9. हम गवाही देंगे
:: असंगघोष

“ डॉ॰ सरोजिनी साहू का ‘पक्षी-वास’ इस खोज-परम्परा की एक मजबूत कड़ी है।
उन्होंने समाज के निम्नतम स्तर पर जीने वाले उन सतनामियों का चित्रण किया है, जो ओड़िशा के कोरापुट से लेकर छत्तीसगढ़ तक फैले
हुए हैं। ये सतनामी इतने विपन्न हैं कि इनकी जीवन कथा जाने बिना उसकी कल्पना नहीं
की जा सकती। सतनामी परम्परा से अपनी मूलजाति रविदास के पेशे से जुड़े हुए हैं लेकिन
गुरु घासीदास के वैष्णव आन्दोलन से जुड़ने के बाद इनका एक आध्यात्मिक पक्ष भी
विकसित हुआ है,
किन्तु इनके जीवन का
कटु सामाजिक यथार्थ इनको जातिगत पेशे से मुक्त होने का न अवसर देता है और न इनका
अध्यात्म इन्हें वृहद समाज में सम्मान दिला पाता है। इन्हीं अंतर्द्वंद्वों में
फँसे एक सतनामी परिवार की कथा ‘पक्षी-वास’ है। अन्तरा और सरसी के तीन पुत्र और एक
पुत्री हैं। संन्यासी सबसे बड़ा पुत्र है जो क्रिस्टोफर बन जाता है, दूसरा पुत्र डाक्टर बँधुआ मजदूर और
तीसरा पुत्र वकील नक्सली बन जाता है एवं पुत्री परबा वेश्या बन जाती है। जाति के
परम्परागत ढांचे से मुक्ति की कामना इन्हें अलग-अलग दिशाओं में ले जाती है। परन्तु
समस्या के सीधे-सीधे साक्षात्कार और उसे मुक्ति की कामना नकारात्मक दिशा की ओर ले
जाती है। भारत के विभिन्न राज्यों में नक्सलवाद क्यों पनप रहा है, इसका एक प्रामाणिक दस्तावेज पक्षी-वास
है। पक्षी-वास समाज के जिस यथार्थ पर आधारित है, उसकी समस्त असहायता करुणा और विद्रोह का
अविस्मरणीय दस्तावेज है।”
जैसे-जैसे मैं आगे कविताएं पढ़ता गया, वैसे-वैसे महात्मा गांधी, कार्ल मार्क्स, राम मनोहर लोहिया आदि के अनेकानेक दृश्य
मानस पटल पर उभरने लगे,
जिन्होंने समाज के
निम्न-वर्ग के उत्थान हेतु अपने आप को समर्पित किया। उन्होंने समाज के निम्न-वर्ग
की समस्याओं को अपने भीतर आत्मसात कर अपनी अनुभूतियों का केंद्र बनाया, जैसे दक्षिण अफ्रीका में नस्ल-भेद व
रंग-भेद के आधार पर महात्मा गांधी के साथ गोरे-लोगों द्वारा रिक्शा में बैठते समय
दुर्व्यवहार करना। उस घटना से महात्मा-गांधी के आहत-मन ने नस्ल-भेद के खिलाफ भारत
आकर सत्याग्रह आंदोलन के अंग्रेजी शासन के उन्मूलन का संकल्प लिया। ठीक वैसे ही, जैसे कभी पुरातन जमाने में काला-कलूटा
ब्राह्मण कहे जाने पर चाणक्य ने शिखा-बांधकर मगध-राज्य को जड़ से उखाड़ने का संकल्प
लिया था। इसी नस्ल–वाद के खिलाफ लड़ते-लड़ते नेलसन मंडेला ने
अपने जीवन की आहूति दे दी। एक साथ दो विचार दिमाग में कौंधने लगे, पहला, भारत की “वर्ण–व्यवस्था” और दूसरा, विश्व-परिदृश्य पर मनुष्यता को दीमक की
तरह चाटता “नस्ल–वाद” ।
अंसगघोषजी से मेरी पहली बार मुलाकात सृजनगाथा द्वारा चीन की राजधानी बीजिंग में
आयोजित नौवे अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के दौरान हुई। भारतीय परिधान कुर्ता–पायजामा और साफा पहने हुए वह भीड़ में
सबसे अलग लग रहे थे। जब अंतरराष्ट्रीय कवि–सम्मेलन उनकी कविता “अबे ओ कनखजूरे........” का डॉ॰ जय प्रकाश मानस ने जिस
अभिव्यक्तात्मक शैली में सस्वर पाठ किया तो मानो सारे श्रोतागण सम्मोहित-से हो गए
हो। वर्ग–संघर्ष पर आधारित उनकी यह कविता युगों-युगों
से दलित वर्ग के प्रति हो रहे अन्याय , शोषण
व भेद भाव उजागर करने वाली अत्यंत ही मर्मांतक तथा हृदयस्पर्शी थी। चीन–सम्मेलन के दौरान मैंने उनको नजदीक से
जानने का प्रयास किया। अधिकतर समय उनके कंधे पर एक बड़ा-सा प्रोफेशनल कैमेरा लटका
हुआ रहता था। जब-तब मौका मिलने पर प्रकृति के सुंदर
नजारों का फोटो लेते हुए नजर आते थे। मैंने मन ही मन सोचा कि प्रकृति के प्रति
उनका काफी अनुराग है या फोटोग्राफी का शौक ? मगर जब मैंने उनका कविता-संग्रह “हम गवाही देंगे” को दो-तीन बार पढ़ा तो मुझे लगा कि वह एक
शौक नहीं है,
