30.
अकाईव में सरोजिनी साहू
अतीत हमेशा मधुमय होता है। कितना भी पीडादायक और कितना भी संघर्षमय
क्यों न रहा हो मगर एक बार अतीत के पन्नों को पलटने पर यह याद आने लगता है कि क्या
वास्तव में उन दिनों में इतनी ज्यादा यंत्रणा थी? इसके अलावा अतीत हमेशा इस तरह याद आता है
मानो यह कल की घटना हो। यही तो कल की ही तो बात थी,जब हम किताबों के बैग लादकर स्कूल जाते
थे। यही भी तो कल की बात है, जब जगदीश के साथ भेंट हुई। कहानीकार और 'समकाल' के संपादक शुभ्रांशु पंडा ने जिस समय जगदीश
और मेरे सम्बन्धों के बारे में प्रकाशित करने के लिए जब एक आलेख मांगा था,
तो उस समय झिझक-सी गई थी। ओड़िया साहित्य
में सभी को मालूम है हमारे संबंध के बारे
में ,फिर
इस बात को लेकर लिखने से पाठकों को क्या ऐसा नहीं लगेगा जैसे कि मैं 'क्रेजी'
हूँ ?
यद्यपि
शुभ्रांशु को मैंने
हाँ कह दी थी, मगर इस विषय पर मैं इतना ज्यादा सीरीयस नहीं थी। मैं
सोच रही थी कि शुभ्रांशु एक दिन इस बात को भूल जाएगा
और मैं अप्रीतिकर परिस्थिति से छुटकारा पा लूंगी। मगर वह
इस विषय पर कुछ ज्यादा गंभीर था सही में,
उसे मेरा एक 'राइटअप' चाहिए था। इसके लिए मुझे बयालीस साल पीछे झांककर देखना पड़ा।
उस
बयालीस साल के शब्द उच्चारण करने मात्र से ऐसा लग रहा है, मानो एक बड़ा युग बीत हो। इतने
दिनों पुरानी हमारे बीच में जान-पहचान है। और उस पर अब दीमक की बॉबी लग गई हो। शायद ऐसा लगता है। वे दिन कैसे थे, जब कंकाल के ऊपर मिट्टी ढकी हुई नहीं
थी? कैसा
था दुख-सुख, अनुराग, विराग, मिलन-विच्छेद, प्राप्ति और अप्राप्ति, संघर्ष
और सफलता? हमें लौटना होगा हमारे जवानी के दिनों
में।
सन
1970
के अक्तूबर की 7
तारीख को मेरे पास एक हल्के हरे रंग का एक अंतर्देशीय पत्र आया था। उस हरे रंग की चिट्ठी को देखकर मेरे माँ-पिताजी को कितना अचरज हुआ था, और उनसे ज्यादा आश्चर्य हुआ था मुझे। उस समय मैं नवम श्रेणी में पढ़ रही थी, जिस
समय मेरे पते पर वह हरे रंग की चिट्ठी पहुंची थी। उससे पहले
मैं कक्षा में परीक्षा पेपर के
लिए पत्र-लेखन की कला सीख रही थी। जब मैं छठवीं कक्षा में पढ़ रही थी
मेरी बुआ का लड़के ने घर के सभी सदस्यों के पास अलग-अलग
ग्रीटिंग भेजे थे। उसमेँ मेरे नाम पर भी एक
ग्रीटिंग था।
बचपन
से मैं बहुत एडवेंचर-प्रिय थी, पेड़ के ऊपर चढ़ना, पहाड़
पर चढ़ना और तालाब में तैरना, साइकिल मिलने से इधर-उधर घर-घर घूमने की तरह
काम करने की बहुत
बड़ी आदत थी। दीदी के पास एक कविता की किताब थी, वह
शृंखलित जीवन बिता रही थी। मगर मैं ऐसी नहीं थी।
मेच्यूरिटी आने पर मेरे ऊपर अचानक प्रतिबंध जारी हो गया था। सांस बंद होने की तरह
प्रतिबंध में छ मास बीत गए थे, उसी समय इनलेंड लेटर उड़कर मेरे नाम पर आया था।
पिताजी
ने जोर से चिल्लाकर मुझे बुलाया। दौड़कर मैं वहाँ पहुँचकर देखने लगी, पिताजी के अंगूठे और तर्जनी के बीच में इंनलेंड लेटर था। पिताजी गंभीर स्वर में
कहने लगे-तुम्हारी चिट्ठी आई है। चिट्ठी? मेरा कौन दोस्त है, जो
मुझे चिट्ठी देगा? दिल धड़कने लगा। दूसरी तरफ उद्वेग। पिताजी बिना चश्मा पहने प्रेषक का नाम
पढ़ रहे थे। चिट्ठी को
आना भी था तो पिताजी की
उपस्थिति में क्यों? दोपहर का खाना खाकर पिताजी लेट रहे थे।
पोस्टमेन चिट्ठी देकर चला गया था। पिताजी जोर से पढ़ने लगे, जे... जे...। मैंने तुरंत उत्तर दिया, "ओह!
जयंती करकेटा होगी।"
पिताजी
ने जयंती केरकेटा का नाम सुनकर वह चिट्ठी मुझे पकड़ा दी। मैच्योर होने के बाद
पिताजी ने पहली बार आजादी मेरे हाथ मेँ पकड़ा दी। एक बार भी नहीं पूछा कि जयंती
केरकेटा है कौन ?
पिताजी
ने जयंती केरकेटा के बारे मेँ कुछ भी पूछा नहीं था ,इसका मतलब यह नहीं था कि वह संपूर्ण
काल्पनिक नाम था। मैं भी सोचने लगी, यह चिट्ठी जयंती करकेटा की होगी।
यह
चिट्ठी मिलने से पहले सुंदरगढ़ की
ओर से एक 'एक्सकर्शन' बस पुरी आई थी। वापिस जाते समय वह बस हमारे घर के आगे रुकी थी। शाम का समय था। कुछ लड़कियां बस से उतर
कर हमारे घर का गेट खोलकर नाली में एक कतार में बैठकर पेशाब
कर रही थी। मैं कुछ काम से उस गेट की तरफ गई थी। उस समय उन लड़कियों से मेरा परिचय
हुआ था। उसी समय टॉर्च की लाइट से मेरा और जयंति के बीच में एक-दूसरे के पतों का आदान-प्रदान हुआ था।
जब मैं चिट्ठी को फाड़कर देखने लगी, तो कोई और था? "चक्रांत" पत्रिका से मेरा पता पाकर किसने मेरे पास चिट्ठी
लिखी थी। उनकी चिट्ठी से साफ पता चल रहा था कि साहित्य के प्रति उनकी कितनी रुचि है। मैं क्या-क्या लिख रही हूं, उन्होंने
पूछा था। चिट्ठी के अक्षर छोटे-छोटे और चपटे बीज की तरह दिख रहे थे। उस चिट्ठी में नवपत्र
में प्रकाशित उनकी कहानी "अव्यक्त","स्वर्ग के लिए सीढ़ी" और "डायन" आदि
के बारे में उल्लेख
किया हुआ था। अंत मेँ बहुत महीन अक्षरों मेँ नीचे
लिखा हुआ था- जगदीश मोहंती।
चिट्ठी
लेकर मैंने अपनी बड़ी बहिन को दिखाई थी। उस चिट्ठी
को पढ़कर दीदी ने कहा कि वह लड़का तुम्हारा
'पत्र-मित्र' बनना चाहता है।
पत्र-मित्र? मुझे याद आने लगी थी कुछ महीने पहले की बातें। मेरे चचेरे भाई ने
मुझे 'चन्द्र-अभियान' पर बना डाक
टिकट दिखाया था। उसी समय डाक
टिकट की कीमत 50
पैसे या एक रुपया रही
होगी। मैंने उस समय अपने पैसों से वह टिकट खरीद ली थी। बहुत दिन
से वह टिकट मेरे पास रखी
हुई थी। मैं उस समय बहुत
डिटेक्टिव किताबें पढ़ती थी। रात-दिन
आराम कुर्सी में
बैठकर उन किताबों को पढ़ने के कारण माँ बहुत डांटती थी। उस समय 'चक्रांत' नामक की एक मासिक डिटेक्टिव पत्रिका
निकल रही थी। पत्रिका के पीछे पन्ने पर पत्रबंधु की तालिका आती थी। एक रुपए का डाक
टिकट देने से आपका नाम उसमें शामिल होता था, यही नियम था। पत्रबंधु तालिका में मेरा
नाम शामिल करने के लिए मैंने
उस चंद्र-अभियान के उस टिकट
न्यौछावर कर दिया था।
महीने
दो महीने बाद मेरे नाम को चक्रांत के 'पत्रबंधु-स्तम्भ' में स्थान मिल गया था। उसमें मेरी रुचि
और मेरा पता दिया गया
था। मैंने अपनी रुचि में लिखा था-'लेखन'।
जगदीश
अपने बड़े भाई के घर बेलपहाड़ आए थे, उसी समय उनकी नजर पडी थी चक्रांत के
ऊपर। जगदीश का बड़ा भाई भी मेरी तरह जासूसी किताबें पढ़ने के शौकीन थे। इसलिए उनके घर में चक्रांत की बहुत सारी किताबें पड़ी हुई थी। उसी से उन्होंने मुझे खोजा। मेरी
रुचि ने उन्हें बहुत आकर्षित किया था। भले ही,
मैंने अपनी रुचि में रचनाधर्मिता दिखाई थी, मगर
उस समय तक मेरी केवल दो कहानियां प्रकाशित हुई थी। पहली मेरे स्कूल की पत्रिका मैगजिन में और दूसरी मेरे छोटे भाई के स्कूल की पत्रिका में। मेरे छोटे भाई ने उसके लिए मुझे
कहानी लिखने को कहा था। मैंने
उसके लिए "प्रीतम की आत्मकथा" के नाम से एक कहानी लिखी थी।
जगदीश
चिट्ठी लिखने में धुरंधर थे। सप्ताह में दो-तीन चिट्ठी मेरे पास भेजते थे। उनके
चिट्ठी में 'सारिका' व 'धर्मयुग' जैसी हिन्दी पत्रिकाओं में प्रकाशित साहित्य की खबरें रहती थी। मैं उस समय
नौवीं कक्षा में पढ़ रही थी। ढेंकानाल शहर के सीमाबद्ध परिवेश में रहती थी मैं, उनकी ये सब चिट्ठियाँ मुझे इतना प्रभावित नहीं कर पाती थी।
चक्रांत
के पत्रबंधु स्तंभ से मेरा नाम निकालकर जो उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी थी । वह सान 1970 के 7 अक्टूबर की थी, जहां तक मुझे याद आ रहा है वह चिट्ठी मुझे लगभग एक सप्ताह
बीतने के बाद मिली थी।
चिट्ठी में उनके साहित्य की सृजनधर्मिता
के बारे में संक्षिप्त
रूप से विवरण दिया गया था। उस समय उनका लेखन राऊरकेला कल्चरल
एकेडेमी से प्रकाशित पत्रिका 'नवपत्र' में प्रकाशित हो रहा था।
उनकी दो-तीन चिट्ठियाँ
मिलने के बाद मेरे पते पर 'नवपत्र' की दो-तीन प्रतियाँ पहुंची थी, जिनमें
उनकी "स्वर्ग के लिए सीढ़ी" और "अवयक्त" नामक दो कहानियां प्रकाशित
हुई थी। वे दोनों कहानियां मार्क्सवादी विचारधारा वाली थी। 'नवपत्र'
को उस समय संभ्रांत पत्रिका की श्रेणी में गिना जाता था।
मैं
उस समय कार्ल-मार्क्स कौन है, नहीं जानती थी। मार्क्सवाद क्या है, मुझे मालूम नहीं था। फिर दोनों कहानियां मेरे
मन को छू रही थी। हमारी मित्रता के दो-तीन महीने बाद जगदीश श्रीराम चन्द्र मेडिकल कॉलेज में पढ़ने के लिए कटक आए
थे। कटक में आने के बाद उनके साहित्य के व्यापकता में अभिवृद्धि
होने लगी।
जगदीश
की हर चिट्ठी में साहित्य की चर्चा
होती थी। मैं तो एक
चुलबुली लड़की थी। वे सारी बातें मेरी दिमाग में नहीं घुसती थी। लेकिन पता नहीं क्यों, मैं उन सारी चर्चाओं को पुरानी डायरी में उतारकर
रख रही थी।
उनको कटक में रहते हुए दो-तीन महीने नहीं हुए होंगे कि
अचानक जगदीश हमारे घर पहुंच गए। हमारा घर संयुक्त परिवार वाला था। बाहर का गेट खोलकर प्रवेश करते ही सामने
दिखाई पड़ता था लंबा-सा गलियारा। जिसके दायीं ओर
हमारा घर और बायीं ओर बड़े पापा का घर था। हमारे घर के पीछे की तरफ आंगन में दोनों चाचा लोगों का घर बना हुआ था। आँगन था, सभी घरों की केन्द्रस्थली।
जगदीश
जिस समय घर खोज-खोजकर पहुंचे, उस समय दिन का दस बज रहा होगा। छुट्टी का दिन था। शायद रविवार
का दिन था। मेरे बड़े
पापा के बेटे ने आकर
मुझे कहा, "दीदी,
बाहर में तुझे कोई ढूंढ रहा है?"
