओं से आमना-सामना होने का उल्लेख है। उदाहरण के तौर पर, उनकी तहसील मेँ कलेक्टर के भ्रमण के दौरान उनके मना करने के बावजूद खाने-पीने मेँ तरह-तरह के व्यंजन व मांसाहार परोस कर किया गया ज्यादा खर्च। कलेक्टर ने तो यह सब करने के लिए मना किया था, मगर फिर ऐसा क्यों किया गया? पैसा आया कहां से? यह सोचकर पारख साहब का संस्कारित मन विद्रोह कर बैठता है, पूछ-ताछ करने पर उन्हें जवाब मिलता हैअभी आप नएनए है, इन चीजों का आपको आइडिया नहीं है, सब-कुछ कलेक्टर को पूछ कर ही भोजन तैयार किया गया है। यहीं से आरंभ होता हैएक कलेक्टर के दो मुखौटे वाले जीवन को जानने का प्रयास। एक चेहरा उन्हें मना करता है, उसी चेहरे पर लगा दूसरा मुखौटा इस कार्य की इजाजत देता है। एक अंतर्द्वंद्व। ऐसा ही एक दूसरा उदाहरण श्री आर॰के॰गोनेला जैसे ईमानदार कलेक्टर के न चाहने पर भी रेवेन्यू बोर्ड के मेम्बर के दौरान खाने-पीने का वैसा ही तहसीलदार द्वारा वी॰आई॰पी॰ ट्रीटमेंट करना। इस बार पूछताछ मेँ उत्तर मिलता है, कलेक्टर साहब नए है। उन्हें पता नहीं है कि अगर ऐसा प्रबंध नहीं किया जाता तो रेवन्यू बोर्ड की यह बैठक देर रात तक चलती और तो और, उस मीटिंग मेँ तरह-तरह की खामियाँ निकाली जाती। बेहतर यही है कि इस झंझट से मुक्ति पाने के लिए बड़े अधिकारियों के मनमुताबिक खाने- पीने की व्यवस्था कर दी जाए। यह व्यवस्था आज से चल रही है, ऐसी बात नहीं है। इस संबंध में पारख साहब लिखते है:-
देश आजाद होने से पहले से यह चला आ रहा है। हर कोई जानता है और इतने साल बीतने के बाद भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। किसी ने इस सिस्टम के बारे में कोई सवाल नहीं पूछा और हम सभी कलेक्टर इस चीज के आदि हो जाते है।
       इस संबंध में मुझे पहले की एक बात याद हो आई। जब मुझे सिरोही के सेवानिवृत्त जिला वन अधिकारी स्व॰ प्रताप सिंह जी राठौड़ से उनके घर पर मुलाक़ात करने का एक अवसर प्राप्त हुआ था। बातचीत के दौरान बढ़ते भ्रष्टाचार के कारणों के बारे में उन्होंने उस समय एक उदाहरण दिया था, वह आज भी मेरे मानस-पटल पर तरोताजा है।
                “....जिस तरह किसी स्प्रिंग को पूरी तरह से दबाकर छोड़ दिया जाता है तो वह एक ही झटके में अपनी प्रत्यास्थता के कारण दोनों हथेलियों को झटकते-छिटकते दूर फेंकी जाती है। हमारे देश की भी वर्तमान अवस्था यही है। पाँच सौ साल से विदेशी आंक्राताओं की गुलामी झेलते-झेलते पूरी तरह से दब चुका था। किन्तु जैसे ही देश को आजादी मिली सारा देश बिखर गया। जिसको जहां अवसर मिला, वह उसे लूटनेखसोटने में लग गया।....
       इस उदाहरण के माध्यम से स्वर्गीय प्रताप सिंहजी राठौड़ ने सरकारी विभागों में व्याप्त हो रहे भ्रष्टाचार पर अपनी चिंता व्यक्त की थी कि देश का भविष्य क्या होगा? एक ईमानदार अधिकारी इससे ज्यादा कर भी क्या सकता था। सिवाय चिंता के? पारख साहब ने लिखा कि तहसीलदारों द्वारा अवैध ढंग से अर्जित की  गई धन-राशि के आधार पर कलेक्टर और दूसरे वी॰आई॰पी॰ नेताओं तथा उनके समर्थकों के खाने-पीने के इंतजाम करने से शुरू हो जाती है भ्रष्टाचार की नेट-वर्किंग। अगर यह भोजन व्यवस्था ऑफिसियल कर दी जाए तो कुछ हद तक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है।
       एक अन्य उदाहरण देते हुए पारख साहब लिखते है कि उनके ऑफिस में भी खुचरा-भ्रष्टाचार चल रहा था, जिससे वे अनभिज्ञ थे। दिया तले अंधरेवाली उक्ति चरितार्थ हो रही थी। किसी आदमी के बंदूक रखने के लिए सरकारी लाइसेंस को उनके द्वारा अनुमोदित होने के बावजूद उसे ऑफिस के एक टाइपिस्ट ने पन्द्रह दिन तक दबा दिया। दबाने के कारण था, उस लाइसेंस के एवज में मिलने वाली सौ रूपए के रिश्वत की बंदरबाँट में असमानता। हेड-क्लर्क, डीलिंग-क्लर्क, टाइपिस्ट और चपरासी में समान रूप से बँटवारे के लिए पारस्परिक सहमति नहीं बन पा रही थी। जिसकी वजह से आगे जाकर भ्रष्टाचार उजागर हुआ। यह था एक नमूना, संस्थागत भ्रष्टाचार का। जब तक इस शृंखला में जुड़े लोग एक दूसरे से स्वार्थवश पृथक नहीं होंगे, यह शृंखला अनवरत बिना किसी रोकटोक के रिंगा-रिंगा-रोजेज़की तरह चलती रहेगी।