बल्कि एक अंतर्दृष्टि
है कि ईश्वर प्रदत्त सुनियोजित सुंदर प्राकृतिक व्यवस्थाओं को प्रदूषित करने वाले
तत्त्वों के पहचानने की। उनकी कविताओं में मुझे भारतीय पारंपरिक वर्ण-व्यवस्था के ‘चौथे-वर्ण’ पर अत्याचार व उपेक्षा से उत्पन्न टीस
की अनुभूति का अहसास होता है। उनकी अधिकतर कविताएं चमार जाति से संबंधित है कि किस
तरह सवर्ण वर्ग के लोग उन पर सदियों से अत्याचार करते आए हैं और गाँव से पृथक जगह
मोचिवाड़ा / चमरोटी में रहने के लिए विवश करते हैं। अपनी कविता “नामकरण-संस्कार” में चमरोटी / मोचिवाड़ा नामकरण के लिए
तथाकथित नियंता को कुटिल बुद्धिवाला कहते हुए उसकी निष्पक्षता पर प्रश्नवाचक खड़ा
किया है। ‘तुम भी’ कविता में जाति के बारे में यत्र-तत्र
पूछे जाने पर आत्म-ग्लानि के स्वर प्रस्फुटित हुए हैं :-
मेरी जात वहीं
की वहीं है,
साली चमार जात !
समय के साथ न बदलती है न
छूटती है
और अत्यंत दुखी होकर अपनी कविता “कहाँ हो ईश्वर ?” में ईश्वर के न्याय पर अपना रोष भी
प्रकट किया है। और बहुत-सारे बिंबो जैसे ‘पृथ्वी’, ‘दीमक’ ‘शैतान’, ‘दांव’ आदि का सहारा लेकर दलित–वर्ग पर हो रहे अत्याचार, भेद-भाव, वर्ग-भेद तथा मुख्य-धारा से विमुखता पर
अपने आक्रोश को प्रदर्शित किया है। यह भी यथार्थ है कि सरकार के अथक प्रयासों के बाद भी आज भी हमारे
समाज में सामंतवादी-प्रथा देश के विभिन्न भागों में बीच–बीच में अपनी कुरूपता का प्रदर्शन करती
रहती है। जातिवाद आज भी कल्पनातीत है। आज राजनेता जातिगत समीकरणों को आधार बनाकर
वोट बटोरने में लगे रहते हैं। समाज-सेवा तो बहुत दूर-दूर की बात, बल्कि समाज को टुकड़ों– टुकड़ों में बाँटकर अपना उल्लू सीधा करना
उनका मुख्य लक्ष्य बन गया है।
असंगघोष की कविताओं का अगर आप निष्पक्ष ढंग
से मूल्यांकन करें तो हमारे देश की सामाजिक वर्ण-व्यवस्था की पृष्ठभूमि में झाँके बिना आप नहीं रह
सकते हो। कुछ अनुत्तरित सवाल आज भी अनुत्तरित ही रहेंगे। जैसे मनुष्य की उत्पत्ति
कैसे हुई
? अंडा पहले या मुर्गी
पहले? मनुष्य की उत्पत्ति के बाद समाज का
निर्माण कैसे हुआ?
समाज में वर्ण-व्यवस्था
की स्थापना किसने की?
जातियों का निर्माण कैसे हुआ ? इन जातियों के निर्माण का आधार क्या था? कर्म या गुण? असंगघोष की कविताएं आपको ‘मनुकाल’ में झाँकने को प्रेरित करती है। सतयुग
से लगाकर एक-एक युग आपकी आँखों के सामने से गुजरने लगेगा। सतयुग, द्वापर, त्रेता और आज का कलियुग। महर्षि
वाल्मीकि की
‘रामायण’, तुलसीदास की ‘रामचरित-मानस’, वेद–व्यास की ‘महाभारत’, स्वामी दयानन्द सरस्वती की ‘सत्यार्थ-प्रकाश’, ज्योतिबा फूले की ‘गुलामगिरी’- सारे बड़े-बड़े मनीषियों की शास्त्रों, संहिताओं व पुस्तकों के पन्ने मानस-पटल
पर अभिकेंद्रित हो रहे तूफानी-चक्रवात से पलटते हुए नजर आएंगे। सदियों–सदियों से हमारे समाज में हो रहे ‘जातिवाद’ का प्रतिपादन तथा कुछ समाज सुधारकों
द्वारा जातिवाद से संबंधित पाखंडों का विखंडन करने वाले अनेकानेक तर्क-वितर्क
देखने को मिलेंगे। अब जरा नजर डालें, गीता
के चतुर्थ अध्याय के श्लोक 13 में
भगवान श्री कृष्ण के कथन पर– “चातुर्वण्य
मया सृष्टम गुणकर्म विभागश:” अर्थात
गुणों के आधार पर मैंने चार वर्णों की रचना की। क्या यह ईश्वरीय कथन संतोषजनक लगता
है? शायद ऊहापोह वाली स्थिति। गीता में कहा
गया है तो झूठ नहीं हो सकता। अगर झूठ है तो फिर सच क्या होगा? ईश्वर का काम सृष्टि-निर्माण, पालन और विनाश करना है। पेड़-पौधे, नदी-पर्वत, जीव-जन्तु, खगोल-पाताल, ग्रह-उपग्रह आदि को बनाना, संभालना और बिगाड़ना है। ‘सुप्रीम-पॉवर’ क्या वर्ग-वर्ण निर्धारित करने लगेगी? एक बार यह मान भी लेते हैं, अगर भगवान ने वर्ण निर्धारित किए तो
दुनिया की अन्य सभ्यताओं में यह संरचना नजर आनी चाहिए। क्या भगवान केवल भारत के
लिए बने थे?