बाहर
में कौन खोजेगा मुझे? वह
भी गेट के उस पार? क्योंकि मेरे स्कूल के दोस्त लोग सीधे
घर में आते थे, मैं बाहर देखने लगी- एक लंबा दुबला-पतला नौजवान,18-19 साल का युवक अपने
कंधे पर शांतिनिकेतन
का बैग झुलाकर खडा हुआ
था। शर्ट 'इन' किया हुआ था, आधा या तो 'इन' नहीं हुआ या फिर बाहर निकल गया होगा। फुल
पेंट पहना हुआ था, मगर नीचे खिसक जाने के कारण कमर पर अंडरवियर की पट्टी दिखाई दे रही थी। मैने उस दिन एक फूलों की छपाई वाला लाल फ्रॉक पहन रखा था। मैं सिर ऊपर उठाकर उनको देखने लगी। वह कहने लगे- मैं जगदीश मोहंती।
मेरे
पैरो के नीचे जमीन खिसक गई। छाती धक-धक
करने लगी। एक लड़का खोजते हुए मेरे पास आएगा। वह भी हमारे पड़ोस का लड़का नहीं
है। घर में अगर कोई पूछेगा- वह कौन है? क्या काम है मेरे पास? क्या
जवाब दूंगी? उस समय कटक से ढेंकानाल तक इतने गाड़ी मोटर नहीं चल रहे थे।
ट्रेन के नाम पर पुरी तालचेर पेसेंजर थी केवल। एक टैक्सी में पांच रुपए भाडा देकर आए थे वह। मैं उन्हें हमारे परिवार के सबसे बड़े भाई के कमरे में बैठाई थी।
उस समय भाई शहर में नहीं रहते थे। नौकरी के लिए
किसी दूसरी जगह चले गए थे। पिताजी को मलेरिया हो गया था, इसलिए उस दिन घर में थे।
पिताजी
सोए हुए थे, मां उनके पैर दबा रही थी। मैंने पिताजी के पास आकर कहा, "एक
संपादक आए हुए हैं, मैं उनके लिए नाश्ता मंगाऊंगी, उसके
लिए पैसे चाहिए।"
पिताजी
ने चिडचिडाकर गुस्से में कहने लगे," कौन?"
मैं उसका उत्तर दे
नहीं पाई। पिताजी ने कहा, " शर्ट के पॉकेट में पैसे हैं, ले
जाओ।" जगदीश को संपादक के रुप में परिचित करवाना झूठ नहीं था। उस समय जगदीश
और मैं मिलकर 'पल्लव' नामक मिनी पत्रिका निकाल रहे थी। कहने का मतलव था इस पत्रिका के प्रकाशन में मेरी कोई
भूमिका नही थी। कभी कभार मेरी छोटे छोटे लेख निकलते थे। जगदीश के लिए होटल से खरीद हुआ नाश्ता खिलाने के
बाद मैने सोचा कि वह चले जाएंगे। मगर वह नहीं गए। कंधे पर लटक रहे शांतिनिकेतन बैग से पत्र-पत्रिकाएं निकालकर मुझे दिखाने
लगे। उस पत्रिकाओं के अंदर "आभा"
और "वेला" नाम की दो ओड़िया पत्रिकाएं थी। धर्मयुग और सारिका नाम की दो हिंदी पत्रिकाएं थी। वह सारिका की किताब खोलकर कमलेश्वर के विषय
में बताने लगे, वह मेरे लिए
एकदम अपरिचित नाम था। आभा
और वेला दोनों मार्क्सवादी पत्रिकाएँ थीं। उन दोनों पत्रिकाओं को मेरी तरफ
बढ़ाते हुए वह कहने लगे - "लो पढ़ो।"
मैं
उन पत्रिकाओं को इधर-उधर करने लगी। वह मार्क्सवाद
के बारे में लंबा-चौडा भाषण देने लगे। मैं
एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दे रही थी। फिर सारिका की किताब खोलकर पीछे
फिल्मी खबरों का फोटो में जीनत अमान को दिखाकर पूछने लगे, "यह
कौन है,जानती
हो?" उस
समय जीनत अमान मिस इंडिया हुई थी। मैने कहा, "मुझे पता नहीं।" उन्होंने उत्तर
दिया,
"यह है मिस इंडिया।"
एक
अपरिचित आदमी से क्या बात करूंगी, मैं नहीं समझ पा रही थी। उनके आगे
चुपचाप बैठने से मेरी सांस फूलने लगी थी। एक तरफ परिवार का
एक-एक करके भाई लोग कमरे की तरफ मुंह
झुकाकर देख रहे थे, घर में सभी लोगों का कौतूहल होना स्वाभाविक था। मेरी उम्र कितनी रही होगी? तेरह -चौदह साल में मुझे खोजते हुए अगर कोई
युवक आएगा तो कौतूहल
होना था।
अभी भी जगदीश नहीं जा रहे थे। बीच-बीच में,
मैं उस कमरे से बाहर जा रही थी। कभी-कभी मैं
अपने बड़े पापा के नए
बन रहे घर की आधी दीवार पर चढ़कर अमरूद ला रही थी, कभी-कभी
दीदी के पास जाकर ये किताबें दिखा रही थी। दीदी ने पूछा, "वह
कितने बजे जाएंगे?"
मैंने कहा, " मुझे नहीं पता।"
दीदी
ने फिर कहा," जाकर पूछ कब जाएंगे ?'
मैने
जगदीश से पूछा, तो उन्होंने कहा कि वह चार बजे जाएंगे। क्योंकि उस समय चार बजे
ढेंकानाल से कटक की एक
बस थी। पिताजी की सेवा-सुश्रुषा
छोड़कर मां आकर खाना पकाने लगी थी। क्या सब्जी थी, मुझे मालूम नहीं है। उस दिन पिताजी का तबीयत
खराब होने के कारण दीदी ने जैसे-तैसे खाना बनाने वाली थी,
जिसे हम लोग खाने वाले थे। लेकिन जगदीश आने के कारण मेरी मां खाना पकाने गई। चावल में घी डालकर खाने का रिवाज था। जब मैं घी डालने लगी तो जगदीश ने मना किया। जगदीश ने कहा,"घी
एक बुर्जुआ व्यापार है।"
बुर्जुआ
क्या है? मुझे
मलूम न था। धनी-अमीर, साहूकार, मिल-मालिक को बुर्जुआ कहा जाता है। वह कहने लगे, "अर्थनैतिक
स्तर पर आदमी का विभाजन किया जाता है।" मुझे
उस समय तक कुछ पता न था. वह कहने लगे, बुर्जुआ
लोगों को ब्लू-ब्लड कहा जाता है। हमें यह बात
ठीक नहीं लगी। खून तो लाल होता है, फिर ब्लू ब्लड कैसे हो सकता है? जो भी हो, वह चार बजे घर से निकले। इसके बाद मेरी
चाची और बड़ी मां दो बार घर की ओर इधर-उधर
देखकर मंद-मंद मुस्करा कर
चल दी। मुझे लगने लगा,
शायद मैं बड़ी हो गई हूँ।
उनके
घर से निकलने के बाद मानों
धरती पर ठंडी हवा बहने लगी हो। जीवन फिर स्वाभाविक गति से चलने लगा, मगर
उनके जाने के बाद मेरे संबंधी भाई बहिन
उनके बारे में मुझे
पूछने लगे। सभी को मैं एक समान उत्तर दे रही थी कि वह पत्रिका के एक संपादक है। फिर भी मेरी बात सुनकर कोई संतुष्ट नहीं हो रहा
था। अंत में, मेरे परिवार के सबसे बुजुर्ग आदमी मेरे बड़े पापा ने व्यंग-बाण छोड़ा," मेरी लड़की साइंस पढ़ रही है तब उस विषय को समझाने के लिए लड़के घर आ रहे थे। यह बात
ईश्वर (मेरे पापा)
बोल रहा था। मगर अब तो
तुम्हारी लड़की के पास भी लड़के
लोग आने लगे।” इस अनुभूति को लेकर मैने छोटी सी कहानी लिखी थी। नब्बे दशक में मैंने नोसलजिया (Nostalgia) को लेकर एक कहानी लिखी थी 'उड़ने का
समय' जो उस जमाने की एक अन्यतम कहानी थी।
जगदीश
के जाने के बाद उनके
द्वारा दी गई पत्रिकाओं 'आभा'
और 'वेला' को मैं पढ़ने लगी थी। उसमें
माओस्ते तुंग और कार्लमार्क्स पर निबंध लिखे हुए थे। सच में, ये
सब निबंध मेरे दिमाग में नहीं घुस रहे थे। उस
पत्रिकाओं में प्रसन्न पाटशानी, सदाशिव दास, के॰ पदम दास, नवीन
सुबुद्धि, गोवर्धन
पुजारी की कविताएं और कहानियां प्रकाशित
हो रही थी। धीरे-धीरे मेरे मन में मार्क्सवादी विचारधारा की लगभग रूपरेखा तैयार हो गई थी। मैंने भी उस मार्क्सवादी चिंतन को लेकर थोड़ा-बहुत लिखना शुरु किया था। उसमें अधिकांश
कहानियां 'प्रजातन्त्र'
की रविवारीय साहित्य विभाग में प्रकाशित हुई थी। कुछ कहानियां 'आंसता काली' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। सन 1971 में हम दोनों के बीच दृढ़ मित्रता हो गई थी। मैं उनको जोगेश भाई नाम से पुकारती थी। उनके घर का नाम जोगेश होने से पत्रों में
जोगेश संबोधन से लिख रही थी। मुझे याद आ रहा है
कि एक बार राखी पूर्णिमा के समय मैंने एक राखी खरीदकर उनके पते पर डाक से भेजी थी। जिस समय जगदीश हॉस्टल में रहते थे,उनका पता था
अन्नपूर्णा होटल। जहां वह नियमित रूप से खाना खाते थे। रक्षा-बंधन चले जाने के कुछ दिन बाद वह पोस्ट मेरे पास फिर से लौट आया। साथ में छोटा-सा
एक नोट लिखा हुआ था,'पगली, सबको क्या राखी बांधी जाती है?"
इस
विषय पर मैंने अपनी बड़ी बहिन को और नहीं पूछा था। मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। उसके बाद वाली चिट्ठी को जगदीश ने दूसरे ढंग से दिया
था। उसने संबोधन किया, मेरी सुनादुष्टा (मैं बहुत ज्यादा चुलबुली होने से दुष्ट और स्त्रीलिंग में दुष्ट को दुष्टा लिखा गया था)!
सुना
शब्द मुझे अश्लील लग रहा था। शर्म भी आ रहा था। सुना क्यों लिखा, पूछने
से उन्होंने बाद की चिट्ठी में 'सुना, सुना, सुना, सुना' लिखकर भेज दिया था। डर के मारे मैंने यह चिट्ठी बड़ी दीदी को नहीं दिखाई थी। मुझे डर लग रहा था जैसे कहीं मैंने बहुत बड़ा अपराध तो नहीं कर लिया। मैं मन
ही मन सोच रही थी। सारी चिट्ठियों को बिना खोले छुपाकर रखने का प्रयास कर रही थी।
लेकिन
जगदीश को छोड़ने के पक्ष में नहीं थी। उसका कारण था साहित्य। साहित्य ने हम दोनों
को जोड़कर रखा था। सन 1971 में जगदीश पढ़ाई के साथ तत्कालीन पारिवारिक पत्रिका 'सौरभ'
का काम देख रहे थे। इसलिए उनको मासिक 75 रुपए का पारिश्रमिक मिल रहा था, जिसमें
उनकी पढ़ाई का खर्च, होटल का खर्च निकल जा रहा था। मुझे याद आ रहा था,"अंकल टॉम कैबिन" का ओडिया अनुवाद वाली किताब "टॉमकाकार कुटीर" खरीदकर पढ़ने के लिए मैंने मांगी थी तो उन्होंने वह किताब खरीद
कर भेजी थे। वह किताब
उपहार देने के लिए उन्हें रेडियो आकाशवाणी में प्रोग्राम करना पड़ा था।
'सौरभ' के युवा स्तम्भ
का सम्पादन कर रहे थे वह।
एक दिन मेरा उन्होंने इंटरव्यू लिया था। उसमें मैंने कहा था, स्कूल के
शिक्षक और शिक्षिका पक्षपात करते हैं। बड़े ऑफिसर व बड़ लोगों के
बच्चे होने से सात खून
माफ हैं। साधारण बच्चों को कभी-कभार ही नाच-गाने या दूसरे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने लिया जाता है।
मेरा
यह मंतव्य हमारे बालिका विद्यालय की प्रधानाध्यापिका के ध्यान में आया। उन्होंने मुझे सीधा सवाल न
करके दूसरी शिक्षिका के माध्यम से कहलवाया। वह दीदी हमारे घर के पास में रहती थी। उन्होंने कहा था,"सरोजिनी, क्या
तुमने हमारे बारे में
कहा या दूसरे स्कूलों को देखकर कहा?"