       अपने यायावरी जिंदगी में तरह-तरह के खट्टे-मीठे अनुभव मिलते रहें पारख साहब को। ऐसा ही एक अनुभव- सन 1975 में उनके डिप्टी कमिशनर (कॉमर्शियल टैक्सेज़) के पीरियड के दौरान। कॉमर्शियल टैक्सेज़: दूधारू गायवाले अध्याय में उन्होंने आंध्रप्रदेश व तमिलनाडु की सीमाओं से चित्तूर की चेक-पोस्टों से संबन्धित अपने अनुभवों को दर्शाया है। दोनों राज्यों के टेक्स में भारी अंतर होने के कारण पांडिचेरी (तमिलनाडु) शराब की चित्तुर (आंध्रप्रदेश) में स्मगलिंग होने लगी। जब पारख साहब ने चित्तुर के चेक-पोस्ट के रिकॉर्ड के आधार पर पांडिचेरी के अवैध शराब विक्रेताओं पर कार्रवाई करना शुरू किया तो वे लोग मद्रास उच्च न्यायालय से स्टे ले आए। पारख साहब के अथक प्रयासों के बाद वह स्टे उठा लिया गया तो फिर से उन विक्रेताओं ने डबल-बेंच से स्टे ले लिया। पारख साहब के वहां आठ साल के लंबे कार्यकाल के दौरान जो नहीं हटाया जा सका। कहने का अर्थ यह है कि किसी भी अवैध काम को रोकना आजकल के जमाने में इतना सहज नहीं रह गया है।
       इसी अध्याय में वे एक दूसरा उदाहरण टैक्स-चोरीका देते हैं, दाल-दलहनों तथा परचूनी सामान के विक्रेता जिसे विशेषकर करते है। गहरी छान-बीन के बाद जब वे इस बारे में कुछ व्यापारियों को नोटिस इशू करते हैं तो किमतेनामक एक बुजुर्ग व्यापारी उनके पास आकर तर्कसंगत तरीके से समझाने लगता है कि आज के जमाने में अनाज का व्यापार ईमानदारी पूर्वक करना असंभव है। उसके तर्क इस तरह रहते हैं :-
“वह एक थोक-विक्रेता है और प्रति बैग दो रुपये का मुनाफा रहता है जबकि प्रत्येक बैग पर बीस रुपये  का सेल टैक्स लगता है। जब तक हर आदमी कानून के हिसाब से व्यापार नहीं करता है तो किसी अकेले व्यक्ति विशेष के लिए पूरा टैक्स अदा कर व्यापार से रहना संभव नहीं है।
उसने और आगे कहा,सरकार को जो टैक्स अदा नहीं किया जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह अपने आप व्यापारी के लिए मुनाफे में बदल जाएगा। अधिकतर ग्राहक बिल में लिखे गए मूल्य से कम कीमत का भुगतान करते हैं और टैक्स अदा करते है। टैक्स चोरी का कुछ हिस्सा सेल-टैक्स, इन्कम-टैक्स, सिविल सप्लाई, म्यूनसिपल कार्पोरेशन, पुलिस आदि के अधिकारियों को रिश्वत देने में खर्च हो जाता है, अगर उनकी मांग पूरी नहीं की जाती है तो वे लोग सामान्य चीज को भी जटिल बना देते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ गुंडा लोग और राजनेताओं को भी खुश रखना पड़ता है। सरकार के पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे वे व्यापार को इन लोगों से बचा सके। एक व्यापारी लागातार इन तत्वों से लड़ाई करते हुए व्यापार में अपना अस्तित्व बचाए रख सकता है? इसका आसान और शायद एक ही विकल्प है सिस्टम के साथ व्यापारी का समझौता करना और अपने फायदे के लिए इसका उपयोग करना।”
       ये तर्क पारख साहब के मन में झंझावात पैदा करते हैं और वे चौगुनी पेनल्टी न काटकर सामान्य टैक्स भुगतान करने के लिए कहते हैं। पारख साहब के हृदय का यह दया भाव मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत ओड़िया लेखक स्व॰ गोपीनाथ मोहंती की कालजयी कहानी चींटीके कथानक की ओर आकृष्ट करने लगता है। जिसमें ओड़िशा राज्य का एक युवा प्रशासनिक अधिकारी ओड़िशा के सीमावर्ती कोरापुट जिले से आंध्रप्रदेश में हो रही चावलों की तस्करी को रोकने का दृढ़-संकल्प लेता है, मगर जब वह कोरापुट की पहाड़ियों पर चींटियों के तरह पंक्तिबद्ध आदिवासियों को चावलों के बोरे ढोते देखता है और पीछा करते हुए जब वह उनके घर-बाड़ी की ओर जाता है तो वहां की बीमार लोगों को देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है और किसी को भी गिरफ्तार किए बिना घर लौट आता है।