समस्त ब्रह्मांड को
संभालने वाले ईश्वर के पास ऐसा रवैया क्यों होगा कि वह धरती के एक कोने भारत में
आकार ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की स्थापना करेगा? विश्व के विकसित देशों जैसे
अमेरिका,
इंग्लैंड, चीन, रुस, जापान आदि में यह वर्गीकरण नजर क्यों
नहीं आता?
मनुष्य-उत्पत्ति के
बाद चतुर समाजों ने अपनी चतुराई से अपनी बात धर्मग्रंथों में ‘भगवान-उवाच’ के नाम से जुड़वा कर हर नीतिसम्मत कार्य
खोजने का आधार ईश्वर के नाम कर दिया ताकि सामान्य धर्मभीरु जनता इसे ईश्वर प्रदत्त
समझकर सामाजिक गुत्थियों में हमेशा उलझी रहे। एक चमार का बेटा सदियों से चमार रहता
आया है, करोड़ों में एकाध रैदास पैदा हुआ होगा और
उसे भी हजारों परीक्षाएँ देनी पड़ी होगी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए। कबीर की
बात कौन मानता है
“ जात न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान
काम
है तलवार से,
पड़ी रहेगी म्यान ”
मगर
आज भी रैदास या कबीर के पंथ का अनुसरण करने वालों को उसी हीन दृष्टि से देखा जाता
है, जिस दृष्टि से कबीर व रैदास को देखा गया
होगा। आज भी रैदासपंथी या कबीरपंथी संप्रदाय निम्नकोटि या दलित वर्ग के लिए
आरक्षित है। बचपन के दिनों में जब सिरोही के आर्य-समाज में हवन करने जाया करता था , तो वहाँ मुझे कई लोग ऐसे मिलते थे जिनके
नाम के पीछे उपनाम
‘आर्य’ लिखा जाता था। ऐसे ही स्व॰ कन्हैया लाल
आर्य मेरे पिताजी के परम मित्र हुआ करते थे। एक दिन मैंने उनसे आर्य समाज में पूछा “आप ‘आर्य’ टाइटल क्यों लगाते हो?”
“आर्यसमाज को मानने के कारण। हम
आर्यवृत्त के हैं,
इसलिए आर्य लगाते हैं।
हमारी जाति
‘मोची’ है, जिसे समाज घृणा की दृष्टि से देखता है।
मोची सम्बोधन खराब लगता है। और स्वामी दयानंद सरस्वती वर्ण–व्यवस्था के पूर्ण खिलाफ थे। उन्होंने इस
वर्ण-व्यवस्था को मिटाने के लिए आर्य समाज की स्थापना की।”- बहुत ही सपाट शब्दों में उत्तर दिया था
कन्हैयालाल जी ने। वह बहुत ही विद्वान व धार्मिक व्यक्ति थे। मुझे इस बात पर
आश्चर्य होने लगा कि सिरोही के सवर्ण लोग धीरे–धीरे ‘मोची’ की जगह ‘आर्य’ शब्द को हीन भावना से देखने लगे और ‘आर्य-समाज’ को मोचियों का अड्डा।
समाज के इस दृष्टिकोण को कवि असंगघोष ने
अपने जीवन में अवश्य अनुभव किया होगा, तभी
तो वह क्रोधित होकर कहते हैं कि अब मेरी जीभ भी आवाज करने के लिए प्रतिफल
आतुर है और मैं
‘तुम्हें रौदूंगा’ समय आने पर। ‘काट डालूँगा उन पैरों को’ जिसने आज तक समाज को बांटकर जातिवाद का
ऐसा जख्म दिया है,
जो नासूर बनकर सड़ी
वर्ण व्यवस्था से असहनीय पीड़ा देता हुआ लगातार रिस रहा है। ‘माँ कसम’ कविता में भी कवि का आक्रोश झलकता है कि
वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज ने शूद्रों पर अनेकानेक जुल्म ढाए, लाशों पर रोटियाँ सेकी, दाँत निपोरकर झूठी सहानुभूति दिखाई। मगर
अब वे इस बहुरूपिएपन को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। कवि एक चुनौती देता
है, और तुम नहीं बच पाओगे।
लगभग 5200 साल पहले से हिन्दू धर्म का पतन होने
लगा था। हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों से निजात पाने के लिए लोग जैन और बौद्ध