1972 मसीहा की बात होगी,जब मैं ढेंकानाल कॉलेज में पढ़ने गई। उससमय हमारे परिवार के भाई और बहिन कॉलेज में पढ़ रहे थे। वे लोग
घर के नाम से बुलाते थे। उनके दोस्त लोग भी।
ऐसे ही कॉलेज के सर लोग भी घर के नाम से बुलाते थे। मैं आई.ए पढ़ने के दौरान
विश्व साहित्य के बहुत
प्रसिद्ध साहित्यकारों के जीवन के बारे में परिचित हो चुकी थी। यह सब संभव हुआ था
जगदीश के कारण।
जगदीश
प्रचंड पढ़ाकू आदमी थे। अभी भी उनका अधिकतर समय पढ़ने में व्यतीत होता था। मेरी शादी के
बाद रामपुर कोलियरी में
उनके अजीबो-गरीब अभ्यास से परिचित हो गई। खाने के
समय भी उनके हाथ में किताबें रहती थी। वह कितना खाते थे, क्या
खाते थे, उन्हे
पता नही चलता था। पाखाना जाते समय में काख में किताब लेकर जाते थे।
मेरा यह सब कहने का कारण है, वह
जितनी किताबें पढ़ते थे
उन सभी के लेखकों और किताबों के बारे में सात-आठ पेज
लिखकर चिट्ठी के माध्यम से मुझे
भेज रहे थे। आरंभ में
प्रेम की बातें और अंत में भी प्रेम की बातें और बीच में साहित्य की आलोचना। वह दूसरे
किसी और को भी अपना लब्ध ज्ञान बांट रहे थे। वह आदमी उस समय
का चर्चित गाल्पिक कन्हैईलाल दास
थे। वे दोनो गहरे दोस्त थे।
उनके
पास सप्ताह में तीन-चार, आठ दस पेज की मोटी चिट्ठी आ रही थी।
छाती में व्याकुलता लिए
मैं पोस्टमेन की प्रतीक्षा करती थी। माई स्वीट हार्ट! माई लवली, मेरी प्रियतमा गौतमी। ऐसे-ऐसे नाम के संबोधन
चिट्ठी में लिखते थे। ज्यादातर तीन पंक्तियों का संबोधन होता था। अंत में 'क'
शब्द रहता था। जो कि उस समय चुंबन लेना
तो दूर की बात तो हाथ तक
नहीं पकडे जाते थे। मैं उनके सामने सोफा में बैठी रहती थी, गपशप खत्म होने के बाद क्या कहूंगी,
मैं अपना चेहरा नीचे छुकाकर बैठी रहती थी। वह नाक सौं-सौं करके मुंह उठाकर हंस
देते थे।
उनकी
चिट्ठी से मेरा पाँशा चेकब, समरसेट मम, दास्तोवस्की, लरेंस, अलंग रब, गीइट जॉन ऑफ लाइक, इंमिग्वे
बर्जिनिया बूल्फ गासिया, कलिबूभा फ्लाई,
द फ्लेग मे पॉल, इन
दंपत्तियों के विषय में अत्यंत जानकारी हमें प्राप्त हुई थी। खाली चिट्ठियों में
आलोचना नहीं करते थे जब बी घर आते थे वही किताब देकर जाते थे। कम उम्र में
अंग्रेजी समझना कष्टकर था, फिर भी मैं पढ़ रही थी क्योंकि किताब के
संबंध में मुझे बहुत कुछ जानकारी मुझे मिल गई थी।
जगदीश
सन
1972
में मार्क्सवाद को छोड़कर स्थितिवादी दर्शन की तरफ झुकने लगे। उनकी प्रेमिका या शिष्या होने के
हिसाब से मेरे लेखन में भी
परिवर्तन आने लगा।
जगदीश की कहानियां उस समय ओड़िया पाठकों का ध्यान आकर्षित
कर रही थी। उस समय ज्यादातर सारी पत्रिकाओं में
उनके लेख आते थे। झंकार, आसंता
काली, नवरवि, समावेश
के अलावा दूसरी सारी छोटी पत्रिकाओं में वह छाए रहते थे। बहुत ही प्रोलिफिक थे अपने लेखन-कर्म में।
सन
1972-73
की बात है। मैं ढ़ेंकानाल कॉलेज में पढ़ती थी। मेरी दो सहेलियों अपने प्रेम के बारे में बीच-बीच में मुझे
सुनाया करती थी। मगर मैं किसी को कुछ नहीं बोलती थी। वे ग मुझे कसम दिलाकर बाध्य करके
पूछती थी," तुम्हारा
प्रेमी कौन है? मैं केवल कहती थी मेरा प्रेमी 'यम' हैं। वे हंस-हंसकर लोट-पोट हो जाती थी।
सच
कहूँ, उस समय तक जगदीश को प्रेम कर रही हूं
या नहीं, संदेह
में थी। वह मेरा प्रेम था या
इन्फेछूएशन? मेरा एक प्रेमी है और वह यही आदमी है, मैं स्वीकार नहीं कर पाती थी। उनकी
चिट्ठी के लिए भीतर-भीतर बहुत व्याकुल रहती थी। उनके आने से मुझे डर लग रहा था। मगर वह प्रेम था
क्या?
जगदीश
चिट्ठी दे रहे थे बीच-बीच कुछ खो जाती थी एक-दो। कौन उनकी चिट्ठी को ले जा रहा था, मैं
नहीं कह पाऊंगी? इतना बडा परिवार, सबका कौतूहल था। जगदीश कभी-कभी
असन्तुष्ट हो रहे थे। मगर मैं भी लाचार थी, क्या करूंगी?
सन
1974-75
में ओड़िया साहित्य में जिन लोकप्रिय साहित्यकारों ने हलचल मचाई थी, उनकी
अगली पंक्ति में थे, सत्यमिश्र, कन्हैई लाल दास,
जगदीश मोहंती, अशोक चंदन, रवि पुहान आदि। उनकी कहानियों के पात्र वे खुद थे। यह कहनियों में एक नया मोड़ और नई रूचि थी। किसी भी पत्रिका मैं मुझे तीन लोगों की कहानियां पढ़ने में बहुत अच्छी लगती थी उनमें सत्य, कन्हैई, जगदीश। उस समय कन्हैई के वियोग और सत्यमिश्रा की नीरवता से बहुत क्षति हुई। उस समय जगदीश चर्चा के शीर्ष पर थे। इसलिए प्रशंसक अनेक होने पर भी
शत्रु भी अनेक थे। उनके पूर्ववर्ती कुछ लेखक उनकी आलोचना करने में पीछे नहीं हटते थे। लेकिन साधारण पाठक इस ईर्ष्या-द्वेष के चक्कर में नहीं
पड रहे थे। उस समय वीणा
मोहंती के बाद दूर-दूर तक कोई लेखिका नजर नहीं आ रही थी। (जो भी लिख रहे थे, सब
पुरुष प्रधान के
एकक्षत्र राज से मुक्त नहीं हो पा रहे थे) उस समय यशोधरा मिश्र की कलम की सक्रियता पाठकों की ध्यान-आकर्षण कर रही थी।
उस
समय मेरी कहानी ‘दर्पण में अनजान
चेहरा’,‘आसंता
काली’ में
प्रकाशित हुई थी। कहने का अभिप्राय एक नई पीढ़ी के लेखक की सारी तकनीकियां थी उसमें। इस कहानी के प्रकाशित होने के बाद
बहुत सारे पाठकों की चिट्ठियां मुझे मिलने लगी थी।
उन पाठकों में कुछ वरिष्ठ लेखक भी थे, उनकी चिट्ठी मिलने से मेरे पांव जमीन पर
नहीं पड रहे थे। वे दो महान
लेखक थे- अखिल मोहन
पटनायक और जगन्नाथ प्रसाद दास। मेरा सीना खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा था। उस समय अखिल बाबू की कहानी ‘डिमरि फूल’ (गूलर का फूल) कॉलेज
में पढ़ाई जाती थी। मैं उन दोनो चिट्ठियों को बहुत समय संभाल कर रखा था।
मैने
वह बात जगदीश को बताई थी। उन्होंने मुझे कहा था- तुम झंकार में क्यों नही भेज रही हो?
उनकी
बात सुनकर मैंने अपनी एक कहानी झंकार को भेज दी। दो महीने बाद 1975
के मई महीने में वह कहानी प्रकाशित हुई थी। झंकार पत्रिका को ओड़िया साहित्य में
इतना गुरुत्व दिया जाता है, मुझे
पता न था। कॉलेज में एक दिन सर लोग स्टॉफ कॉमन रुम में बुलाकर मुझे पूछा- झंकार
में जो कहानी प्रकाशित हुई वह तुम्हारी है? मैने हामी भरी। वे लोग बहुत खुश हो गए
थे। उस समय ओड़िया विषय में रवि नारायण बराल विभागाध्यक्ष थे। उनका भी झंकार में
कहानियां प्रकाशित हो रही थी। उस दिन उन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया था औैर
अच्छी कहानियां लिखने के लिए प्रेरित भी।
उस समय मैंने आई॰ ए॰
पास करके बी॰ए॰ में प्रवेश लिया ही था, सर के प्रोत्साहन से मैं इतना मुग्ध हो गई
थी कि ओड़िया ऑनर्स लेकर पढाई करने लगी।
मेरा झंकार पत्रिका में छपने के समय जगदीश चर्चा के शीर्ष पर थे। सारी यूनिवर्सटी और बड़े या छोटे कॉलेज में जगदीश के प्रशंसक भरे
पड़े थे। पहले यूनिवर्सटी
साहित्य के कारखाना माने जाते थे। वहां से लड़के निकलकर ओड़िया साहित्य
में हलचल पैदा करते थे। 1973 में जगदीश का ‘अलग-अलग वैतरणी’
कहानी संग्रह
प्रकाशित हुई थी। ‘अलग-अलग वैतरणी’ का कथानक
बिलकुल अलग था, लेकिन उसमें
गौतमी छुपकर बैठी थी।
पहले ही पाठकों ने गौतमी को कहानी के नायक की प्रेमिका के
रुप में स्वीकार कर लिया था।
जबकि मैं उसमें अविकल विद्यमान थी,
किन्तु यह बात मेरे सिवाय किसी और को पता होना संभव नहीं था। कहानी का
कथानक बहुत जबरदस्त था, वहां गौतमी गौण थी। गौतमी को लेकर जगदीश
का परवर्ती कहानियां प्रकाशित हुई थी ‘आहत अर्जुन’। इन कहानियों में गौतमी को लेकर जो अप्रीतिकर स्थिति उत्पन्न हुई थी,
उसका वर्णन किया गया था। वह
अविकल सत्य था। जगदीश को कई
बार मना करने के बावजूद भी
वह दौड़कर हमारे घर चले आते थे। एक रक्षणशील मध्यवित्त परिवार था
हमारा। किसी मध्यवित्त परिवार में लड़की को इतनी स्वाधीनता दी जाएगी? वह
मेरी स्थिति समझते थे। मगर अपनी इच्छा का दमन कर नहीं पा रहे थे। अवसर मिलते ही किसी न किसी बहाने हमारे घर चले आते थे। अगर मेरा कोई बडा भाई और
गुंडा परिवार होता तो उनकी अवश्य पिटाई हो जाती।
पिताजी
और मां मुंह से कुछ भी
बोल नहीं पा रहे थे, मगर सतर्क दृष्टि से मुझे देखने लगे थे।
और जगदीश को हमारे घर न आने के लिए कह रहे थे। फिर भी उनको देखने के लिए मेरी
इच्छा हो रही थी। गौतमी को लेकर उनकी
तीसरी कहानी। कहानी छप गई थी।
कहानी का शीर्षक था - 'यह एक विषाद का खेल'।
मैं
बी॰ए॰ स्नातक दूसरे वर्ष की छात्रा थी। हठात
एक दिन दस से साढ़े दस बजे
वह घर पहुंच गए। वह
हमारे मुख्य द्वार में प्रवेश कर रहे
थे, उस समय मैं किताब लेकर कॉलेज जाने के लिए चप्पल पहन रही थी। पिताजी दरवाजे के
पास में बैठकर राजमिस्त्री का काम देख रहे थे। उस समय हमारे ऊपर माले का काम चल रहा था। छत गिराने के लिए लोहे की छड़ें मोड़ी जा रही थी। जगदीश, पिताजी और मैं आमने-सामने थे। मुझे ऐसे लग रहा था
जैसे कि मैं रक्तशून्य हो गई हूं। मैं जगदीश को न
पहचानने का स्वांग
भरते हुए कॉलेज चली गई थी।
प्रचंड क्रोध और दुख से टूट गई थी मैं। क्रोध इसलिए कि
छुट्टी के दिन न आकर बिना किसी पूर्व सूचना के कॉलेज के दिन क्यों चले आए और दुख इसलिए कि वह सबसे हतभागा प्रेमी जिसकी प्रेमिका देखने के बाद भी अनदेखा कर चली गई। कक्षा में मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। क्या पढ़ाई हो
रही है या नहीं, मुझे पता नहीं चल
रहा था। मेरा मन घर की तरफ था। जगदीश ने जरुर अपमानित अनुभव किया होगा। आखिरकर एकाध शब्द तो मुझे कहना