       कहानी के मुख्य-पात्र की तरह पारख साहब के व्यक्तित्व में ईमानदारी व निडरता के अतिरिक्त  दीन-दुखी व कमजोर वर्ग के प्रति दया की भावना भी कूट-कूट कर भरी हुई है,सेवानिवृति के बाद आजकल वे भगवान महावीर विकलांग सेवा समिति से जुडे हुए है, जो आंध्रप्रदेश में प्रसिद्ध जयपुर पाँव जैसे कृत्रिम अंग वितरित करती है। और उसके अलावा दूसरी गैर सरकारी संस्थान भगवान महावीर रिलीफ़ फाउंडेशन ट्रस्ट से भी जुडे है, जो गरीब किडनी रोगियों को डायलाइसिस की सुविधा उपलब्ध करवाती है। अगर चाहते तो, वे किसी अच्छी कंपनी के एड्वाइजर या सी॰ई॰ओ॰ आसानी से बन सकते थे, मगर उन्होंने दीन-दुखियों की सेवा करने की बीड़ा सपरिवार उठाया। इतना ही नहीं, अपनी इस बहुचर्चित किताब से मिलने वाली रॉयल्टी तक को हाथ न लगाकर इस संस्थान तथा ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल को समर्पित कर उदारता का एक और परिचय दिया।
       चौथे अध्याय सिविल सप्लाइज़:- तेल का मामलामें केंद्र सरकार द्वारा आंध्रप्रदेश की पाँच हजार लीटर रेपसीड तेल आवंटित करने के मामले के वर्णन है। इस तेल की आंध्रप्रदेश में कोई खपत नहीं थी, फिर भी कुछ तेल मिलों के मालिक पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम के अंतर्गत इसका आवंटन मांगने आए। इस हेतु जब पारख साहब ने तत्कालीन कमिश्नर श्री॰पी॰सीतापथी को एक नोट लिखा, मगर उन्होंने न तो इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और न ही खारिज। घटना-क्रम बदल जाता है, जब कमिश्नर टूर पर होते हैं और चीफ-मिनिस्टर के सेक्रेटरी का तेल आवंटन में देरी होने का कारण जानने के लिए पारख साहब के पास फोन आता है और उससे संबन्धित वह फाइल मंगवाई जाती है। उस फाइल में चीफ मिनिस्टर के तीन चहेते मिलमालिकों का नाम लिखकर वह कहते हैं,  “मैं चीफ मिनिस्टर का सेक्रेटरी हूँ, न कि सरकार का। मैं वही लिखूंगा, जो चीफ मिनिस्टर चाहते है।
       एक टॉप ब्यूरोक्रेट की मानसिक गुलामी को प्रदर्शित करने वाला यह कथन एक सच्चे लोकतंत्र के लिए घातक है। भले ही, कमिश्नर ईमानदार आदमी थे, मगर एक मुख्यमंत्री से टकराना उनके बस की बात नहीं थी। उन्होंने तुरंत ही उस आदेश को पारित कर दिया, मगर दूसरे आवेदक हाईकोर्ट से स्टे ले आए। उस अवस्था में सारे मिल-मालिक प्रो राटा बेसिस पर तेल लेने के लिए तैयार हो गए। उसका कारण बाद में पता चला कि पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम के तहत आंध्र-प्रदेश में उस तेल की कीमत 6000 रुपए थी, मगर कोलकाता में वही तेल 13000 रुपए प्रति टन के हिसाब से बिकता था। आंध्रप्रदेश में इस तेल की खपत नहीं होने के कारण विशाखापट्टनम बंदरगाह से प॰ बंगाल के लिए इस तेल की ब्लैकमार्केटिंग की जाती थी। तेल मालिकों द्वारा हाई-कोर्ट से याचिका विदड्रा करने के बाद पारख साहब ने उसके आवंटन में अपनी तरफ से एक शर्त रख दी कि इस तेल की कीमत और मिल परिसर में तेल की मात्रा की जांच जिला वितरण अधिकारी करेंगे। यह शर्त लगाने के कारण मिल मालिक खुले बाजार में तेल बिक्री की अनुमति चाहने लगे। जिसके पीछे राज था, ज्यादा समय तक स्टोर करने के कारण रेपसीड तेल जल्दी खराब हो जाता था। आनाकानी करने के कारण कमिश्नर सीतापथी का ट्रांसफर कर दिया गया और अपने चहेते कमिश्नर ने आते ही उस प्रस्ताव पर सबसे पहले अपने हस्ताक्षर कर दिए। जबकि जनहित में यह होता कि कमिश्नर उसे आंध्रप्रदेश सिविल सप्लाई कार्पोरेशन को सुपुर्द कर आक्शन पर बेचता। जब इस घटना का पर्दाफाश होता है तो पता चलता है कि आवंटन पाने और खुले बाजार में बेचने की दोनों क्रियाओं में लाखों रुपए की रिश्वत चली ।