धर्म अपनाने लगे थे । ज्ञान-संकलिनी तंत्र के अनुसार वेदों
को वैश्या के तुल्य गिना जाने लगा:- “वेदशास्त्र
पुराणानि सामान्य गणिका इव, एकैव
शांभवी मुद्रा गुप्ता वधुरिव।”
यही कारण है विश्व के कई हिस्सों में जापान, थाईलैंड, चीन, श्रीलंका, जावा, बोर्नियो, सुमात्रा के अधिकांश हिस्सों में बौद्ध
धर्म फैलने लगा,
जिसमें जातिवाद को बिलकुल
भी महत्त्व नहीं दिया गया। मनुष्य मात्र ईश्वर की एक प्रजाति है। ‘जियो और जीने दो’ जैसे सिद्धान्त जन्म लेने लगे। चार्वाक
का भौतिकवादी सिद्धान्त “यावत
जीवेम सुखेम जीवेत ऋणकृत्म घृतम पिबेत” व्यापक
होने लगा। जब तक जियो सुख से जियो, उधार
करके घी पियो। मरने के बाद किसने देखा है कि क्या होता है ? “बुद्धया निर्वत्तते स बौद्ध” अर्थात जो–जो बात अपनी बुद्धि में आए उन्हें मान लो
और जो न आवे उन्हें नहीं माने। हिन्दू-धर्म के शूद्र अर्थात दलित-वर्ग छुआछूत, घृणा व अन्य कुरीतियों के कारण अपना
धर्म बदलने लगे। डॉ॰ भीमराव अंबेडकर जैसे विद्वानों ने भी हिन्दू-धर्म का परित्याग
कर बौद्ध-धर्म ग्रहण करना उचित समझा। मैंने ओड़िशा में अपने सेवाकाल के दौरान
अस्पृश्यता के कई ऐसे उदाहरण देखे कि आज कल के इस वैज्ञानिक-युग में अविश्वसनीय
है। अस्पृश्यता की यह भावना आम जनता के मन-मस्तिष्क में पूरी तरह से घर कर बैठी है। लिंगराज
क्षेत्र में मेरे महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड के लिंगराज क्षेत्र में राजभाषा विभाग
के प्रचार के दौरान एक अनुवादिका से मेरा परिचय हुआ। जब मैंने उसका परिचय पूछा तो
उसने झेंपते हुए कहा
,“मेरा नाम अमुक नाएक
है”
“नाएक या नायक?” मैंने जानना चाहा, क्योंकि दो दशकों से ज्यादा समय रहने के
कारण थोड़ा-बहुत ओड़िशा की जातियों के बारे में मेरी जानकारी थी।
“ओड़िशा में नायक तो ‘खंडायत’ होते है, जबकि नाएक ‘हाड़ीपान’ कहलाते है।” नायक और नाएक का उच्चारण करते समय ऐसा
लग रहा था मानो वह
‘य’ और ‘ए’ के अंतर को भाषायी तरीके से दिखाना चाह
रही हो।
‘खंडायत’ तथा ‘हाड़ीपान’ दोनों शब्द मेरे लिए नए थे इसलिए मैंने
जिज्ञासावश उससे पूछा,
“ ‘खंडायत’ क्या होते है और ‘हाड़ीपान’?”
वह मुस्कराते हुए कहने लगी,“खंडायत अर्थात युद्ध में खंडे (तलवार)
धारण करने वाले अर्थात क्षत्रिय, जबकि ‘हाड़ीपान’ मरे हुए जानवरों जैसे गाय की लाश उठाते
हैं तथा उनकी खाल उतारने का निष्कृष्ट कार्य करते हैं।”
कुछ देर तक वह चुप रही मानो उसने यह बताकर
कुछ गलती की हो। उसे आत्म–ग्लानि
का अनुभव होने लगा। मैं उसके मनोभावों को समझने की कोशिश कर रहा था। मेरा अंदाज
सही था कि उत्तर–भारत में ‘चर्मकार’, ‘चमार’ या राजस्थान में जिसे ‘मोची’ कहते हैं। मगर आजकल ये उपनाम कोई नहीं
लगाता था,
अपनी इच्छानुसार
शर्मा, वर्मा, आर्य या कोई ऐसे गोत्रों के नाम का
प्रयोग करते है,जिसके बारे में आपने सुना तक नहीं होगा।
यही ही नहीं,
मैंने ओड़िशा के
झारसुगड़ा में एक धनाढ्य आदमी को अपने नाम के आगे ‘माली’ की जगह ‘श्रीमाली’ लगाते देखकर एक बार पूछा था, “ ‘माली’ जगह ‘श्रीमाली’ क्यों लगाते हो?”
उसने उत्तर दिया, “माली शब्द का प्रयोग करने से मुझे
हीन-भावना का बोध होता है इसलिए इसमें श्रेष्ठता-सूचक शब्द ‘श्री’ जोड़ दिया। ‘श्रीमाली’ शब्द क्या विसंगत लगता है?”