चाहिए था। मेरे सिवाय उनके साथ घर के किसी आदमी से कभी बात करते हुए न देखा, न सुना। शायद वह भगवान का एक मैजिक था या फिर मेरी नीरव अबाधता।
मैं
उस दिन आधे रास्ते से घर लौट आई थी। तबीयत
ठीक नहीं लग रही है, कहकर कॉलेज बस की प्रतीक्षा किए बगैर दो-तीन पीरीयड छोडकर तीन-चार किलोमीटर
पैदल चलकर घर पहुंचकर देखा कि ड्रार्इंग रूम के सेंटर टेबल के ऊपर नाश्ते की प्लेट और पानी का खाली गिलास जगदीश की
उपस्थिति दर्ज करवा रही थी।
अपने
आपको धिक्कार रही थी। गाली दे रही थी. हमारे घर में उनकी असहायता की कल्पना कर रही
थी। और क्रोध आ रहा था उनकी
मूर्खता पर।
इन सारी
बातों का उनकी कहानी ‘एक विषाद खेल में’, अविकल
ढंग से वर्णन किया गया था। उस
समय सबसे मजेदार चीज
थी- बहुत सारी लडकियां अपने को जगदीश की गौतमी
समझ रही थी। मैं उनका नाम नहीं बताऊंगी क्योंकि उनमें से कोई-कोई अभी भी लेखन में
सक्रिय हैं।
गौतमी
साहित्य में ऐसी हलचल? इसलिए गौतमी के स्थान पर अपने आपको रखने
के लिए कौन नहीं चाहेगा? सबसे बडी बात थी जगदीश की नीरवता। उनके प्रियपाठक उन्हें यूनिवर्सिटी में घेरे रहते थे। नौजवान उन्हें पूछ रहे थे,
गौतमी कौन है? वह
चुपचाप हंस देते थे। उनकी रहस्यमयी हंसी के लिए कुछ युवकों ने गौतमी कैसी होगी, के बारे कल्पना
करना शुरु कर दिया था। गौतमी देखने में कैसी होगी, उनके
पास बहुत चिट्ठियाँ आ रही थी। उन चिट्ठियों को मैंने खुद पढ़ा था। किसी ने लिखा था, गौतमी दुबली- पतली, गोरी, लंबे बालों की चोटी गूँथकर किसी कुएं की मुंडेर पर बैठकर चंद्रमा को निहार
रही होगी। किसी ने लिखा था, साँवली और बहुत शर्मीली होगी गौतमी। किसी-किसी ने लिखा था शांत-स्वभाव वाली और सिसकियों में रोने वाली लड़की होगी। ऐसी-ऐसी बहुत सारी बातें लिखी हुई
थी।
मेरी
उस समय झंकार में कहानियां प्रकाशित
हो रही थी। न तो मैंने उस समय कटक देखा था और न ही महताब को। सरोज महांति को भी नहीं देखा था।
जगदीश ने मुझे प्रस्ताव दिया था, "जब तुम्हीर बडी बहिन रेवेन्सा में पढ़ रही हैं, तुम
'विषुब
मिलन'
पर क्यों नहीं आती हो? प्रजातंत्र प्रचार समिति तरफ से विषुव
मिलन का आयोजन किया जा रहा है और अनेक साहित्यकार वहां पहुंच रहे हैं।"
मैंने
बड़ी बहिन को यह बात बताने पर उसने
कहा- “ठीक
है तुम आओ, हम विषुब मिलन में जाएंगे।’’
अप्रेल
बारह,तेरह और चौदह- तीन दिन तक विषुब मिलन का समारोह
आयोजित होता है, यह बात मुझे
द में पता चली। बारह
तारीख संध्या के समय मीटींग जाना संभव नहीं था। क्योंकि दीदी को संध्या के समय हॉस्टल से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी। दीदी इकानोमिक्स में एम.ए करने वाली
कवयित्री वनलता दास और मैं। प्रजातंत्र प्रचार समिति के पास सूरज सिनेमा हॉल में
विषुब मिलन आयोजन हुआ था। हमारे पहुंचने तक कविता पाठ शुरु हो चुका था। हम चौकी पर बैठते
ही कोई एक चंदन-टीका लगाने के लिए हाजिर हो गया और दूसरे ने फूल-माला लाकर दी। भीतर का परिवेश बेहद
शांत व पवित्र लग रहा था। आगे से पीछे की तरफ लगभग तीन
पंक्तियों की सीटें
भर चुकी थी। मात्र उतनी
भीड़ में भी मैं जगदीश को देख नहीं पा रही थी। मेरी
आंखें बार-बार आगे-पीछे और दाएँ-बाएँ
दोनों तरफ इधर-उधर घूर रही थी। कुछ समय बाद मैंने देखा, मैं जहां बैठी थी,
उसी दरवाजे के पास जगदीश खड़े हुए थे। हमें
देखकर वह हंसने लगे। वनलता और
मेरी दीदी पास में
होने के कारण मैंने
बिना मुस्कराए कुछ जवाब नहीं दिया।
स्थानीय
वरिष्ठ कविगण मंच पर कविता को गाने की तरह गाकर बहुत बोर कर रहे थे। बाद में कुछ
नामी-धामी चर्चित कवि अपनी कविता पाठ करने लगे। एक-दो घंटे के बाद देखने पर जिन
लोगों को कविता पढ़नी थी, उन्हें छोड़कर बाकी साहित्यकार लोग बाहर में खडे होकर अड्डा
जमा रह थे। वहां पहली बार मैंने
कन्हैई को देखा था। जगदीश और कन्हैई
बाहर में खडे होकर गप्प हांक रहे थे। दोनों के बीच में घनिष्ठ मित्रता थी, यह
बात मुझे पहले से मालूम थी। कन्हैई बांग्ला की किताबें पढ़ रहे थे और जगदीश
अंग्रेजी। दोनों पत्रिकाओं
और अपनी पढ़ी किताबों की समालोचना कर रहे
थे।
विषुब
मिलन के अंतिम दिन की परंपरा के अनुसार बेल का शरबत पीने के लिए दिया जाता था।
शायद डॉक्टर भासम उस दिन मुख्य अतिथि थे। डॉ भासम आस्ट्रेलियन थे। ढ़ेंकानाल कॉलेज के
पालिटिकल साइंस के सेमिनार में कुछ दिन पहले आए थे। मुझे और बाकी दो तीन जनों को
पुष्पगुच्छ देने के लिए नियुक्त किया गया था। मैं जब बुके देने लगी, डॉ भासम ने अपनी एक आंख बंद कर दी। (संभवत हम लोग उसे आंख मारना समझते थे।) मुझे बहुत शर्म आ रही थी। शायद उन्होंने स्नेहवश
ऐसा किया होगा, बाद में मुझे याद आया।
सभा
खत्म होने के बाद बाहर निकलते समय जगदीश ने कुछ
साहित्यकारों के साथ मेरा परिचय करवाया। वे थे- रामचंद्र बेहेरा, दीपक
मिश्रा, उमा
शंकर मिश्रा, सरोज
रंजन मोहंती आदि। वहां मैने देखा, ओड़िया
साहित्य में जगदीश की बहुत इज्जत हैं। उनकी एक कहानी विषुव अंक में प्रकाशित
हुई थी। वरिष्ठ साहित्यकार उनकी पुरानी कहानियों की बहुत तारीफ करते थे, यह सुनकर मेरा सीना खुशी से फूले नहीं
समाया। उस दिन मैं, दीदी और जगदीश ‘आंधी’ फिल्म देखने के लिए प्रभात सिनेमा हॉल
में गए। मेटनी-शो देखने के बाद शाम हो गई थी। दूसरे दिन सुबह मैं ढेंकानाल लौट आई
थी।
सन 1975
में जगदीश कटक छोड़कर राजगांगपुर आ गए थे।
राजगांगपुर से उनकी चिट्ठी पहुँचने
में चार-पांच दिन लग
रहे थे। कटक शहर छोड़कर इतना दूर जाने के कारण वह
छटपटा रहे थे। उनके
दूर चले जाने के कारण हम दोनों का मिलना-जुलना कम हो गया था। उस समय वे चिट्ठी में
लिख रहे थे, दौड़कर
आने की बहुत इच्छा हो रही
हैं। मुझे जहां तक याद आ रहा है, राजगांगपुर
में रहते समय उनका दो अन-ओड़िया साहित्यकारों से परिचय
हो गया था। एक सुशील दाहिमा, हिन्दी-पत्रिका 'कलिंग' के वर्तमान संपादक और दूसरे उर्दू कवि
युसूफ जमाल। यह उन दिनों की बात है,
जब जगदीश ने हिंदी में कहानी लिखना शुरु किया था। उनकी हिंदी कहानी ‘खोए
हुए चेहरे
की तलाश’ धर्मयुग पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।बाद में
उनकी कहानियाँ धर्मयुग और सरिता में प्रकाशित होने लगी थी। तब ‘खोए
हुए जेवर की तलाश’ की कहानी लेकर एक छोटी-सी घटना घटी थी।
जगदीश
ने कहानी लिखने के बाद साहित्यकार राधू
मिश्रा (तत्कालीन राजभाषा अधिकारी, राऊरकेला स्टील प्लांट) को दिखाया था।
साधू मिश्रा ने कहा था, सब-कुछ ठीक-ठाक है।कहानी को छापने के लिए तुम भेज दो, कुछ ही दिन बाद धन्यवाद सहित तुम्हारे पास लौट
आएगी ।
जगदीश
ने बहुत दुखी मन से यह बात चिट्ठी में लिखी थी। मैंने कहा था, "आप कहानी भेज दीजिए। प्रकाशित होगा तो ठीक, और अगर नहीं होगा तो भी ठीक। हमारी कहानी
अगर हिंदी भाषा में नहीं निकलेगी तो क्यों दुख लगेगा? "
किन्तु कहानी भेजने के कुछ दिन बाद धर्मवीर
भारती से जगदीश के पास एक चिट्ठी आई
थी, जिसमें लिखा हुआ था- "हिन्दी जगत में आपका स्वागत है। आगामी
अंक में आपकी कहानी धर्मयुग में प्रकाशित होने जा रही है।"
कहानी
प्रकाशित होने के बाद हिन्दी
के बड़े साहित्यकार भीष्म
सहानी अर्थात् फिल्म अभिनेता बलराज साहनी की पत्नी संतोष साहनी ने प्रशंसा में एक चिट्ठी लिखी थी। उन्होंने ऐसे ही कहानियां लिखने के लिए
उत्साहवर्धन किया था।
1976 में, मैं कटक की रेवेन्सा कॉलेज में पढ़ने आई
थी। ठीक उसी समय मेरी बड़ी दीदी रेवेन्सा कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर घर लौट आई थी। पिताजी के मन की धारणा थी कि यूनिवर्सटी में पढ़ने से लड़कियां बिगड़ जाती है। ढ़ेंकानाल से कटक सिर्फ एक घंटे का
रास्ता है। प्रति सप्ताह में पिताजी का कटक में कुछ न कुछ काम रहता था। इसलिए कटक
में पढ़ाई कराना सुरक्षित समझते थे। फिर भी दीदी जब कटक में पढ़ने गई तो पिताजी ने मेरे मौसाजी और कुछ शुभेच्छु लोगों की राय ली थी। किसी ने कहा था, "जाने
दीजिए, कटक
तो पास में है।" किसी ने कहा था, "बाहर जाने से अगर किसी की नजर पड़ गई तो एक अच्छा वर भी मिल जाएगा।" यह भी बात सही थी। हमारी लेडिज हॉस्टल के सुपरिडेंटेंट ने अपने भाई का प्रस्ताव लाया था। और दीदी की रेवेंसा छोड़ते ही शादी हो
गई थी। बाद में मेरी दीदी ने कहा था, कटक में पढ़ने से पहले पिताजी ने उससे
कागज में एक नोट लिखवाया था कि मैं ऐसा कोई काम नहीं
करूंगी जिससे मेरे मां-पिता का नाम बदनाम होगा।
आश्चर्य
की बात थी, मुझे यह
शर्तनामा नहीं लिखना पड़ा। जैसे ईश्वर मेरे लिए रास्ता साफ करते जा रहे थे। और जगदीश के हमारे घर आने को स्वाभाविक प्रक्रिया मान लिया गया था। ठीक उस समय मुझे बाहर पढाई करने जाने की बात को सभी ने सामान्य मान लिया था। यह सच था, मेरी
दीदी मुझसे ज्यादा शृंखलित और आशावादी थी।
मैं
कटक पढ़ने के लिए आ गई थी। जगदीश ने राजगांगपुर की नौकरी छोड़कर रामपुर कॉलोनी में नौकरी ज्वाइन कर लिया था। दोनो जगह पश्चिम ओड़िशा में थी। राजगांगपुर सीमेंट
कारखाने की नौकरी से कोयला की खान में नौकरी करने से ज्यादा तनख्वाह मिल रही थी।
सफेद चादर ढांकने वाले शहर को छोडकर
वह काला चादर ढंकने
वाले शहर ब्राजराजनगर में आ गए। चूंकि राजगांगपुर राऊरकेला के पास में था।
इसलिए छुट्टी के दिनों में जगदीश राऊरकेला जाकर सदानंद के साथ मिलकर आते थे। सिर्फ
रामपुर कोलियरी?