       पांचवे अध्याय में पारख साहब के सन 1980 में करनूल के कलेक्टर एवं डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेटके पोस्टिंग के समय की घटनाओं का उल्लेख है। उस समय कांग्रेस के श्री टी॰अंजईया मुख्यमंत्री हुआ करते थे। करनूल जिले से तीन राजस्व,कानून और लघु सिंचाई विभाग के कांग्रेस पार्टी के तीन कैबिनेट मंत्री थे। करनूल में एक बार अकाल पड़ने के दौरान पारख साहब ने कलेक्टर की हैसियत से प्रोटोकोल के अनुरूप राजस्व मंत्री की अगुआई करते हैं। कुछ दिनों बाद फिर से करनूल में कानून-मंत्री का दौरा होता है तो पारख साहब खुद नहीं जाकर उनकी अगुआई करने के लिए अपने तहसीलदार को भेज देते है। इस वजह से मंत्रीजी का ईगोहर्ट हो जाता है। यहीं से  शुरू हो जाती है उनके खिलाफ मंत्रीजी के मन में प्रतिशोध लेने की भावना। एक बार जब मंत्रीजी का कोई रिश्तेदार अधिकारी चावलों की धांधली में पकड़ा जाता है तो पारख साहब उस पर एक्शन लेने के लिए सरकार के पास रिपोर्ट भेज देते है। मंत्रीजी उसे बचाने के लिए एडी-चोटी का ज़ोर लगा देते है। इस वजह से उसका कुछ नहीं बिगड़ता है, केवल ट्रांसफर हो जाता है। इस वजह से संबंध और ज्यादा बिगड़ने लगते है। जिसका असर दिखाई देता है, जब पारख साहब ने किसी शुगर मिल के उदघाटन के लिए मुख्यमंत्री को अपने स्तर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया। मंत्रीजी बुरी तरह से पारख साहब पर बिफर पड़े और कहने लगे, “मुझे पूछे बिना मंत्रीजी को आमंत्रित कैसे कर लिया आपने ?” बात यही खत्म नहीं होती है। मंत्रीजी पारख साहब पर चोरी करने के निराधार आरोप लगाना शुरू कर देते हैं और वह यहाँ तक कह देते हैं कि किसी ब्लॉक डेवलपमेंट अधिकारी ने हैदराबाद में उनका मकान बनाने हेतु सीमेंट भेजा है। जब मंत्री पारख साहब के प्रति अपनी नाराजगी शुगर मिल के उदघाटन के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री के सामने प्रकट करता है तो मुख्यमंत्री पारख साहब को बुलाकर उसका कारण जानने की कोशिश करते हैं। सारी बातें साफ हो जाने पर मुख्यमंत्री पारख साहब के कहने पर करनूल से हटाकर उनके चाही हुई जगह हैदराबाद में स्थानांतरण कर देते है। पारख साहब को इस बात की तसल्ली रहती है कि कम से कम मुख्यमंत्री ने उनका स्थानांतरण करने से पहले बुलाकर पूछा तो सही। अन्यथा खेमका, दुर्गानागपाल की तरह बिना कुछ कहे कहीं पर भी स्थानांतरण किया जा सकता था। किस तरह एक मंत्री का ईगोकिसी ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी को त्रस्त करने में सक्षम होता है।
         छठवें अध्याय म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन ऑफ हैदराबाद (एमसीएच)में पारख साहब लिखते हैं कि वह उनके जीवन का सबसे दुखद व हताशा-प्रद समय था। जब एम॰सी॰एच॰ में सबसे ज्यादा रात-दिन मेहनत करने के बाद अकारण बिना कोई काम दिए किसी दूसरे अधिकारी को अपना काम सौंप कर अगर किसी का भी स्थानांतरण कर दिया जाता है तो उस अवस्था में उसका अवसादग्रस्त होना स्वभाविक है। सुबह छ बजे से लेकर रात को दस बजे तक लगातार ड्यूटी करने के बाद यहाँ तक कि अपनी छोटी बेटी का चेहरा देखे कई महीने बीत जाते है और उस अवस्था में जब पारख साहब का स्थानांतरण कर दिया जाता है तो उन्हें ऐसा लगता है कि जैसे कोई घोर अपराध किया हो। और जब इस स्थानांतरण का कारण जानने के लिए चीफ सेक्रेटरी का दरवाजा खटखटाते है तो उन्हें उत्तर मिलता है, स्थानांतरण करना सरकार का विशेषाधिकार है। इस उत्तर से खिन्न होकर तत्कालीन मुख्यमंत्री एन॰टी॰रामाराव से मिलना चाहते हैं तो मुख्यमंत्री के दरवाजे उनके लिए बंद मिलते हैं। वह सरकार जो भ्रष्टाचार उन्मूलन का नारा देकर चुनाव जीती थी, वही सरकार एम॰सी॰एच॰ में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठा रहे एक ईमानदार छबि वाले अधिकारी की आवाज तक सुनने को तैयार नहीं। चारों तरफ से हताश होकर जब उन्होंने स्थानांतरण पॉलिसी की खामियों को उजागर करने वाली खबर प्रेस में रिलीज की तो उन्हें सरकार की ओर से कारण बताओनोटिस जारी किया गया। एक बार तो उन्होंने हिम्मत हारकर नौकरी छोड़ना चाहा, मगर उनके आंतरिक साहस ने ऐसा करने नहीं दिया वरन राज्य सरकार के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाने के लिए प्रेरित किया। इस संदर्भ में कानून विशेषज्ञ श्री एल॰एम॰सिंघवी को भी पत्र लिखा। और जब उन्होंने यह सलाह दी कि भारत में लॉ ऑफ टोर्टबहुत कमजोर है, इसलिए सरकार के खिलाफ आवाज उठाने से कोई खास फायदा होने की उम्मीद कम है। अंत में, उन्होंने अपनी रणनीति बदल दी। राज्यसरकार छोड़कर सेंट्रल में जाना ज्यादा उचित समझा।