मैंने अपना अर्जित अनुभव बांटते हुए कहा, “जोधपुर में ‘श्रीमाली’ शब्द तो ब्राह्मण लोग प्रयोग में लाते
हैं जैसे विख्यात लेखक नारायण दत्त श्रीमाली, जबकि ‘माली’ शब्द क्षत्रियों से पृथक हुई जाति आजकल
सैनिक क्षत्रिय माली या सैनिक शब्द का इस्तेमाल करती हैं। अभी तक मेरी जिज्ञासा
शांत नहीं हुई थी,
इसलिए मैंने और कुछ
जानने के उद्देश्य से पूछा, “क्या
जाति में छुआछूत का प्रचलन है ?”
“ आजकल पढ़ाई-लिखाई की वजह से छुआछूत में
कुछ कमी आई है। ऑफिस में तो फिलहाल इतना नहीं है। मगर तालचेर के बालुंगा खमार जैसे
गांवों में अगर आप जाओगे तो आपको यह जानकर आश्चर्य के साथ दुख भी होगा कि आज भी
लोग हमारा छुआ पानी तक नहीं पीते हैं। साथ बैठकर खाने की बात तो बहुत दूर की है।
एक बार जब लिंगराज कोयला खदान का विस्तार हो रहा था तो हमारे ‘शनि-पीठ’ (शनि भगवान का चबूतरा) को दूसरी जगह शिफ्ट
करना था। खदान-प्रबंधन हमें वह जगह दे रही थी जहां पहले से दूसरी जातियों का ‘शनि-पीठ’ मौजूद था। उन जातियों ने विरोध कर दिया
कि ‘हाड़ीपानों’ का शनिपीठ हमारे शनिपीठ के पास
विस्थापित नहीं किया जा सकता है।
“ कहते हुए वह एकदम नीरव हो गई ।
“ क्यों विरोध किया उन लोगों ने?” मैंने पूछा ।
“
क्योंकि हम नीची जाति
के लोग है। वे लोग कहते है कि हम गाय का मांस खाते हैं। और अगर प्रबंधन ने यह
फैसला वापिस नहीं किया तो हम आपकी खदान नहीं चलने देंगे।”
उसकी आवाज में असहनीय पीड़ा झलक रही थी।
उसकी प्रचंड नीरवता मुझे प्रेमचंद के जमाने की ओर खींचने लगी। प्रेमचंद की
कहानी का शीर्षक याद नहीं आ रहा था, मगर
कथानक ‘शनिपीठ’ के विस्थापन से कुछ मिलता- जुलता था। वहाँ शनिपीठ न होकर एक कुआं
था। दलितों का कुआं अलग
, जमीदारों का कुआं अलग।
अगर कारणवश या परिस्थिति-वश किसी दलित ने ‘सवर्ण कुएं’ से पानी भर लिया तो उसकी खैर नहीं। काश!
प्रेमचंद आज भी जिंदा होते और इस संवेदना को अपने शब्दों में बांध कर किसी कालजयी कहानी
को जन्म देते। पानी अलग
,भगवान अलग। जबकि
रुद्रयामल तंत्र में लिखा हुआ है:-
“रजस्वला पुष्करंतीर्थ, चांडाली तु स्वयं काशी चर्मकारी प्रयाग:
स्याद्रजकी मथुरामता। अयोध्या पुक्कसी प्रोक्ता”
अर्थात रजस्वला स्त्री के साथ समागम करने
से पुष्कर-स्नान
, चांडाली से काशी की
यात्रा ,
चमारी से
प्रयाग-स्नान
, धोबिन से
मथुरा-यात्रा और कजरी से अयोध्या तीर्थ प्राप्त हो जाता है।”
चमारी के हाथ का पानी नहीं पिएंगे, मगर ‘प्रयाग’ स्नान अवश्य करेंगे !
असंगघोष की कविताओं ने मेरे दिल के किसी
कोने में वर्षों से सुषुप्त कथानक को एक बार फिर से कलमबद्ध करने के लिए जगा दिया
था। ‘तेरा प्रतिशोध’ कविता में मरी हुई गाय की खाल उतारकर
लौटते सतनामी संप्रदाय के लोगों को धर्मोन्माद भीड़ गाय का हत्यारा समझकर प्रतिशोध
लेने के लिए दशहरे के दिन रावण–वधोत्सव
में मौत के घाट उतार देते है। बिना सोचे-समझे आम जनता उन दलितों को अपना शत्रु समझ
लेती है। कवि असंगघोष ने इस विसंगति का उल्लेख करते हुए गीता के पन्द्र्हवें
अध्याय के सातवे श्लोक में श्रीकृष्ण के संदेश की ओर ध्यानकृष्ट करते हैं “ममैवांशो जीवलोके जीवभूत सनातन” अर्थात संसार के सारे जीव मेरे सनातन
अंश है।
‘हाड़ीपान’ भी मेरे है तो महापात्र, ब्राह्मण भी मेरे अंश है। लेकिन यथार्थ
संसार में असमानता है जहां ‘नाइकों
के शनिपीठ’
और ‘महापात्रों के शनिपीठ’ में शनि महाराज बदल जाते हैं तो कवि का
यह प्रश्न स्वाभाविक है कि ‘कहाँ
हो ईश्वर?’