पांचवी
कक्षा में भूगोल में पढ़ा था कि ओड़िशा के तालचेर और संबलपुर के रामपुर में कोयले की
खदानें हैं। रामपुर कोलियरी जैसे सब अंचलों से विछिन्न एक दूसरा अलग ग्रह हो। जैसे यंत्रणा
की धरती बनकर आई हो वह
कोलियरी उनके लिए।
उन्हें लग रहा था, जैसे वह निर्वासन में आ गए हो। फिर भी उस निर्वासन के भीतर उन्होंने बिता दिए दीर्घ पैंतीस साल।
रामपुर कोलियरी ने कितना
भी निर्वासन क्यों न दिया हो, मगर जगदीश को उस जगह ने बहुत उपन्यास और कहानियां प्रदान की थी।
निर्वासन,....... निर्वासन चित्कार करने वाले लड़के को उस मिट्टी की माया ने बांध दिया, उनकी शादी
हो गई ,वह पिता बन
गए और ओड़िया साहित्य को कुछ
अमूल्य कहानियों का
उपहार प्रदान किया।
जगदीश की उस समय ‘निर्वासनरे गोटिए कवि’ नाम से एक कहानी भी प्रकाशित हुई थी। जिसमें पच्चीस साल के युवक के छटपटाहट के भाव स्पष्ट झलक रहे थे। रामपुर
कोलियरी में साहित्य नहीं, गौतमी, कॉलेज चौक नहीं। ‘निर्वासनरे गोटिए कवि’ कहानी एक कविता की शैली में थी गौतमी को लेकर। वह कविता जन्म लेने से पहले उनकी एक चिट्ठी मेरे पास पहुंच
गई थी।
उस
समय कुछ युवक उन कविताओं को रट लेते थे। जी.एम कॉलेज (गंगाधर मेहेर कॉलेज) में
पढ़ते समय कवि स्वरूप महापात्र ने
संबलपुर रेडियो स्टेशन की युवावाणी पर गौतमी को लेकर पहली बार उस कविता गाया
था। कविता को स्वर दिया था प्रभुदत्त प्रधान ने, जो कि रंगवती-गाने के संगीत निर्देशक
थे। गौतमी को लेकर लिखी गई
कविता मैं सुन नहीं
पाई थी। हमारी शादी के उपरांत
हमारे दो बच्चे होने
के बाद एक दिन स्वरुप हमारे घर रामपुर
कोलियरी आए थे, उस समय वह एक रात हमारे साथ रहे भी थे। मैने उनसे अनुरोध किया कि इस गाने को फिर
से एक बार सुनाने के
लिए। उस गाने को मैने रिकार्ड भी कर
लिया था। रामपुर
कोलियरी ने सिर्फ उन्हें नहीं मुझे
भी बहुत कष्ट दिया
था। जब मैं शादी के बाद 1981
में रामपुर आई तब खदान तक जाने के लिए पक्की सड़क अवश्य थी। मगर रामपुर कॉलोनी में जाने के लिए पैदल जाना पड़ता था, और वह भी पहाड़ियों के रास्ते से। रामपुर कोलियरी में केवल छोटे-बड़े पहाड़ औैर उसकी तलहटी में ईब नदी।
मेरे वहाँ
आने तक क्वार्टर में
इलेक्ट्रिसिटी और पानी की व्यवस्था हो
गई थी। जब सन 1976 को जगदीश वहाँ आए थे, तब न तो
रास्ता था और न ही
रोशनी व पानी की व्यवस्था। टैंकर में पानी आता
था। लोग अपने घर पानी उठाकर ले जाते थे।
इस तरह ब्रजराजनगर एक 'एलियनेटेड' जगह और
रामपुर कोलियरी तो
उससे ज्यादा 'एलियनेटेड' जगह।
ब्राजराजनगर ओड़िशा का हिस्सा होते हुए भी आधे से अधिक लोग हिन्दी में बात करते थे। इस पहाड़ी इलाके में रिक्शा भी
नहीं चलता था। अभी भी नहीं चलता है। बस से उतरने से, सामने
कुली लोग खडे मिलते थे, सामान ढोने के लिए।
रामपुर
कोलियरी में होटल नहीं था। होगा
भी तो, शायद चाय-नाश्ते करने
के लिए एकाध होटल होगा। अगर कोई अविवाहित नौकरी के लिए पहुंचता था तो उसके लिए पेइंग गेस्ट होना बाध्य था। आदमी
पातालपुरी को जाते थे ,काम करने के लिए। अगर काम से सुरक्षित
लौट आते थे तो खुश हो जाते थे, चलो एक दिन तो जिंदा रहा। यहां मनोरंजन की बात कहने से सिर्फ
तीन चीजें थी। एक दारु, एक जुआ और तीसरा सेक्स-स्कैंडल। अगर आज कोई औरत
किसी को देखकर
मुस्करा देती थी, तो कल
उसे उठाकर लेकर घर में बिठा देते थे। जाति, गोत्र, उम्र, विवाहित-अविवाहित कोई मायने नहीं रखता था। मैंने अपने रहते समय भी यह सब देखा था। सोचने की बात यह है, संजय और गौतमी के
प्रेम का इस रामपुर कोलियरी से संबंध? मैं ये सब क्यों कह रही हूं। रामपुर
कोलियरी के निर्वासन
को भोगते हुए जगदीश
का प्रेम परिपक्व हो
गया था। यही नहीं, उसी
अंधेरे अशिक्षा अखाद्य के अंदर हिप्पी-कट बाल, शर्ट पर बटन, टूटे लंबी मोहरी वाला पेंट पहनकर एक बोहेमियान आदमी जी रहा था। जीना उसके लिए मजबूरी था। छोटे भाई की पढाई और गौतमी को पाने के लिए। नौकरी नहीं होगी अगर तो कैसे आएगी गौतमी। अपने घर को कैसे बनाएँगे वह मोती झरण।
असहायता
से टूट जाते थे जगदीश। इस जगह आएगी उनकी
प्रेमिका। यहां ऐसी जगह को? एक कंप्लेक्स उनको असहाय करता था, गौतमी
के हॉस्टल का खर्च उनकी तनख्वाह के बराबर
था। सुखी होगी तो? उसके
बाद उन्होंने लिखी थी कुछ
कहानियाँ- "खोर्दा लुंगी
पहने हुए आदमी का पता","स्तब्ध-महारथी","
दक्षिण दुआरी घर"
और "एलबम में कई चेहरे"।
"आप
लुंगी पहनते हो?" पता नहीं ,क्यों मैं
ऐसा पूछकर जगदीश पर हंसी थी। यह बात उनके हृदय को लग गई थी, इसलिए अपनी कहानी का शीर्षक रखा था ‘खोर्दा लुंगी पहने
हुए आदमी का पता"। (जबकि हमारी शादी के बाद उन्होंने कभी लुंगी नहीं पहनी थी)। वर्ष 1976 में जगदीश के पिताजी का अचानक अवसान हो
गया। वह अपने पिताजी को बहुत प्यार करते थे। पिताजी के देहांत से मर्माहत जगदीश, ‘एलबम
में कई चेहरे’ के
नाम से एक लंबी कहानी लिखी थी। उस
कहानी के लिए उन्हें मिली थी शताधिक चिट्ठियां।
उस
समय मैं कटक में एक
साथ दो कोर्स कर रही थी।
सुबह मधुसुदन लॉं कॉलेज में लॉ पढ़ने जाती थी, लौटने
के बाद फिर से ग्यारह बजे रेवेन्सा जा रही थी। लॉ कॉलेज से आते समय रास्ते में पड़ता था कॉलेज चौक पोस्ट
ऑफिस। मैं प्रतिदिन पोस्ट ऑफिस होते
हुए गुजरती थी। खिड़की के
पास खडी होकर पोस्टमेन से पूछती थी मेरे नाम से कोई चिट्ठी आई है या नहीं? मेरे
नाम से कोई न कोई चिट्ठी रहती थी। कभी पाठकों की तो कभी जगदीश की। पीले रंग के
लिफाफे पर बीज जैसे केपिटल लेटर में मेरा नाम लिखी
हुई चिट्ठियां मुझे
सबसे ज्यादा प्रिय
थी। वे चिट्ठियां अंदर
से चारो तरफ गोंद लगाकर
सफेद कागज में ऐसे लिपटी हुई थी कि अगर कोई चाहे तो पानी में भिगोकर उन सब
चिट्ठियों को निकाल कर, पढ़ने के बाद फिर से पहले की तरह रख पाएगा। यह अभ्यास उनका पहले से ही था।
इस
हल्दी रंग के लिफाफा किताब के अंदर रखकर
छाती से चिपकाकर झुककर जाते समय बिजली चमक उठी थी छाती
के भीतर। उस लिफाफे को मिलने पर
मैंने सोचा, जैसे सब कुछ मुझे
मिल गया हो। चिट्ठी
को मैंने तुरंत पढ़ा नहीं था। बिछौने के नीचे रखकर
खाना खाकर ओडिया विभाग की क्लास करने मैं चली जाती थी। मगर छाती के अंदर छुपी
रहती थी महकते मालती
फूलों की खुशबू।
तीन
बजे वापस आकर मैं केंटीन जा रही थी। खिड़की के पास बैठकर
दोस्त के साथ गपशप कर रही थी। बहुत ही गुप्त तरीके से चिट्ठी के सुख को छिपा कर रखती थी छाती के अंदर। चिट्ठी मिल गई मतलब सब कुछ मिल गया हो। ऐसा सोच
रही थी। चिट्ठी अख्तियार करना मेरे लिए सबसे बड़ी बात थी। अंत में, सोने
से पहले मैं चिट्ठी को फाड़कर पढ़ती थी।
मेरे रेवेंसा में पढ़ाई करते समय कोई नहीं
जानता था कि गौतमी कौन है? किन्तु उस समय लिखनेवाली लड़कियां गौतमी होने की इच्छा प्रकट कर रही थी। उनका नाम मैं यहां नहीं बताऊंगी। तब उनकी जगदीश के नाम लिखी गई सारी चिट्ठियां मैं पढ़ रही थी और उनका आग्रह के बारे में जानती थी। हम
दोनो हमारे प्रेम-प्रसंग को छुपा कर रखना उचित समझ रहे थे। मैं इतनी ज्यादा अंतर्मुखी थी कि एम.ए के अंतिम साल तक मेरे दोस्तों को यह मालूम नहीं था कि
सरोजिनी साहू जो कहानियां लिखती हैं, वह उनके साथ पढ़ती हैं। एक बार पता नहीं कैसे यह बात मालूम हुई, मेरी छुट्टी होने के बाद वे लोग ‘ट्रिट’ मांगने लगे। इसलिए जगदीश के साथ प्रेम-प्रसंग के बारे में पता चलना ज्यादा कष्टकर था उनके लिए। सिर्फ एक को मालूम था,
वह थी मेरी रूममेट प्रतिमा नाएक। वह अंग्रेजी में एम.ए कर रही थी। उसे सिलाई अच्छी आती थी। इसलिए मैंने उससे जगदीश का स्वेटर बु नने के लिए अनुरोध किया था। जगदीश के पुराने कुर्ते से
मैंने अपने बालों में
बांधने के लिए रिबन
बना लिये थे।
हमारे
समय में रेवेन्सा में गौरांग दास, मनमोहन दास, श्यामाप्रसाद चौधरी, दिव्यसिंह
दास, अधिकारी
इत्यादि और वाणी विहार
में ऋषिकेश मलिक, प्रसन्न
मोहंती, शत्रुध्न पांडव, प्रवासिनी महाकुड आदि लेखन कार्य में
सक्रिय थे। श्यामा ने एक बार आकर कहा तुम्हारा झंकार में अमुक कहानी प्रकाशित हो रही है न? मैने
पूछा,
"आपको किसने कहा?" उसने हंसकर कहा,
"चिड़िया ने कहा।"
श्यामा मेरे जूनियर बेच में पढ़ रही थी। एक बार जगदीश कटक आए हुए थे। मेरे कटक आने के बाद उनक नौकरी का
स्थान दूर होने के
कारण कटक आना संभव नहीं हो पा रहा था। वह अपने साथ में लाए थे हाथ से तैयार किया हुआ एक वैनिटी बेग। उनकी भाभी ने वह बैग दिया था, मुझे उपहार देने के लिए। बैग को लेकर वह सीधे मेरे डिपार्टमेंट में चले आए थे। मैं उसे देखकर नर्वस हो गई थी। मैंने उन्हें जाने के लिए कह दिया था। वह साथ-साथ ही चले गए थे। शाम को हॉस्टल में आकर उन्होने मुझे बैग दिया और चले गए। मैने उसे कपबोर्ड की ऊपरी थाक में रख दिया था। थाक से नीचे झूल रहा था उसका फीता। लेडीज हॉस्टल में मेरा रुम नं 14
था। वह भी दूसरी मंजिल
पर था।
उस
दिन रात को जगदीश मेरे क्लासमेट के साथ कहीं से वापस आ रहे थे, साथ
में थे श्यामा, टिकी (डा. कुंज बिहारी दास के बेटा) मेरा क्लासमेट। उन लोगों ने वापस जाते समय पता नहीं किस तरह मेरे खुले कपबोर्ड
पर झूल रहे वैनिटी बैग को देख
लिया था। तभी उन्होंने अंदाज लगा लिया था कि मैं
गोतमी हो सकती हूं। इस बार जगदीश ने रामपुर कोलियरी वापस जाने से
पहले मेरे पास एक खत छोड़
दिया था पोस्टकार्ड में।
पोस्टकार्ड पर उनकी चिट्ठी देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा था। सबसे ज्यादा आश्चर्य हुआ
जब मुझे मालूम हुआ कि वह कटक छोड़कर नहीं गए हैं। उन्होंने चिट्ठी में लिखा था उनको चिकन पॉक्स हुआ
है और वह कटक मेडिकल में इंफेक्सन वार्ड में भर्ती हुए हैं। मैंने यह बात अपने रुममेट को कही थी, हम दोनों खोज-खोजकर उस वार्ड में पहुंचे थे,
जहां वह भर्ती हुए थे। उन्हें मेरे उस स्थान पर आने
की आशा भी नहीं थी। उनके सारे चेहरे पर फफोले जैसे हुए थे। एक खटिया पर लाल कंबल
औढ़कर वह सोए हुए थे। मुझे वह परिवेश बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था, एक
एलुमिनियम थाली और रंग छूटा शेल्फ। कुत्ते बरामदे में घूम रहे थे। ऊफ! भयानक दृश्य। उन्हें भेंट करने के बाद, हम
दोनों लौट आए थे।
उसी
साल विषुव मिलन में कटक आए थे जगदीश। विषुवमिलन के दूसरे दिन मैं और मेरी सहेली
बिन्दू दास पटनायक प्रजातन्त्र परिसर के उस उत्सव में गए थे। अचानक मैंने जगदीश को
मंच पर कवि के रूप में देखा था। एक गुलाबी कुर्ता और सफ़ेद पाजामा पहने हुए थे वह।
मंच पर अपनी कविता पढ़ रहे थे। वह कविता सुनकर मैं शर्म के मारे लाल हो गई थी। कहने
का मतलब वह कविता गौतमी को लेकर थी। उस कविता की अंतिम पंक्ति थी,"तुम्हारे
पाँव का अलता बनकर गौतमी मैं धन्य हो जाऊंगा।" बाद में वह कविता धरित्री अखबार में प्रकाशित हुई थी।
जब
मैं एम॰ए॰ अंतिम वर्ष की छात्रा थी, तब मेरे और जगदीश के बीच गलतफहमी पैदा
हुई थी। बचपन से मित्रता करने वाले लड़का-लड़की मेरे लिए समान थे। उसके अलावा
लेखनकार्य की वजह से मेरे पास बहुत-से पाठकों की चिट्ठियाँ आती थी। कोई -कोई मेरे
साथ फलर्टिंग करते थे। ये सारी बातें जगदीश को पता थी। हम दोनों ने एक-दूसरे से
कोई बात नहीं छुपाई थी। फिर भी जगदीश की कहानी का प्रशंसक, मेरी क्लास का एक लड़का मेरी विजिटर लिस्ट में था ।
सच
में मेरे मन में उसके
प्रति कोई दुर्बलता नही थी। मैं गप रही थी, खूब
स्वाभाविक तरीके से। उस समय पढाई की व्यस्तता और अन्यान्य व्यस्तता के कारण जगदीश की चिट्ठी का उत्तर देने में मुझे विलंब हो जाता था। या तो जगदीश को मेरी किसी
क्लासमेट
ने चुगली की थी या फिर मेरी अवहेलना से व्यथित होकर अचानक जगदीश एक दिन हॉस्टल
में हाजिर हो गए थे। दाढ़ी बढ़ी
हुई थी। बाल उड़ रहे थे
फुर्र-फुर्र। अपने शांतिनिकेतन बैग के अंदर से बहुत सारी चिट्ठियां मेरी नवी कक्षा से उस दिन तक मेरे भेजे हुए
फोटो निकालते हुए कहने
लगे, ये
सब रखो, मैं
जा रहा हूं। उनकी आंखें आंसूओं से छलक पड़ी
थी। मेरे आंखों में भी पानी आ गया था। जैसे एक आंधी-तूफान सभी क्षणों को उड़ाकर ले गया हो। मैंने पूछा, "क्या हुआ ? तुम सब क्यों लौटा रहे हो ?"