       सातवाँ अध्याय आंध्रप्रदेश डेयरी डेवलपमेंट कार्पोरेशनसे संबंधित है। पारख साहब ने पांच साल (1983 से 88) तक पेट्रोलियम मंत्रालय में डेपुटेशन पर रहने के बाद फिर से आंध्रप्रदेश डेयरी डेवलपमेंट कार्पोरेशन ज्वाइन करते है वहाँ ज्वाइन करते ही मुख्यमंत्री कार्यालय से इनडोर फॉडर मशीन को बेचने के लिए एक आदमी की सिफ़ारिश आई। चूंकि वह योजना इकोनोमिकली वायबल नहीं थी, इसलिए प्रबंध-निदेशक की हैसियत से जब पारख साहब ने इस योजना की टेस्टिंग के बारे में नोट लिखा तो चार महीने भी नहीं बीते होंगे कि उनका स्थानांतरण कर दिया गया। अक्सर सरकार ईमानदार और अच्छे सिविल सर्वेन्ट पसंद नहीं करती है। उन्हें ऐसे ऑफिसर चाहिए, जो उनकी आज्ञा का आँख बंद कर पालन करें। मगर स्वाभिमानी पारख के लिए यह संभव नहीं हो पा रहा था। जो उन्हें सही लग रहा था तो उसके लिए अडिग रहते थे। जैसे सोना आग में तपकर और ज्यादा शुद्ध होता है, वैसे ही पारख साहब कटु अनुभवों की ज्वाला में झुलसकर और ज्यादा शुद्ध और संघर्षशील होते जा रहे थे।
       आठवें अध्याय गोदावरी फर्टिलाइजर्स एंड केमिकल लिमिटेड(जीएफ़सीएल)में पारख साहब ने क्राइसिस से गुजर रही जी.एफ़.सी.एल को उभारने में अपने किए सार्थक प्रयासों में चीफ मार्केटिंग मैनेजर किस तरह अपनी भ्रष्ट-बुद्धि का इस्तेमाल कर सारे सिस्टम को प्रदूषित करता है, उन तरीकों का खुलासा किया है। पारख साहब ने यहां लिखा है :
“…यह आत्मावलोकन का पल था। एक सीनियर रेंक का भ्रष्ट अधिकारी बहुत ही कम समय में किसी ओर्गेनाइजेशन की सारी सोपानिकी (हियरार्की) को गलत कार्यों के लिए प्रेरित कर किस तरह भ्रष्टाचार के सेसपूल की ओर खींच लाता है। इस शृंखला में कुछ ईमानदार लोग इस डिजाइन को तोड़ देते है।”
       जब चीफ मार्केटिंग मैनेजर के रैकेट का पर्दाफाश हो जाता है और वह उन पर कार्रवाई करने की तैयारी कर रहे होते हैं कि अखबार में वहां के दो विधायकों द्वारा पारख साहब और महाप्रबंधक (वित्त) श्री पी॰एल॰बाल-सुब्रमण्यम के खिलाफ करोड़ों की धांधली व भ्रष्टाचार के आरोप प्रकाशित होते है, यहां तक कि सी॰बी॰आई॰ से जांच करवाने की अनुशंसा भी की जाती है। पारख साहब की जगह अगर कोई और अधिकारी होता तो हिम्मत हार जाता, मगर सारे झंझावातों को झेलने के लिए वह अटल रहते हैं। वह दोनों विधायकों के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज करना चाहते हैं। इस हेतु उन्हें मुख्य सचिव मि॰ नटराजन से अनुमति लेनी होती है। अनुमति देना तो दूर की बात, सरकार की ओर से बोर्ड के एक नामित सदस्य विलयम को भेजकर उनके खिलाफ ठोस सबूत खोजकर स्वतंत्र जांच करने के वह निर्देश देते हैं। मगर पारख साहब तो एक खरा सोना थे, विलियम के हाथ में कुछ भी नहीं लगता है। कुछ ही समय बाद नटराजन साहब सेवा-निवृत्त हो जाते हैं, तब पारख साहब को उन दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने का सुअवसर प्राप्त हो जाता है। बिना पूर्व नोटिस दिए तीन महीने का वेतन देकर नौकरी से टर्मिनेट करने का वह निर्णय लेते है, तो वे अधिकारी उनके पास आकर स्वेच्छा से त्यागपत्र देने की इच्छा जाहिर करते हैं। उसी दौरान एक विधायक अपनी गलती स्वीकार कर लेता है और दूसरे विधायक के खिलाफ स्पेशियल सोशियल प्रोसेक्यूटर रखकर कार्रवाई करने की अनुमति सरकार दे देती है। जब पारख साहब उस विधायक के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कुछ कदम आगे बढ़ाते है तो मुख्य सचिव मना कर देते हैं। यह कहते हुए कि पहला कारण, इस मसले में व्यर्थ अपनी ऊर्जा और समय बर्बाद करना है, और दूसरा कारण कि ऊँट किस करवट बैठेगा, यह भी पता नहीं। उनके जीवन का यह अनुभव इस बात को दर्शाता है कि किस तरह एक तेज-तर्रार अधिकारी नेताओं के साथ मिल-जुलकर झूठ को सच में और सच को झूठ में बदलने का काम करते हैं। और रही बात नेताओं की, जो अपने अधिकारों व शक्तियों का दुरुपयोग कर ईमानदार अधिकारियों की स्वच्छ छबि को धूमिल करने का प्रयास करते हैं।