। जहां भी हो, कम से कम आप अपना पता बता देते कि आप
स्वार्थ लोलुपों की जिह्वा पर हो, भव्य
प्रासादों में बैठे हो,कपटी बामनों धन्ना सेठों की तोंद में
मरी गाय की खाल में हो या फिर भी मूर्तियों, पोथीओं भजनों,खाल सुखाने वाले चूने में ? अगर ईश्वर का अस्तित्व वास्तव में होता
तो क्या समाज में इस प्रकार की असमानता नजर आने लगती? उपनिवेशवाद में मनुष्यों द्वारा
मनुष्यों के शोषण को देखकर कभी सरदार भगत सिंह के मन में शहीद होने से पहले ‘नास्तिकवाद’ के विचार पनपने लगे थे। वर्ग-भेद की इस
खाई को चौड़ा होता देखकर कवि अपने कविता ‘ओ
पृथ्वी’ में पृथ्वी को बिंब बनाकर कहता है कि
तुम झुकी रहो,
सीधी मत होना अगर
सीधी हो गई तो विश्व में प्रलय मच जाएगा। बेहतर यही होगा,असमानता सदैव जिंदा रहे। कवि के ऐसे
उत्तेजक विचार उसके बागी होने का संकेत दे रहे है। ‘तेरी सरस्वती’,‘अब भी चुप रहोगी’, ‘आखिर कब तक’, ‘क्यों सबको लें’ आदि उनकी कविताओं में हिन्दू-धर्म के
द्विज पुत्रों द्वारा पैरों में जातिवाद की बेड़ियों जकड़े अत्याचार,अन्याय की मकड़-जाल से मुक्त होकर समाज
के धुंधले आइने में अपना अक्स खोजना चाहता है। ‘आखरी कब तक’, ‘वह सहता रहेगा?’ जब तथाकथित विधाता हर-बार उसे अपने
जबड़ों का ग्रास बनाकर अनंत आकाश
में किसी टूटे तारे की तरह नष्ट होने के लिए छोड़ देता है। उस अवस्था में कौन इन
मूलभूत प्रश्नों का उत्तर खोज पाएगा कि मैं कौन हूँ ?, कहाँ से आया हूँ ? मुझे क्यों कोई खोज रहा है ?
संक्षेप में, कवि अपने धर्म-परिवर्तन की ओर इशारा कर
रहा है। हिन्दू-धर्म की इन कमजोरियों का फायदा उठाकर दूसरे धर्म हमारे दलित लोगों
को अपने धर्म की ओर लुभाना शुरू कर देते हैं। ओड़िशा के केंदुझर जिले के आस-पास
धर्म-परिवर्तन की इस प्रक्रिया को रोकने में स्वामी लक्ष्मणानन्दजी को अपने
प्राणों की आहूती देनी पड़ी। छतीसगढ़ में राजा जूदेव ने भी इस तरह से होने वाले
धर्म-परिवर्तन को रोकने का भरसक प्रयास किया।
कवि असंगघोष का कविता संग्रह भले ही दिखने
में छोटा है,मगर हिन्दू धर्म के ठकेदारों पर गंभीर
घाव कर रहा है। मंडल कमीशन द्वारा अध्यारोपित आरक्षण के कारणों पर नए सिरे से
प्रश्न खड़े कर
रहा है। जहां
साहित्यकार वर्ग समाज को जाति-विहीन बनाने का प्रयास करता है, वहीं राजनैतिक वर्ग अपनी निजी स्वार्थ
के खातिर जाति पर आधारित समाज का वर्गीकरण कर और ज्यादा मकड़-जाल में फँसाते जा रहा
है। जिस धर्म को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म माना जा रहा था , वह वर्ण-व्यवस्था के कारण पतन की ओर
अनवरत अग्रसर हो रहा है।
सनातन धर्म के आदि-देश भारत में कुरीतियाँ
यहाँ तक पनपी कि मुसलमानों के आक्रमण के समय उनका धर्म आक्रामकों के हाथ का एक
ग्रास चावल खाने से,
दो घूंट पानी पीने से
नष्ट होने लगा। धर्म-भ्रष्ट घोषित हजारों हिंदुओं ने आत्म-हत्या कर ली। धर्म के लिए वे मारना
जानते थे,
लेकिन धर्म समझें तब
तो। धर्म तो हो
गया छुई-मुई। छुई- मुई का पौधा छूने पर मुरझा जाता है, किन्तु छूटते ही पनप जाता है। उनका
सनातन धर्म तो ऐसा मुरझाया कि कभी नहीं पनपा। जिस सनातन आत्मा को भौतिक वस्तुएँ
स्पर्श भी नहीं कर पाती,
वह कहीं छूने-खाने से
नष्ट होता है
? आप तलवार से मरें, मगर धर्म छूने से मर गया ? क्या सचमुच धर्म नष्ट हुआ ? कदापि नहीं , धर्म के नाम पर कोई कुरीति पल रही थी, वह नष्ट हुई। फिरोज तुगलक के शासन काल
में बयाना के काजी मुगीसुद्दीन ने व्यवस्था दी कि हिंदुओं को अपना मुंह खोल देना
चाहिए। यदि कोई मुसलमान थूकना चाहता है तो वह हिन्दू दीनदार हो जाएगा, क्योंकि उसके पास कोई धर्म नहीं है।
बुरा क्या कहा उसने।
मुँह में थूकने से तो
एक ही मुसलमान बनता,
कुएँ में थूकने से तो
हजारों बन जाते थे। वस्तुतः वह आततायी था या उस समय का हिन्दू समाज ?