वह कहने
लगे कि शायद मैं तुम्हारे
जीवन में नहीं हूं। अब तुम स्वाधीन हो। जैसी इच्छा, जिससे इच्छा, उसी के साथ खुश रहो। बहुत कष्ट के साथ
उन्होंने मेरे दोस्त का नाम उच्चारित किया था। यद्यपि
उस लड़के को मैंने प्रेम नहीं किया था, लेकिन
मैं अपनी भूल समझ गई थी। उससे कुछ दिन पहले ऐसे भी उस लड़के के साथ मेरी लडाई हुई थी। झगड़े का
कारण था हॉस्टल के सामने मुझसे बात करते समय मेरी नाक पिचका दी थी। पता नहीं क्यों, मुझसे यह बर्दाश्त नहीं हुआ। मुझे गुस्सा आ गया था, मैने
उससे कहा था, इस प्रकार की हरकतें करने के लिए मेरे पास आने की कोई जरुरत नहीं है।
उसके बाद वह कभी नहीं आया। जो कुछ भी हो, जगदीश कुछ खत और फोटो वापस देकर चले गए
थे। मैं अपने रुम में आकर बहुत रोई थी। मैं क्या सचमुच किसीसे प्रेम करती हूं,
मेरा संस्कारी मन
मानने को तैयार नहीं था। मगर वह सब प्रेम था। नहीं तो मेरी
आंखों में आंसू क्यों भर आए थे?
सबकुछ
जानने के बाद मेरी रुममेट ने कहा, जो भी हो तुम्हारा मन्मथ( मेरा
वही क्लास मेट जिसके कारण हम दोनों के बीच मिसअंडरस्टेंडिंग पैदा हुई थी)
के साथ बातचीत करना
उचित नहीं था।
हमारे
बीच प्रेम था, हाँ प्रेम था, नहीं होता तो, मैंने जगदीश को क्यों कोई चिट्ठी लिखती?
जगदीश ने भी दो पंक्ति का उत्तर लिखा था। जगदीश का एक-दो पंक्ति का उत्तर मेरे लिए
कितना कष्टदायक था, मुझे पता है। दो-अढ़ाई महीने के बाद उनकी
संक्षिप्त चिट्ठी आने के बाद फिर से उन्होंने अपनी गौतमी को अपना लिया था।
फिर से धीरे-धीरे संपर्क घनिष्ठ होने लगे।
एम॰
ए॰ की पढ़ाई खत्म होने आ रही थी। घर में शादी के प्रस्ताव आने लगे। घरवालों के साथ
सहयोग कर रही थी हमारी हॉस्टल की सुपरिटेंडेंट। एक बार आकर कहने लगी,अरे
सुन! जल्दी-जल्दी साड़ी पहन लो। मैं उस समय बेलबॉटम और टॉप पहनती थी। साड़ी पहनकर बाल
बनाने की उसने परामर्श दी थी। मेरा काम पूरा होने के बाद मैंने देखा कि तीन औरतें
मैडम के साथ मेरे पास हाजिर हो गई। वे आकर मेरी खाट पर बैठ गई। मैडम उन्हें छोड़कर
चली गई। वे मेरी अलमीरा को खोज-खोजकर देखने लगी। मेरे तकिये को उलटाकर देखने लगी।
इस तरह जैसे मैंने किसी का मर्डर कर कोई पिस्टल छुपा रखी हो। मैं समझ गई थी कि वे
लोग क्या खोजना चाहते है। मैं भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि वे मेरा बिस्तर
पलटकर नहीं देखें। बिस्तर के नीचे थी जगदीश की सारी चिट्ठियाँ। फिर वे मुझे अपने
साथ नीचे ले गई। वहाँ एक वृद्ध भद्र आदमी मेरा इंतजार कर रहा था। मैडम ने मुझे कहा,
उन्हें नमस्कार करने के लिए। मेरा नमस्कार करते समय मेरी साड़ी पूरी तरह से
खिसक गई थी। मैडम बाद में मुझ पर गुस्सा हुई थी," साड़ी पहनना आता नहीं है, तो
कैसे शादी होगी ?"
कितने
कष्टों के बाद हम दोनों
हमारे पुराने संबंधों
में लौट आए थे, मगर अब विवाह
एक नई समस्या के रूप में दिखाई दे रहा था। कोई आदमी अमेरिका में क्या काम कर रहे
थे, वह
मुझे देखने आए थे।
मैं दूसरे
किसी के साथ विवाह
करना नहीं चाहती थी, मैं ऊपर वाले घर से नीचे नहीं आई थी।
पिताजी क्रोध में पंचम-हो
गए थे। कह रहे थे, "इतनी क्यों नखरे दिखा रही हो?" मैं उतर आई थी बिना किसी मेकअप में।
लड़के को पसंद आई थी या नहीं, मुझे पता नहीं। मेरा तो आग्रह भी नहीं
था।
इस
तरह की अनेक परीक्षाएं देनी पड़ रही थी मुझे? भगवान जैसे हम दोनों की परीक्षा ले रहे
हो। जहां से भी कोई प्रस्ताव आता था, मैं जगदीश को बता देती थी। ऊधर जगदीश
असहायता से टूट जाते थे,
मुझे पता नहीं था। एक बार उन्होंने चिट्ठी में लिखा था, “मुझे डर लग रहा है मैं तुम्हें सुखी रख
पाऊंगा? मेरी
जिम्मेदारियां अधिक औैर तनख्वाह कम,
और तुम तो पैसेवाली
घर की हो।”
नहीं, मैं
ऐसा नहीं सोच रही थी। ओड़िया साहित्य में ‘हीरो’ बनकर ऊभर रहे जगदीश की मैं प्रेमिका बन
अपने आप पर गर्व अनुभव कर रही थी। सारी यूनिवर्सिटियों में, रेवेन्सा
कॉलेज, जी.एम
कॉलेज में यहां तक कि मेडिकल कॉलेज में, आरईसी (राउरकेला इंजनियरिंग कॉलेज) में उनके
बहुत सारे फेन, चाहने वाले। मैंने
अनेक सभा समितियों
में देखा था। बहुत
सारे तो मुझे शादी के बाद
देखने आए थे।
एक
बार मेरे रुममेट और हमारे हॉस्टल की दो लड़कियों ने मुझे समझाया था, “तुमने
एलाइड केंडीडेट को भी मना कर दिया था ?”
क्या
वह एलाइड? कब
मुझे देखा उसने? कितनी
उम्र में शादी की बात
चली थी, मुझे पता न था। मेरी बड़ी बहिन कुछ दिन
पहले हॉस्टल में आई थी। शायद उसी ने मेरी किसी सहेली को कह दिया था। मेरे रिश्ते की बात चलते समय मेरे बहनोई ने मुझे पूछा था, “तुम
शादी के लिए राजी क्यों नहीं हो रही हो ? किसी
से प्यार तो नहीं हो गया ?”
“हाँ, मैं जगदीश मोहंती को प्यार करती हूं।”
वे
सब सुनकर नीरव हो गए थे। मगर घर में सभी को यह बात मालूम हो गई थी। यह बात सुनकर
घर में प्रलय आ गया था। मेरी बड़ी बहिन ने इसका विरोध
किया था कि एक अलाइड वर को छोड़कर मैं एक मामूली लड़के के साथ शादी करना चाहती हूं।
मेरे पिताजी ने विरोध किया था जाति को
लेकर। क्योंकि किस तरह वह सगे-संबंधियों और दोस्तों का इस छोटे शहर में सामना कर पाएंगे? उसके बाद सभी मुझे घर में दूसरी निगाहों
से देखने लगे थे। मेरे ऊपर सभी
की कड़ी नजरें रहने
लगी। पिताजी सोच रहे थे कि यह मेरा सामयिक मोह है। कुछ दिनों बाद छूट जाएगा। उस
समय तक हमारे संबंध आठ साल पार कर चुके थे।
मुझे खुश करने के लिए कीमती साड़ी, कीमती घड़ी, अन्यान्य उपहार घर में दिए जा रहे थे।
प्राय हर रविवार या छुट्टी के दिन माँ पीठा लेकर पहुंच जाती थी हॉस्टल में।
एम.ए
फाइनल ईयर की परीक्षा मे एक महीना बचा था। जगदीश विषुब मिलन के लिए कटक आ गए थे। मैं अपनी सहेली बिन्दू के साथ विषुब मिलन के लिए चली गई थी।
वहां मुझे जगदीश ने कहा, यहां मीटींग पूरी होने के बाद श्री
रामचंद्र भवन को जाएंगे। युवा लेखकों के सम्मेलन की मीटींग है। बिन्दू और मैं विषुब मिलन की मीटींग खत्म होने
के बाद श्रीरामचन्द्र भवन को गए थे। उस समय उत्कल साहित्य समाज के संपादक थे भगवान
नायक वर्मा। सभा के लिए कोई आदमी नहीं पहुंचा था। हम दोनों की वहां प्रतीक्षा करते समय नयागढ़ के दशरथी
पटनायक के साथ मुलाकात हो गई। वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं लाइब्रेरी के लिए संग्रहित कर रहे थे। बातों-बातों
में मैंने जब उनको 1970-72 में जगदीश और मेरे द्वारा संपादित पत्रिका पल्लव के बारे में बताया था, तो उन्होंने पल्लव
के तीन अंक मांग लिए थे। मेरे घर का पता-ठिकाना लिख लिया था।
मेरा एम.ए पास करने के बाद वे कई बार ढ़ेंकानाल हमारे घर को आए थे। पल्लव लेने के
साथ-साथ हमारे घर में चूडाभूजा (उनके पसंद का खाद्य) लेकर चले जाते थे। हाँ, रामचन्द्र भवन में तीन बजे के बाद मीटिंग शुरु हो गई थी। काफी लोगों ने मंच पर जाकर भाषण दिया। मैंने देखा, जगदीश उठे रहे
थे भाषण देने के लिए।
भाषम देने के समय बारबार वह अपना हाथ उठा रहे थे। अपना हाथ उठाते समय कंधे के पास
से पेट तक उनके शर्ट की
सिलाई फटी हुई थी। शर्ट के अंदर हवा भरने से फूला जा रहा था। यह देखकर मैं शर्म से लाल पड़ गई थी। साथ में बिंदू
थी, इसलिए
मुझे बहुत खराब लग रहा था।
उस
समय रत्नाकर चैनी जोर से कहने लगे, क्या जगदीश हवा खाने के लिए शर्ट को
इतना फाड़ दिए हो?
लेकिन
जगदीश ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। रत्नाकर चैनी ढ़ेंकानाल कॉलेज में मेरे सर थे।
हमारी शादी के बाद एक विषुब मिलन में टिपटॉप ड्रेस में जगदीश को देखकर कहा था, सरोजिनी
ने जगदीश को पूरी तरह से बदल दिया।
वह
विषुव मिलन के सीजन की बात है। जगदीश कटक से भुवनेश्वर
की ओर जा रहे थे, एक दिन सुबह-सुबह हॉस्टल में पहुंचकर कहने लगे," मैं तुमको प्रणाम करना चाहता हूं।"
बात
क्या है? मैंने
आश्चर्य के साथ कहा
था। “तेरी
सहेलियाँ क्या-क्या कारनामें
नहीं करती हैं। तुम तो बहुत
अच्छी लड़की हो।”
फिर भी
मुझे यह बात अस्पष्ट लग रही थी। बाद में उन्होंने कहा- "मैं वाणी विहार गया
था। तुम्हारी क्लासमेट ने मुझे केंटीन बुलाकर अपनी प्रेम कहानी सुनाई, जिसे
सुनकर मैं ताज्जुब हो गया । उसने एक से अधिक प्रेमियों के साथ पुरी में रात बिताई है। वह मुझे बता रही थी।"
उन्होंने
मुझे जिस लड़की का नाम बताया था, उसे मैं सामान्य रुप से जानती थी । उसका कोई प्रेमी था। उसने एक दिन 'झंकार' में मेरी कहानी पढ़कर कहा था- "तुम अपनी कहानी में
क्यों लिखती हो रोमियो औैर जुलियट के प्रेम के
बारे में ? क्यों नहीं लिखती हो उससे ज्यादा ?"