       सन 1993 में पारख साहब आंध्रप्रदेश के इंडस्ट्रीज डिपार्टमेन्ट ज्वाइन करते हैं। उस समय एक औद्योगिक ईकाई का जांच-प्रतिवेदन इंडस्ट्रियल प्रमोशन अधिकारी जान-बूझकर अपने विभाग में जमा नहीं करवाता है, बल्कि उसका ट्रांसफर होने पर वह फाइल अपने साथ ले जाता हैं। औपचारिक शिकायत के अभाव में उस पर लगने वाला भ्रष्टाचार का आरोप काम की उपेक्षामें तब्दील हो जाता है। इसी प्रकार मेडक जिले का कलेक्टर एक इंडस्ट्रीज को पेट्रोलियम प्रोडक्ट रखने के लिए दिए जाने वाले अनापत्ति-पत्र में जान-बूझकर बिलंब करता है, जब तक कि उसे अपना हिस्सा नहीं मिल जाता है। अक्सर बिजनेसमेन प्रतिरोध करने के बजाए रिश्वत देने में ज्यादा विश्वास करते हैं। रिश्वतख़ोरी की उपरोक्त घटनाओं को कम करने तथा औद्योगिक क्लियरेंस देने में तीव्रता लाने के लिए आंध्रप्रदेश की सरकार ने एक नोडल ऑफिस बनाया, जिसका शुरू-शुरू में नौकरशाही ने विरोध किया। मगर बाद में स्टेट इनवेस्टमेंट प्रोमोशन कमेटी के सफल व सार्थक योगदान से बड़े-बड़े प्रोजेक्ट जैसे हाइटेक सिटी, हैदराबाद इन्टरनेशनल एअरपोर्ट, प्राइवेट पोर्ट, आऊटर रिंग-रोड व इंडियन बिजनेस स्कूल आदि के निर्माण में पारख साहब की अहम भूमिका रही। मगर एक बार आंध्रप्रदेश मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन में बेराइट के निर्यात में मुख्यमंत्री नायडू के अपने मनपसंद ठेकेदार को सपोर्ट नहीं करने के कारण पारख साहब को उनकी नाराजगी का शिकार होना पड़ा। यही नहीं, इस अध्याय में प्राइवेट कंपनी बांगड पेपर मिल के वाइस प्रेसिडेंट (वित्त) द्वारा उनके घर तिरुपति जी के प्रसाद वाले थैले में पैसों के बंडल छोड़कर जाने की घटना का भी जिक्र है, जिसे वे उसे तत्काल बुलाकर उठवा देते हैं और साथ ही साथ, उसे नौकरी से हटवाने के लिए कंपनी के चेयरमैन श्री एम॰एल॰बांगड को एक पत्र भी लिखते हैं। तब वाइस प्रेसिडेंट आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय में शरण लेता है और कोर्ट उसकी बहाली के आदेश पारित करता है।
       दसवें अध्याय में पारख साहब ने पब्लिक इंटरप्राइजेस डिपार्टमेन्ट की गतिविधियों का वर्णन किया है, जिसमें हैदराबाद की सबसे पुरानी कंपनी निजाम शुगर लिमिटेड के निजीकरण के बाद हुई विज्ञापन प्रक्रिया में एक अनचाहे ऑफर को मुख्यमंत्री नायडू द्वारा नव-निर्मित तेलंगाना पार्टी के नेता चन्द्रशेखर राव के दबाव तथा आगामी पंचायत चुनाव के डर से समर्थन करना है,मगर यह मसला आगे जाकर कानूनी दावपेचों में फंस जाता है ।
       इस पुस्तक का दूसरा भाग कोल-मंत्रालयसे संबंध है, जिसमें दस अध्याय (11 से 20) है। अध्याय ग्यारह में सन 2004 के कोयलामंत्री ममता बनर्जी के सादगी के पीछे छुपे एक असली रुप को दिखाया गया है, जिसमें ममता बनर्जी के द्वारा अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के पचास कार्यकर्ताओं को नर्दन कोलफील्ड्स लिमिटेड में नौकरी देने, कोलकता में सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल का निर्माण करने तथा कुछ गैर सरकारी संस्थाओं को गैर कानूनन फायदा पहुंचाने की साथ-साथ नवेली लिग्नाइट में अपने कार्यकर्ता को इंडिपेंडेंट डायरेक्टर बनाने के अलिखित निर्देशों का खुलासा हुआ है। बारहवें अध्याय में शिबू सोरेन के मई 2004 में कोल मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री बनने तथा जुलाई 2004 में मंत्री पद से इस्तीफा देने की तीन महीनों की घटना-क्रम का उल्लेख है, जबकि अगले अध्याय में प्रधानमंत्री द्वारा कोल-मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार संभालने के बाद तीन बड़े नीतिगत मुद्दों जैसे कॉमर्शियल माइनिंग के लिए कोल सेक्टर को खोलना, कंपीटिटिव बिडिंग के जरिए कोल-ब्लॉकों का आवंटन तथा नॉन कोर ग्राहकों के ई-आक्शन