जिन्होंने इस प्रकार धर्म परिवर्तन कर लिया
क्या कोई धर्म पा गए
? हिन्दू से मूसलमान बन
जाना या एक प्रकार के रहन-सहन से दूसरे रहन-सहन में चले जाना धर्म तो नहीं है। इस
प्रकार योजनाबद्ध षड्यंत्र का शिकंजा बनाकर जिन्होंने उन्हें बदला क्या वे
धर्मात्मा थे?
वे तो और भी बड़ी
कुरीतियों के शिकार थे। हिन्दू उसी में जाकर फँस गये। अविकसित और गुमराह कबीलों को
सभ्य बनाने के लिए मुहम्मद ने विवाह, तलाक, वसीयत, लेन-देन, गवाही, कसम, प्रायश्चित, रोजी-रोटी, खान-पान, रहन-सहन इत्यादि विषय में एक सामाजिक
व्यवस्था दी तथा मूर्ति-पूजा, व्यभिचार, चोरी, शराब, जुआ, माँ, दादी इत्यादि से विवाह पर प्रतिबंध
लगाया। समलैंगिक तथा रजस्वला मैथुनों का निषेध करके, रोजे के दिनो में भी इसके लिए ढील दी।
जन्नत में बहुत-सी समवयस्क, अनछुई
हूरों और किशोर बालकों का प्रलोभन दिया। यह कोई धर्म नहीं था, एक प्रकार की सामाजिक व्यवस्था थी। ऐसा
कुछ कहकर उन्होंने वासना में डूबे हुए समाज को उधर से घुमाकर अपनी ओर उन्मुख किया।
स्त्रियों को जन्नत में कितने पुरुष मिलेंगे? इस पर उन्होंने सोचा ही नहीं। यह उनका
दोष नहीं,
दोष उस देश-काल और
परिस्थिति था,
जिसमें स्त्रियों की
आकांक्षाओं पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था।
तुलसीदास
की रामचरित मानस में एक पंक्ति आती है , “ढ़ोल, पशु, शूद्र, गंवार और नारी; ये सब ताड़न की अधिकारी”
पता नहीं, शूद्रों ने तुलसीदास जी का क्या बिगाड़ा
कि उन्हें प्रताड़ित करने का हकदार बनाया। यह तो कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं है। 16 वीं सदी का बात रही होगी। महान दार्शनिक
रजनीश ने एक जगह कहा कि हिन्दू देवी-देवताओं के सभी अवतार राजघराने से थे। कृष्ण, राम, महावीर जैन, गौतम बुद्ध, सभी तो क्षत्रिय राजकुमार थे। क्या किसी
गरीब या शूद्र आदमी की ऐसी औकात कहाँ कि वह तथाकथित भगवान बन सके ? महाभारत में एकलव्य का प्रसंग आता है कि
शूद्र होने की कारण गुरु द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य नहीं बनाया वरन अपनी उंगली
दक्षिणा में मांग ली
? क्या यह वर्ण-व्यवस्था
के घोर अत्याचार व पक्षपात का प्रतीक नहीं थी। इसी प्रकार कृष्ण के दांव-पेंच में
उलझकर सूतपुत्र कर्ण ने अपने कवच-कुंडल दान में दे दिए। जब-जब कोई दलित आदमी ऊपर
उठने की कोशिश करता है,
वैसे ही उसे किसी न
किसी दांव-पेंच में फंसा दिया जाता है। कवि असंग घोष की कविता “तुम्हारा दाँव” इसी दर्द का बयान करते हुए चुनौती देती
है कि शूद्र अब इतने मूर्ख नहीं रखे , किसी
के भी दांव में फंस जाए।
यजुर्वेद
के 31 वें अध्याय का 11 वा मंत्र आता है :-
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद बाहू राजन्य: कृत:
उरु तदस्य यद्वैश्य पदमया शूद्रो अजायत ।
अर्थात ब्राह्मण ईश्वर के मुख ,क्षत्रिय बाहू से , वैश्य उरु (कमर) तथा शूद्र पगों से उत्पन्न हुआ है।
इसलिए शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती
ने अपनी क्रांतिकारी पुस्तक “सत्यार्थ
प्रकाश” के चतुर्थ समुल्लास ने गुणों के आधार
निराकार परमात्मा के सापेक्ष में,भले ही,दूसरा अर्थ क्यों नहीं किया हो, मगर अर्थ का अनर्थ करने वालों की यहाँ
कमी नहीं है। इसी बात को उजागर करती है उनकी कविता
‘तेरी सरस्वती’ :-
तेरे कथानुसार
शब्दों की धार ही सरस्वती थी
ऐसी दशा में भला सरस्वती
मेरी जिह्वा पर आती भी कैसे
तेरी गुलाम जो थी
मनुस्मृति जैसे कुछ धर्म-ग्रन्थों में लिखा
गया है कि स्त्री और शूद्र वेदों को न पढ़े। “स्त्री शूद्रो नाधियातामिति श्रुते”। और अगर वे इसे पढ़ने का दुस्साहस करते