उसके
चले जाने के बाद मैने अपने दोस्तों
से पूछा था, "मेरी कहानी पर जो राय दे रही थी, वह कौन है?"
मेरी
सहेली हंसने लगी, "तू पहचानती नहीं है? वह अमुक
लड़की है। लिखने का काम करती है।"
जगदीश
के मुंह से उसके बारे में बात सुनकर मैं विश्वास
कर नहीं पाई। मैंने
जगदीश से पूछा था, "उसने तुम्हें ये सारी बातें क्यों कही ?"
"वही तो मैंने तुम्हारे क्लासमेट से पूछा था। तुम मुझे क्यों बता रही हो? यह कोई बहादूरी की बात तो नहीं है।"
जगदीश
और मेरे बीच में दीर्घ
दस साल का प्रेम था।
फिर भी हम दोनों ने इधर-उधर वन विहार का मन नहीं बनाया था। इस तरह के विषय पर मैंने
कभी खुलकर बातचीत नहीं की थी। हां, जब वह हमारे घर आते थे, जाते समय सभी की नजरों से
छुपकर चुंबन कर देते थे।
जब
मैं आई.ए. पढ़ रही थी, मेरी एक धारणा थी। चुंबन करने से गर्भ
ठहर जाता है। उसने जिस दिन चुंबन किया
था, उनके
जाने के बाद मैंने झगड़ते हुए एक लंबी चिट्ठी लिखी। उसमें मैंने चुंबन से होने वाले मेरे अंधकारमय भविष्य के बारे में लिखा
था।
वह
हंसी के मारे लोट-पोट हो रहे थे और
रीति-सम्मत सैक्सोलॉजी पर एक लेक्चर दिया था।
एम.ए
परीक्षा देने के बाद मेरे सारे दोस्त हॉस्टल छोड़कर चले गए थे। लेकिन मेरा फाइनल लॉ
की पढ़ाई होने के कारण मैं नहीं जा पाई थी। खूब अकेलापन लग रहा
था,
हॉस्टल में। उधर घर में शादी का दबाव बन रहा था। बहुत असहाय अनुभव कर रही थी। उस समय हमारी
हॉस्टल के सुपरिटेंडेंट मैंडम के साथ मेरा झगड़ा हो गया था और झगड़े के कारण थे जगदीश।
हमारे
घर के लोग या
एससीबी मेडिकल कॉलेज में
मेरी दीदी पीजी कर
रही थी, किसी
न किसी ने उनको जगदीश के बारे
में बताया था। उसने मुझे
रुम में बुलाकर डांटा
था,
"यह सब क्या हो रहा है?" मैंने आश्चर्य-चकित होकर पूछा था, "क्या हो रहा है,
मतलब? "
उसके बाद वह कहने लगी, तुम जिससे प्यार कर रही हो, वह एक संपादक है ?
सन
1970
की बात होगी, मुझे याद है। मैंने पिताजी को कहा था, पैसों
की जरुरत है, नाश्ता खरीदने के लिए। एक संपादक आए हुए हैं।
सुपरिटेंडेंट
मैंडम मुझे
भारतीय संस्कृति और परम्परा के बारे में उपदेश दे रही थी।
उसके चेहरे पर क्रोध झलक रहा था। मैंने केवल इतना ही कहा, "आपने प्रेम-विवाह किया था,
वह भी इंटरकास्ट। उस समय आप क्या भारतीय परंपरा को नहीं भूल गई थी ?"
आग
में पानी डालने पर बुझ
जाने की तरह उसका चेहरा मुरझा गया था। उसका अपने पति से तलाक भी हो गया था। मैं उनको और ज्यादा दुखी नहीं करना चाहती
थी। इसलिए वहाँ से चली आई।
जगदीश
को चिट्ठी लिखकर मैं सारी बातें बताने लगी। मैं जल्दी से
हॉस्टल छोड़ दूंगी, मैंने उनसे कहा। मैं यह चिट्ठी लिखकर पोस्ट
ऑफिस जा रही थी, उधर सरोज रंजन मोहंती के साथ मुलाकात हो गई। मैं खुद विचलित और
असहाय थी। उन्हें देखकर जगदीश के साथ मेरे संबंध और सारी समस्याओं के बारे में बताने लगी। उनको मैं ‘सरोज
भाई’ के
नाम से बुला रही थी। “तू अभी घर जा, बाद में देखेंगे” यह कहकर
वह चले गए ।
उस
समय प्रजातंत्र मीना-बाजार के जौहरी भाई
(नृसिंह साहू) को भी
भाई के नाम से संबोधित करती थी। एक दिन नृसिंह भाई के साथ सरोज भाई भी ढेंकानाल
हमारे घर आए थे, उस दिन से मैं उन्हें भाई कहकर बुला रही थी।
जगदीश
मेरी चिट्ठी पाते ही तुरंत कटक पहुंचे। उन्होंने मुझे कहीं और जगह पर बुलाया था। उससे पहले मैं जगदीश के
साथ ‘आंधी’ सिनेमा
देखने गई थी, वह भी दीदी के साथ। वह मुझे
हाई-कोर्ट के परिसर मे रजिस्ट्री मैरिज ऑफिस के पास ले गए थे, वहाँ से फॉर्म लाकर भरा था। मैंने यंत्रवत उस पर हस्ताक्षर कर दि। एक अपराध-बोध से मैं टूट रही थी। मेरा मन बार-बार कह रहा
था, ऐसा
नहीं करना चाहिए। मैंने
भूल की थी। सही में, मैं जगदीश को प्यार तो
करती थी मगर इतनी जल्दी फिर इस तरह शादी करने की बात कभी सोची तक नहीं थी मैंने। शादी कर घर-बसाने
के विषय में मैं
बिल्कुल सरीयस नही थी। जो भी
होना था, वह हो गया, मैंने हॉस्टल जाकर
अपना सामान पैक किया और हॉस्टल का शुल्क जमा
करने के बाद मैं हॉस्टल
छोड़कर ढेंकानाल चली आई।
ढेंकानाल
में मेरा रहना सबसे यंत्रणादायक था। हर समय सभी लोगों से विच्छिन्न होने जैसा लग रहा था। ऐसा लगने के पीछे कारण था,
मैंने हाई-कोर्ट में मैरिज के लिए जो एप्लिकेशन दी थी, वह ढेंकानाल-कोर्ट नोटिस बोर्ड पर टांगा हुआ था। पिताजी के अनेक परिचितों ने उन्हें इस बात की खबर दी थी। पिताजी ने मुझे सीधे कुछ न कहकर मां के मार्फत से मेरे पास
खबर पहुंचाई थी। मां ने सीधे आकर पूछा था, "तूने जगदीश से शादी करने के लिए कोर्ट में अप्लाई किया है?" मैं जड़वत हो गई। मगर मां तो मां, उसे
मैंने गोल-मोल उत्तर दे दिया।
घर
में मगर किसी को मुंह दिखा नहीं पा रही थी। पिताजी ने मेरे साथ बातचीत करना बंद कर
दिया था। उनके चेहरे की तरफ दखने से मुझे डर
लग रहा था। ऊपर वाले घर में अकेली सो रही थी मैं। पोस्टमेन की प्रतीक्षा करने के सिवाय मेरा और कोई काम नहीं था। क्रमशः जगदीश की चिट्ठियों में से एकाध-एकाध गायब होना शुरु हुई। हमारा
इतना बड़ा परिवार, कौन जो गायब कर रहा है, कहना मुश्किल।
एकाकीपन
और नजरबंदी के अंदर सड रही थी मैं। खूब इच्छा हो रही थी आत्महत्या करने के लिए। मेरे उन दिनों की असहायता पर मैंने दो
कहानियां लिखी थी उस समय। एक कहानी
थी 'हृदय को खिलौना बनाकर' और दूसरी थी, "अपने-अपने मनुष्यों के लिए"।
दोनों कहानियों को पढ़कर कवयित्री ममता दास ने मुझे चिट्ठी लिखी थी। उसमें लिखा था- "अगर मैं तुम्हारी मां
होती, तुम्हारे
चाहने वाले लड़के के साथ तुम्हारी शादी अवश्य कर
देती।" मैं जगदीश
से विवाह को लेकर
व्याकुल थी, ऐ बात सही है पर
मेरे खातिर मां-बाप
को जो
दुख हो रहा था मुझे
टुकड़े-टुकड़े कर दे रहा था।
उसके
बाद घर का एक-एक आदमी मुझे समझाने की कोशिश कर रहा था। उनमें से दो बातें आज भी
मुझे याद है। मेरी डाक्टर बहिन ने कहा था, "लव-मैरिज कभी भी सफल नहीं हो
सकती है। देखना, तुम्हारा भविष्य बड़ा दुखद होगा।"
मैने
उसे उत्तर दिया था, "दुख तो जीवन में जरुरी है। मैं
जिससे भी शादी करुं दुख तो मेरे हिस्से में आएगा ही आएगा। यदि जीवन में दुख को भोगना ही है, तो प्यार करने वाला आदमी के साथ रहकर दुख भोगना उचित है।"
अंत
में,
मैं और पिताजी आमने-सामने बैठे हुए थे। पिताजी बड़े असहाय दिख रहे थे। उन्होंने
मेरे हाथ पकड़कर कहा था, “देख माँ, आज तक तुम्हारी हर बात मानता आया हूँ। तुम मेरी यह एक प्रार्थना नहीं
सुनोगी ?”
मेरी
इच्छा हो रही थी कि पिताजी को दुख देने से मर जाना सौ गुना ज्यादा अच्छा है। मगर मैंने स्वार्थमय उत्तर दिया था, “पिताजी, आपने
आज तक मेरी सारी सहन की जिद्द और यह जिससे मेरा जीवन बदल जाएगा, यह अंतिम विनती मान लेने से आपको क्या हो जाएगा?”
पिताजी
उठकर चले गए थे। लड़की की जिद्द के सामने
हारे हुए पिताजी और क्या कर सकते थे? इस घटना के बाद पिताजी बहुत अस्वस्थ
हो गए थे। उनके बीस-पच्चीस साल के लंबे समय से पेप्टिक अलसर था। उन्होंने बिल्कुल इलाज नहीं करवाया
था। अधिकांश समय पेट की यंत्रणा भोग
रहे थे। शायद मानसिक तनाव के कारण या अन्य निजी कारण से अचानक एक
दिन उन्हें खून की उलटी हुई थी। हम सभी डर
गए थे। कटक जाकर बड़े दवाखाने में दिखाने के लिए हमने मां के माध्यम से पिताजी को
कहा था। मगर पिताजी ने नहीं सुना। उस समय बच्चों में,
मैं बड़ी थी। सभी भाई-बहनों को बुलाकर कहा था, ‘हंगर स्ट्राइक’
के लिए। पिताजी
डाक्टर को नहीं दिखाएंगे तो हम
भी नहीं खाएंगे।
दोपहर
में पिताजी भात खाने के समय हम सभी
को एक साथ बैठाकर खाते थे। उस दिन हममें से कोई भी खाना खाने
के लिए नहीं गया था। मां को हमारी 'हंगर-स्ट्राइक' की बात मालूम थी। पिताजी बाध्य होकर
डाक्टर को दिखाने के लिए कटक गए। निर्दिष्ट दिन को आपरेशन के लिए तारीख दी गई।
पिताजी की इस अवस्था के लिए सभी
लोग मुझे उत्तरदायी
ठहरा रहे थे।
चुपचाप
सहन कहने के सिवाय मेरे पास कोई उपाय न था। इसी दौरान मेरा फाइनल ल की परीक्षा देने का समय आ गया था। घर
में सभी असमंजस में पड़ गए थे। मैं परीक्षा देने जाऊंगी या नहीं, सभी
विचार-विमर्श कर रहे थे। क्योंकि मैने जो पदक्षेप लिया था,
उसके लिए मेरा बाहर
जाना ठीक रहेगा या नहीं, पिताजी चिंता कर रहे थे। हमारे घर के सबसे बड़े भैया को पिताजी ने पूछा था। उन्होंने कहा था, "जाने दीजिए,
पढ़ाई बीच में क्यों अधूरी रखेगी। साथ में चाची जाएगी। परीक्षा देकर चली आएगी।"
ऐसा
ही हुआ। मैं परीक्षा देने के लिए कटक गई। साथ में मां भी गई थी। हम लोग मौसी के घर
रानीहाट में रुके थे। मौसी और मौसा कोई घर में
नहीं थे। खाली उनके बेटे को छोड़कर और घर में कोई न था। लड़का अविवाहित था, वह
बाहर में कहीं पर खाना-पीना करता था।
सबसे
बड़ी बात थी, जिस दिन मैं ढेंकानाल से कटक आई थी। ओएमपी चौक से रिक्शा लेते समय मेरी नजर पड़ गई जगदीश पर। वह भी रिक्शे मैं बैठकर हमारे रिक्शे के पीछे-पीछे आ रहा था। मुझे इतना गुस्सा आ रहा था उसकी मूर्खता पर, कि क्या
कहूँ ? अगर
मां ने पीछे मुड़कर देख लिया तो सब खत्म। मेरा परीक्षा देना भी बंद हो जाएगा। उनके
रिक्शे का फिर हुड भी लगा हुआ नहीं था। मैं भगवान को मन ही मन याद कर रही थी। जो भी हो एक
बार घर में घुसने के बाद मेरी
सांस में सांस आई ।
संध्या
के समय किसी काम से
मैं गेट के पास आई थी, तो
मैंने देखा जगदीश रास्ते के
उस पार खड़े हुए थे। फिर से धड़कने लगी थी मेरी
छाती। मुझे मार देगा
यह लड़का, सोच
रही थी मैं। मैं सोच रही थी कुछ सामान खरीदने के बहाने बाहर जाकर जगदीश को समझाकर वहां से चले जाने के लिए कहूंगी। मैं जब पावडर खरीदने का बहाना कर बाहर दुकान जाने के लिए कहने लगी तो मां ने
कहा था, "चल, मुझे भी एक कंघी खरीदनी है।" मां की बात सुनकर मेरा मन खराब हो गया था। इधर-उधर की बातें कर मैं फिर से रुक
गई थी।
जगदीश
शायद कुछ कहना चाह रहे थे, मगर कह नहीं पा रहे थे। आगे से मैं जानती थी कि वह एक पक्का प्रेमी है। एक बार
कटक से संबलपुर जाते समय हमारे घर के पास यात्रियों के रात्रिभोजन के लिए बस रुकने
के समय जगदीश होटल को खाने न जाकर हमारे घर की तरफ झांककर सिगरेट तान रहे थे, मेरी
छोटी बहिन ऊउपर वाले माले की खिड़की के पास मुझे
बुलाकर दिखाने लगी थी,"
देख, उधर योगेश भाई
खड़े हैं।"
जगदीश
के घर में हमारे विवाह के लिए कोई आपत्ति नहीं थी। जो
भी समस्या थी तो हमारे
घर की तरफ से। उसके लिए प्रफुल्ल त्रिपाठी ने एक बार जगदीश को कहा था, "मैं
जाकर तुम्हारी प्रेमिका के पिताजी को समझाऊंगा। अगर तुम दोनो राजी हो तो उन्हें
क्या दिक्कत है? जो मैं कहूँगा, वह मेरी
बात मानेंगे ?" मेरा लॉ का अंतिम-पेपर जिस दिन था, उस दिन मुझे आश्चर्य-चकित कर
दिया था जगदीश ने सीधे हॉल के अंदर घुसकर।
पहले
लॉ की परीक्षा एक हाट-बाजार की तरह चलती थी। उसे परीक्षा हॉल कहना कितना तर्क संगत होगा,
मैं नहीं समझ पाती। मेरे फाइनल लॉ के प्रथम पेपर तो सर के संग्रह करने लेने से पहले उस समय के कुख्यात गुंडे अनंत (रेवेन्सा की लड़कियां जिसे देखकर
थर-थर कांपती थी) ने मेरा कॉपी
छीनकर कॉलेज चौक की तरफ घूम-फिरकर
ऑफिस में डिपोजिट कर दिया था। राजा स्वार्इं और अनंत परस्पर विरोधी दोनों जननायक, लॉ कॉलेज के प्रेसीडेंट के लिए खड़े हुए थे। दोनों को मैंने आश्वासन दिया था,
वोट देने के लिए। मगर राजा (राजेन्द्र प्रताप स्वार्इं) को मैने वोट दिया था।
जगदीश
ने भीतर घुसकर पूछा, "तुम्हें सारे सवालों के जबाव आते
हैं ?"