के जरिए कोयले की बिक्री को प्रधानमंत्री के समक्ष रखना पारख साहब की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हैं। भारत के कोयला जगत में इस युग को पारख युगके नाम से जाना जाएगा, कि किस तरह कैप्टिव कोल-ब्लॉकों के आवंटन में वे डिस्कशन पेपर बनाकर स्टेक होल्डरों,सी॰आई॰आई॰,एफ़॰आई॰सी॰सी॰आई॰, एफ़॰आई॰एम॰आई॰ आदि तथा पेंडिंग मामलों वाली कंपनियों के प्रतिभागियों के समक्ष प्रस्तुत कर ओपन-बिडिंग के कार्यान्वयन पर कानून-विभाग से सलाह-मशविरा कर बिड़-दस्तावेज़ और एवेल्यूशन के क्राइटेरिया तैयार कर कैबिनेट की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं। श्री दसारी नारायण राव, तत्कालीन कोल राज्यमंत्री द्वारा इस प्रस्ताव पर विपरीत टिप्पणी लिख कर आगे बढ़ाने के लिए अनावश्यक समझकर वहीं रोक दिए जाने का जिक्र है। दिनांक 01.07.05 को फिर जब शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बन जाते हैं और कोल मंत्रालय का चार्ज फिर से एक बार प्रधानमंत्री के हाथों में आ जाता है तो पारख साहब सही अवसर देखकर इस प्रस्ताव को पुनर्जीवित कर प्रधानमंत्री से अनुमोदित करवा लेते हैं और फिर इस प्रस्ताव को संबंधित मंत्रालयों और राज्य-सरकारों को टिप्पणार्थ भेज देते हैं। सभी के कॉमेन्ट आने के बाद इसे कैबिनेट की सहमति के लिए प्रधानमंत्री के पास भेज दिया जाता है। इस पर सहमति बनाने के लिए प्रधानमंत्री का प्रिंसीपल सेक्रेटरी सभी कोल बीयरिंग राज्यों के चीफ सेक्रेटरी तथा केंद्र सरकार के उपभोक्ता (यूजर्स) मंत्रालयों के साथ एक और बैठक रखते हैं, जिसमें कोल माइन्स नेशनलाइजेशन एक्ट (सी॰एम॰एन॰ए॰) में आवश्यक संशोधन हेतु निर्णय लिया जाता है। मगर किसी की भी राजनीतिक मंशा सामने नहीं आती है। अन्यथा, अध्यादेश के जरिए भी आवश्यक संशोधन लाए जा सकते थे। कैबिनेट सहमति के लिए प्रधानमंत्री के पास फाइल भेजने की जगह कोल माइन्स नेशनलाइजेशन एक्ट में संशोधन करने का अर्थ समय की बरबादी करना है, यह लिखकर वह फाइल पारख साहब के रिटायर होने के बाद 120106 को लौटा दी जाती है। अब आप ही बताइए, असली गुनाहगार कौन है? और असली षड्यंत्रकारी कौन है? और कौन अपने धर्मक्षेत्र में युद्ध कर रहा है?
       पंद्रहवें अध्याय  में पारख साहब सी॰ए॰जी॰का समर्थन करते हैं और प्रधानमंत्री को गलत मानते हैं। इसके अलावा, स्क्रीनिंग कमेटी, ऑडिट की भूमिका, नीति-कार्यान्वयन में असामान्य विलंब के साथ-साथ अनुचित लाभ के आकलन पर तर्क सम्मत ध्यान आकृष्ट करते है।
       सोलहवें अध्याय में कोयले की ई-मार्केटिंग की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। जो कि कोयले की काला-बाजारी एवं माफिया डॉन की भूमिका को खत्म करने के लिए एक उचित कदम था। पारख साहब के फॉर्मल नोट पर प्रधानमंत्री ने टेस्ट-मार्केटिंग पर अपनी सहमति जताई थी। मगर इसकी सफलता देखकर राज्य-मंत्री और कोल-मंत्री ने आदेश दिया कि और ई-आक्शन नहीं होगा। फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया। जब पारख साहब ने कोल इंडिया के चेयरमैन को एन॰ई॰सी॰एल॰ का सारा कोयला ई-मार्केटिंग से बेचने की सलाह दी, तो मंत्री जी ने इसे अपवाद स्वरूप लिया और अवज्ञा का दोष मढ़ते हुए उनके खिलाफ प्रधानमंत्री को लिखित शिकायत की। मगर जैसे ही शिबू सोरेन ने कोल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया, झारखंड का मुख्यमंत्री बनने के लिए। वैसे ही पारख साहब ने सारी कोल-कंपनियों के लिए ई- आक्शन की अनुमति प्राप्त कर ली।
       बाकी अध्यायों में कोल-इंडिया के सी॰एम॰डी॰ के चयन में मंत्रियों द्वारा की जाने वाली ब्लैकमेलिंग,सांसदों तथा जन-प्रतिनिधियों द्वारा कोल कंपनी के शीर्ष अधिकारियों और यहाँ तक कि पारख साहब के साथ लिए जाने वाले दुर्व्यवहार, व्यक्तिगत स्तर पर शिबू सोरेन का प्रतिशोधात्मक रवैया और अंत में कोलगेट पर सी॰बी॰आई॰ और सुप्रीम-कोर्ट की भूमिका का वर्णन है।
गीता के अध्याय 3 के श्लोक 21 कहा गया है:-