हैं तो उनके कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया जाए। काली तंत्र में पाँच मकार (मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, और मैथुन) को युगों-युगों से मोक्ष का
साधन माना जानेलगा ।
“ मद्य मांस च मीन च मुद्रा मैथुन
मेव च
एते पंच मकारा : स्युर्मोक्षदा ही
युगे- युगे”
जबकि ज्ञान संकलनी तंत्र में “मातृयोनि परित्यज्य विहरेत सर्वयोनिषु”। अर्थात माता को छोड़ कर किसी भी स्त्री
के साथ समागम किया जा सकता है। हद तो इस बात की हो जाती है कि ओडिश-तंत्र ‘मातरमपि न त्यजेत’ (माता को भी नहीं छोड़ना चाहिए) की अनुमति
देता है। मनुस्मृति में एक जगह यह भी आता है ,-
“वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति”
“ न मांस-भक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । “
वेदों
के लिए की गई हिंसा नहीं होती। न मांस भक्षण में किसी प्रकार दोष है न शराब पीने
में और न ही परस्त्री-गमन में।
इन
कुटिल बातों को याद करते हुए कवि असंगघोष लिखते है :-
“
दीमकों चाट क्यों नहीं जाती मनुस्मृति,
पचा क्यों नहीं जाती
अन्याय के प्रतीक
रामायण,
खा क्यों नहीं जाती वेद-पुराण, क्यों नहीं छेद देती तुम उनकी खोपड़ी जहां सिर्फ और सिर्फ कुटिलता भरी पड़ी है।”
ऐसे
धर्म की व्यंग्यात्मक आलोचना उनकी कविता “शुक्र है तुम नहीं गए” में साफ देखने को मिलती है ।
शुक्र है चाँद
पर अमरीकी पहले-पहले गए
और गाड़ आए स्टार
स्ट्रीप्स गर तुम चले जाते
तो क्या करते धर्म-ध्वजा
गाड़ आते ! ”
‘भगोरिया’ कविता में एक ऐसे उत्सव का वर्णन है
जिसमें भीलांचल की युवक-युवतियाँ द्वारा अपने मन-पसंद जीवन-साथी का चयन उसके गालों
पर गुलाल मलकर तथा मुंह में पान का बीड़ा खिलाकर बिना कुंडली मिलाए किया जाता है। ‘दादी दूर नहीं है’ कविता में कवि अपने दादा जी व उनके भाई
बिना मजदूरी के चमड़े का चड़स तथा रहट चलाने की यादें ताजा करते हैं, वहीं दादी रेटिया चलाकर ऊन कात कर कंबल
बनाती थी,
भादों की दूज पर
रामदेव के मेले में धोक चढ़ाकर प्रसाद बांटती थी। एक दिन दादी भगवान के घर चली गईं
और अब जब उनके बेटे अपनी दादी से बतियाते है तो उन्हें अपनी दादी याद आने लगती है।
‘अनाथ गौरैया’ में पुरानी पीढ़ी के लोगों का
पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम को प्रदर्शित किया गया है। कभी दादाजी दाड़िम के पेड़
के आँगन में
दाना डालते थे, जिसे चुगने के लिए बेरोक-टोक, बेखौफ गौरेया आती थीं। और आज उसी गौरेया
ने पक्के घर के रोशनदान से होते हुई दादाजी की तस्वीर के पीछे अपना घोंसला बना
दिया है और जब-तब घूमते हुए पंखे से टकराती है क्योंकि अब वह अनाथ है।
‘हाँ, हम गवाही देंगे’ कविता में आंखो के सामने कुछ असामाजिक
तत्वों द्वारा की गई आगजनी तथा गोलेबाजी का वर्णन है। मगर अब शोषित वर्ग अब जाग
चुका है और निहत्थे ललकार रहे हैं मुकाबला करने के लिए और अगर जीवित बचे तो कचहरी
में उनके खिलाफ गवाही दे देने के लिए भी तैयार है।
‘जात का भय’,‘मेरा दर्द’,‘वाह!क्या न्याय है’,‘अपने-अपने सपने’,‘काश! कि’ में कवि की अवांछित और असहनीय वेदना
झलकती है। सच मानिए यह कविता-संग्रह ‘नहीं
सुनाई पड़ने वाली’
आवाज की चीत्कार,चीख,रुदन-क्रंदन,आतंक,बर्बरता,आंसू,जज़्बात,दृष्टि,संघर्ष, जिजीविषा, करुणा आदि के भावों को जानने का अवसर
प्रदान करेगी ।
(प्रकाशक
: शिल्पायन,
दिल्ली/मूल्य: 110/संस्करण : 2007/शीर्षक : हम गवाही देंगे/कवि:असंग घोष)
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