मैंने
सिर हिलाकर 'हां' कहा था और उन्हें कहा था, "तुम
यहां से नहीं जाओगे तो मैं नहीं लिख पाऊंगी।" वह साथ ही साथ वहां से चले गए
थे।
परीक्षा
खत्म होने के बाद बाहर आकर देखा कि
जगदीश बाहर खड़े थे।
वह कहने लगे “तुम्हें पांच दिनों से खोज रहा हूं। चलो,
एक काम हैं।”
“कहाँ ? माँ मेरा इंतजार कर रही होंगी। आज हम
ढेंकानाल चले जाएंगे।”
“घंटे के भीतर फिर लौट आएंगे, चलो ।” जगदीश ने कहा। हम रिक्शे में फिर एक बार कोर्ट परिसर में आ गए थे। वहां सरोज भाई (सरोज रंजन मोहंती, झंकार)
कमल पटनायक (उस समय वर्णाली प्रेस कर रहे थे अभी निआली कॉलेज में अर्थशास्त्र के
अध्यापक हैं।) और राजेन्द्र प्रसाद सिंह भोई (मेरी बड़ी बहिन के कटक स्थित घर में भाडा में रह रहे थे और सेन्ट्रल एक्साइज
में काम करने वाले भद्र व्यक्ति थे) वहाँ इंतजार कर रहे थे। उन सभी के सामने मैंने दस्तखत किए थे। वे लोग साक्षी थे। बस,
जीवन का सबसे बड़ा फैसला
वहीं ले लिया था।
जैसे ही मेरा काम समाप्त हो गया और मैं साथ ही
साथ लौट आई थी। इसे क्या विवाह कहा जाता
है? मैंने उस दिन पहन रखी थी,
बिस्कुट-रंग की खादी सिल्क साड़ी। बहुत ही बेरंग दिख रही थी। पता नहीं क्यों, मेरा
चेहरा सूखकर चना हो गया था । खूब रोने की इच्छा हो रही थी मेरी। लग रहा था, जैसे मैने माँ के साथ विश्वासघात किया हो। उसका क्या कसूर था ? उसे मेरे साथ भेजा गया था कि मैं परीक्षा देकर सुख-शांति से घर लौट आऊँ। हाँ,
मैं तो घर लौट आई थी। क्या मैं किसी और घर
की बनकर रह गई थी क्या ?
मां, सही
में प्रतीक्षा करती गेट के पास में खड़ी थी।
मुझे देखकर पूछने लगी, "इतनी देर क्या कर रही थी ?"
मैंने कहा था, " परीक्षा देर तक चली थी।"
खाना-खाते समय उसने पूछा था,
"तुम्हारी तबीयत
ठीक नहीं है क्या ?"
मैंने धीरे से उत्तर दिया था,
"ठीक है। थकावट लग रही है।"
पहले
से ही मेरे कपड़े समेटकर
मां ने रख दिए थे। खाना खाने के बाद हम बस पकड़ने
के लिए बाहर निकल गए थे।
1978 से 1981 तक मैं घर में बंदी की तरह रही। नौकरी
खोजने का सवाल ही नहीं उठता था। घर से कहीं भाग गई तो ? दस्तखत से की हुई शादी को मैं विवाह के
रुप में नहीं मान पा रही थी। जगदीश चाहते तो जोर जबरदस्ती मुझे ले जा सकते थे,
वह केवल मेरी इच्छा के विरुद्ध में कुछ करना नहीं चाहते
थे।
इसी
दौरान उनकी मां का देहांत हो गया था। इसलिए कम से कम एक वर्ष के लिए शादी होना
संभव नहीं था। एक बार पिताजी किसी
सोनार के
साथ केटलॉग लेकर घर पहुंचे। मुझे मेरी पसंद के गहनें चयन
करने के लिए कहा। मैने उनको बताया नहीं था कि मैं उनकी इच्छा के अनुरुप और शादी
नहीं कर पाऊंगी। मेरी बिल्कुल इच्छा नहीं थी, वह सब कुछ देखने के लिए। मैंने कहा था, "आपकी जैसी इच्छा मेरी पसंद-नापसंद कुछ
नहीं है।"
मां-बाप
को उतना नुकसान पहुंचाने के बाद उनके ऊपर गहनों का बोझ लादने का और मुझमें साहस
नहीं था।
मां
ने एक बार मेरा सिर गूँथते
समय कहा था, "तुम बुद्धु हो ? अपनी पसंद के गहने क्यों नहीं बता
देती? फिर
तुम जिसे चाहो उसके साथ शादी कर लो। गहने भी ले जाती। अब गहने लौटा रही
है। तेरे पिताजी क्या उस समय तुझे गहना देगे ?"
मां
ऐसी ही है, सारी दुनिया की माँ ऐसी होती हैं।
उस
समय मेरे जीजाजी ने पिताजी को बहुत समझाया था। जाति-पांति आज-कल कौन देखता है? अगर
वह चाहती है तो शादी करवा दीजिए। फिर भी पिताजी अपने आपको तैयार नहीं
कर पा रहे थे। अपने बड़े भाई
से डरते थे। एक दिन
मेरे बड़े पापा ने पिताजी को कहा था, “जा, पांच रुपए का पॉलीडाल (विष) खरीदकर अपनी बेटी को दे दे।”
इस
मानसिक प्रताड़ना झेलते समय जगदीश के सबसे बड़ा भाई (जो बेलपहाड़ टाटा रिफ्रेकटरीज में इंजनियर थे)
हमारे घर आए थे। पिताजी ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया
था। उन्होंने कहा था, "हमें कुछ नहीं चाहिए, केवल
बेटी चाहिए।"
मेरी
सास भी मरने से पहले मेरे जेठ को कहकर गई थी, "तेरा
छोटा भाई जिस लड़की के साथ शादी करना चाहता है, शादी करवा देना ।"
एक
पचास-पचपन साल के आदमी
की बातों से पिताजी का विश्वास हुआ। परवर्ती समय में मेरे जीजा, मेरे भाई और जगदीश के भाई रामपुर कोलियरी जाकर घर-द्वार देखकर आए थे। मेरे छोटे भाई ने लौटकर कहा था, "तू
दार्जिलिंग जैसी जगह जाओगी।" रामपुर अनेक पहाड़ों की समष्टि है। कोयले का धुआं कृत्रिम मेघ की तरह लगता था। सही
में बड़ी सुंदर जगह है रामपुर कोलियरी।
सन
1981
के मई 24 को वैदिक रीति में मेरी शादी हुई।
पिताजी ने हमें अपनी ट्रेजरी का चाबी पकड़ाकर कहा था, "जो
तुम्हारी इच्छा हो, वह खरीद लो। मुझे संसार का बिल्कुल
ज्ञान नहीं। था! अभी भी मैं अच्छा
संसारी नहीं हूं। कुछ
खरीद नहीं पाया।"
जगदीश
को कोट सूट लाने के लिए पैसे ऑफर किए थे। उन्होंने कहा था,
"हमारे घर में कोई पैसे नहीं लेते हैं। आपकी जो इच्छा, वह
दे दीजिए।" वह तो हमसे ज्यादा असंसारी
थे। हमारे घर ढेंकानाल जब आते थे, उनके
पांव के पास से पेंट की मोहरी खुलकर जमीन पर रगड़
खाती थी, शर्ट फटा हुआ रहता
था। बड़े-बड़े नाखून और नाखूनों में मैल। उनके जैसा बोहेमियान
आदमी अपने लिए क्या खरीद पाता ?
हमारी
शादी का कार्ड अभिनव किस्म का था। हल्के-पीले कलर का हेंड-मेड
पेपर में एक साथ दो घरों की निमंत्रण दिया गया था। मेरे माताजी-पिताजी, उनके
माताजी-पिताजी, बड़े
भाई के नाम के साथ पीछे वाले पन्ने पर सरोज रंजन मोहंती, कमल
पटनायक, सहदेव
प्रधान (फ्रेंड्स पब्लिशर्स)
का नाम भी था। उन तीनों ने भुवनेश्वर के राजमहल हॉटल में
साहित्यकारों लोगों को आमंत्रित किए थे। शादी के आठवें दिन के बाद हम दोनों
बेलपहाड से भुवनेश्वर आए थे। भुवनेश्वर के राजमहल होटल की छत पर
पार्टी का आयोजन किया था। प्रीति-भोज में केवल साहित्यकारों को बुलाया
गया था।
चंद्रशेखर
रथ, राजेन्द्र
किशोर पंडा, कार्तिक रथ, जगदीश पाणी, प्रसन्न पाटशानी, शांतनु
आचार्य, शरतचंद्र प्रधान,
सौभाग्य मिश्र, वनविहारी
पंडा, शकुंतला
पंडा, फनी
मोहंती और ऐसे अनेक साहित्यकार थे।
उस भोज में मेरी पहली किताब 'सुखर मुंहामुही' का विमोचन हुआ था। वह सहदेव प्रधान की ओर से मेरी शादी के लिए एक उपहार था। किताब के
पहले पन्ने पर सभी ने अपने स्वाक्षर किए थे। उस स्वाक्षर वाली
किताब को मैंने बहुत दिनों तक संभाल कर रखा था।
कंपनी का
क्वार्टर छोडकर भाड़े के घर में सामान ले जाते समय मैंने देखा उस अमूल्य किताब
को दीमक खा गई। बहुत दुख लगा। दो-तीन जनों के स्वाक्षर को छोड़कर बाकी सब जा चुके
थे। (सौभाग्य से 2002 में प्रतिबेशी शारदीय अंक में "गौतमी कौन?" शीर्षक वाला एक आलेख प्रकाशित किया था लेखक/कहानीकार श्यामाप्रसाद चौधरी ने । उसमें सारे हस्ताक्षर अभी भी महफूज है।)
उस किताब को दीमक खाया देखने के बाद मैं समझ गई थी, क्रमशः मेरे शरीर को दीमक
चाट रहा है और बाकी कितने दिन? पन्ने
की तरह विकृत कदाकार ऐसे मैं
भी बन जाऊंगी। पन्नों की जिल्द के
अंदर खिसक कर आने की तरह मेरे हाथ और पैर ढीले पड़ जाएंगे,
मेरा शरीर भी मेरी बात नहीं मानेंगा। एक दिन मैं नहीं रहूंगी। फिर साहित्य में कितने संजय और
गौतमी निकलेंगे। परस्पर जीवन जिएंगे, बंधु
बनेंगे और गुरुशिष्या होंगे, वक्ता और श्रोता होंगे, नियम
तोड़ेंगे,
नियम बनाएंगे।
अपने लोगों को कष्ट देंगे, दूसरे लोगों को अपनाएंगे। मरते-मरते
जीएंगे, जीते-जीते
मरेंगे। जितना जिएंगे, उतना मरेंगे। प्रेम उतना उज्ज्वल होगा।
साहित्य उतना ही सचेतन होगा।
Comments
Post a Comment