यद-यद आचरित श्रेष्ठ तत-तत इव इतरो जन,
यत्प्रमाणम कुरुते लोकस्तदनुवर्तते
       अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करता है, बाकी लोग उनका अनुसरण करते हैं। जब किसी मंत्रालय का एक सेक्रेटरी पारदर्शिता व ईमानदारी का आचरण करता है, तो उसके अधीन विभागों के सारे मुखिया और दूसरे अधीनस्थ कर्मचारी भी उस व्यवहार का अनुकरण करने लगते हैं। सीआईएल के चेयरमैन के चयन वाले अध्याय में उन्होंने लिखा है कि जब कंपनी के सी॰ई॰ओ॰ का चयन भ्रष्टाचार की नींव पर आधारित हो तो उस कंपनी में भ्रष्टाचार-निवारण के बारे में सोचना भी व्यर्थ है। एक बात और मुझे याद हो आई कि पारख साहब ने अपनी किताब का समर्पण-पृष्ठ अपनी माताजी स्व॰ चांद कुंवर, अपनी धर्मपत्नी उषा तथा अपनी बेटी सुष्मिता का नाम उल्लेख किया है। सर्वप्रथम नत-मस्तक होना चाहूँगा उनकी स्व॰ माताजी के चरणों में, जिन्होंने ऐसे सपूत को जन्म दिया, जो जीवन भर सच्चाई के रास्ते अनुसरण करता रहा, भले ही, वे रास्ते कितने भी कंटीले व विपथगामी क्यों न रहे हो हो। दूसरा शत-शत नमन भाभीजी को, जिन्होने आजीवन अपने पति के सुख-दुख में पूरा-पूरा सहयोग दिया। इस संदर्भ में मुझे बुरला विश्वविद्यालय, सम्बलपुर के प्रबंधन-संकाय के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष व मैनेजमेंट गुरु श्री ए॰के॰ महापात्र की एक कहानी याद आ जाती है। कहानी इस प्रकार है:-
                “......एक बार अखिल विश्व-स्तरीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सी॰ई॰ओ॰ के फ्रस्टेशन-लेवलकी जांच करने के लिए बैठक का आयोजन किया गया, जिसमें दुनिया भर के बड़े-बड़े लोगों ने भाग लिया। इस प्रयोग में पता चला कि भारतीय सी॰ई॰ओ॰ का फ्रस्टेशन लेवल’’ सबसे ज्यादा था। उसका कारण जानने के लिए एक टीम ने फिर से व्यवहार तथा सोचसंबंधित और कुछ प्रयोग किए। जिसमें यह पाया गया कि उनकी धर्मपत्नी बातबात में उनके ऊपर कटाक्ष करती थी, यह कहते हुए, “आपने क्या कमाया है? मेरे भाई को देखो। आपके एक गाड़ी है तो उसके पास चार गाड़ी है। आपके पास एक बंगला है तो उसके पास पाँच बंगले हैं। आप साल में एक बार विदेश की यात्रा करते हो तो वह हर महीने विदेश की यात्रा करता है। अब समझ में आया आपमें और उसमें फर्क?”
       ऐसे कटाक्ष सुन-सुनकर बहुराष्ट्रीय  कंपनी के अट्ठाईस वर्षीय युवा सी॰ई॰ओ॰ इतना कुछ कमाने के बाद भी असंतुष्ट व भीतर ही भीतर एक खालीपन अनुभव करने लगा।पैसा, पद व प्रतिष्ठा की अमिट चाह उनके फ्रस्टेशन-लेवलको बढ़ाते जा रही थी।
       इसी बात को अपने उत्सर्ग में पारख साहब ने लिखा की सिविल सर्विस में मोडरेट वेतन मिलने के बाद भी मेरी सारी घटनाओं की साक्षी रही मेरी धर्मपत्नी ने ऐसा कभी मौका नहीं दिया, जो मेरे निर्धारित मापदंडों को उल्लंघन करने पर बाध्य करते। और ऐसे भी अँग्रेजी में एक कहावत है, “Charity begins at home’ हर अच्छे कार्य का शुभारंभ घर से ही होता है। पारख साहब अत्यंत ही भाग्यशाली थे कि उन्हें अपने स्वभाव, गुण व आचरण के अनुरूप जीवनसंगिनी मिली। मैं बहिन सुष्मिता को भी धन्यवाद देना चाहूँगा कि अपने निर्मोही पिता के पथ में कभी भी किसी तरह का अवरोध खड़ा नहीं किया, बल्कि एक निर्लिप्तता से उनका हौसला बढ़ाते हुए उन्हें अपने पथ को विचलित नहीं होने दिया। यह है यथार्थ वैराग्य का अनुकरणीय उदाहरण।
       अंत में, इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद करते हुए अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूँ, कि कम से कम गिलहरी की तरह कुछ रेत के कण राम-सेतु बनाने वाले महारथियों हनुमान, नल-नील, अंगद, जामवंत आदि के द्वारा फेंके जा रहे रामनाम लिखे झांवा पत्थरों के बीच डाल संकू। और मेरा श्रम तब सार्थक होगा, जब आप इसे पढ़कर इस बात का अहसास कर सकें कि न वित्तेण तर्पणीयामतथा योग कर्मसु कौशलमअर्थात कुशलता से ईमानदारी पूर्वक किया गया कर्म ही योग कहलाता है।

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