23. त्रिसुगंधी संस्थान-यादगार पल
यद्यपि साहित्य सर्जन एक अनवरत अंतर्मुखी सारस्वत प्रक्रिया है,मगर उन अंतर्मुखी साहित्यिक गतिविधियों को बहिर्मुखी करने अर्थात उनके प्रचार,प्रसार और उन्नयन की उतनी ही आवश्यकता होती है,जितनी साहित्य सर्जन की। यह संस्थागत काम इतना सरल व सहज नहीं होता है। उसके लिए अगर आवश्यकता होती है तो किसी अंतप्रेरणा की,त्याग की और साथ ही साथ अपने व्यक्तित्त्व में अंतर्निहित नेतृत्व के नैसर्गिक गुणों के विकास की।प्रेरणा का माध्यम कुछ भी हो सकता है। उसके पीछे छूपे उद्देश्य व वैचारिक पृष्ठभूमि को झाँकने पर यह तथ्यसिद्ध हो जाता है कि अधिकतर कारण जो हमारे सामने उभरकर आते है,वे होते हैं-अपने परिजनों खासकर माता-पिता,धर्मपत्नी, प्रेमिका अथवा दोस्त से स्थायी वियोग। इतिहास साक्षी है इस सृजनशील क्रिया का,कभी प्रह्लाद बनकर अपने माता-पिता की सेवा करने का,तो कभी पत्नी की याद में ताजमहल बनाने जैसी विश्व की अनोखी घटनाओं का।मगर साहित्य को लेकर एक बेटी द्वारा अपने दिवगंत पिताजी की स्मृति में राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य,संस्कृति और कला के क्षेत्र में नाम रोशन करने वाले उदीयमान तथा स्थापित साहित्यकारों,संस्कृति-कर्मियों और कलाकारों को एक भव्य साहित्यिक समारोह में परंपरागत राजस्थान संस्कृति के अनुरूप सम्मानित होते देखने तथा अनुभव करने का मुझे अपने जीवन में पहली बार 7 तथा 8 मई,2015 को अवसर प्राप्त हुआ। इस आयोजन की प्रमुख सूत्रधार हिन्दी जगत की सुविख्यात कवयित्री श्रीमती आशा पाण्डेय ओझा थी, जिन्होने अपने दिव्यात्मा पिता स्वर्गीय शिवचंद ओझा (ओसियां वाले) की स्मृति में लिए एक दैविक संकल्प को सिरोही जिले के पिंडवाड़ा तहसील में राष्ट्रीय वनवासी परिषद द्वारा संचालित आदर्श विद्या मंदिर में साकार रूप प्रदान किया।
यद्यपि राजस्थान के सेठ-साहूकारों में यह ट्रेंड रहा है कि वे अपने दिवगंत परिजनों की आत्मा की शांति के लिए प्याऊ बनाना,स्कूल खोलना,हवन करना,उनकी स्मृति में चैरिटेबल ट्रस्ट खोलना या बड़े मंदिरों में ईश्वर के नाम सोना-चाँदी दान देना,अपने समाज में शिक्षा के विस्तार हेतु छात्रावास खोलना अथवा उनके नामों को अमर करने की आकांक्षा में कुछ लोग उनकी पुण्य-स्मृति में खेलकूद जैसे अनेकानेक कार्यक्रम करवाते हैं, मगर साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन ‘यत्र-तत्र यदा-कदा’ही देखने को मिलते है।
इस कार्यक्रम की पहली खास विशेषता थी,एक विवाहिता बेटी द्वारा अपने दिवगंत पिता की स्मृति में राष्ट्रीय स्तरीय आयोजन की रूपरेखा का निर्धारण। जहां भारतीय समाज में बेटी शादी के बाद बहू बन जाती है और उसके सारी जिम्मेदारियाँ नए घर के प्रति समर्पण-भाव से शुरू हो जाती है,सास,ससुर,जेठ,पति,देवर ननद,जेठानी,देवरानी सभी अनजान चेहरों के प्रति वहाँ इतने बड़े आयोजन को सफलतापूर्वक अंतिम रूप देना तो बहुत दूर की बात,उसकी परिकल्पना करना तक अगम्य कार्य हैं।
दूसरी खास बात हैं, किसी बेटी द्वारा पिता की स्मृति में किया जाने वाला आयोजन न केवल आधुनिक भारतीय समाज को पिता के प्रति मान-सम्मान करने की प्रेरणा देता है, बल्कि भ्रूण-हत्या जैसे सामाजिक अपराधों पर प्रतिबंध लगाकर पति-पत्नी द्वारा दोनों परिवारों की सामूहिक जिम्मेदारियाँ उठाने की दिशा में चुनौती भरा पदक्षेप भी।
इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में मुझे सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता ‘सरोज-स्मृति’’ रह रहकर याद आ रही थी,अपनी अठारह वर्षीय युवा पुत्री सरोज के निधन पर कितना मार्मिक शोकगीत रचा था उन्होंने! उस कविता की कुछ मार्मिक पंक्तियाँ आज भी स्मृति-पटल पर तरोताजा है।
मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग बाद जब हुई विकल
दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
कुछ समय के लिए ऐसा लग रहा था मानो वे ही दोनों पुण्य आत्माएँ समय के व्यतिक्रम में आशा और उनके दिवगंत पिता श्री शिवचंद ओझा के रूप में अवतरित हुई हो,‘जर्रे-जर्रे में उन्हें खोजते’ अपने अधूरे अर्पण-तर्पण को पूर्ण करने के लिए शायद एक पुनरावृति के रूप में ‘सरोज स्मृति’ का स्थान ‘शिवचंद स्मृति’ ले रही हो,देश के कोने-कोने से पधारे साहित्यकारों की उपस्थिति में।
ऐसे भी श्री शिवचंद ओझा स्मृति के इस आयोजन को मैं अपने लिए एक दैविक कृपा के रूप में अनुभव कर रहा था।जैसे तुलसीदास जी के रामचरित मानस की उक्ति “अब मो भा भरोस हनुमंता, बिनु हरिकृपा मिले नहीं संता” मेरे ऊपर चरितार्थ होने जा रही हो मेरे लिए, चार विशेष कारणों से। पहला,यह आयोजन पिंडवाडा गांव में होने जा रहा था, जो मेरी जन्मभूमि सिरोही जिले की एक तहसील है। और कहना भी क्या जब,”जननी और जन्मभूमि स्वर्गादापि गरियसी”! दूसरा, त्रिसुगंधी संस्थान की आयोजिका कवयित्री श्रीमती आशा पांडेय ओझा ने मुझे इस अवसर पर उनके नूतन कविता-संग्रह ‘वक्त की शाख से” पर आलेख-वाचन करने का एक गौरवशाली अवसर प्रदान किया था। तीसरा,डॉ॰ नन्द भारद्वाज साहब (जयपुर),डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्र, (देहरादून), डॉ॰ पंकज त्रिवेदी (गुजरात),डॉ॰ सुधीर सक्सेना(दिल्ली) और डॉ॰ विमला भंडारी (उदयपुर) जैसे उत्कृष्ट साहित्यकारों से बहुत दिनों बाद मिलने के साथ-साथ कई सम्मानित होने वाले नए चेहरों में श्री देवमनि पांडेय (फिल्मी गीति लेखक), श्रीमती समीक्षा (अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कथक डांसर), श्री सागर सूद और श्री महासिंह पूनिया जी आदि से भी भेंटवार्ता करने का एक सुलभ अवसर मैं खोना नहीं चाहता था।और अंतिम चौथा कारण, जो मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण था, 8 मई की वह तारीख-जो मुझे अपने अतीत की ओर खींच रही थी। सन 1997 में जिस दिन मेरे पिताजी मुझे हमेशा के लिए अकेला छोड़कर भगवान के घर चले गए थे और एक साल बाद वहीं दिन अर्थात 8 मई 1998 को मैंने उनकी स्मृति में एक लघुकाय पुस्तक “न हन्यते” अपने पैसो से झारसुगुड़ा(ओड़िशा) की एक प्रिंटिंग प्रेस से छपवाकर सिरोही के राम झरोखा मैदान की एक भव्य धर्मसभा में सिरोही के भूतपूर्व नरेश रघुवीर सिंहजी तथा आंबेश्वर स्थित योगाश्रम के महाराज श्री शंभूनाथ जी के करकमलों द्वारा विमोचन करवाया था। अब आप अंदाज लगा सकते है, पिंडवाड़ा की धरती पर मेरे लिए थे दोनों दिवस कितने महत्वपूर्ण रहे होंगें।तभी तो ऊपर मैंने कहा,“अब मो भा भरोस हनुमंता, बिनु हरिकृपा मिले नहीं संता”। ‘हरिकृपा’ तो अवश्य है,मुझ जैसे तुच्छ बंदे पर,अन्यथा विविध रूपों में इन विगत स्मृतियों की पुनरावृत्ति क्यों होतीं? हो सकता है,जोग-संजोग ही हो, मगर आपको यह जानकर और ज्यादा अचरज होगा कि 8 मई की तिथि आशाजी के दिवगंत पिता की जन्म-तिथि थी। इस तिथि की समानता भी मेरे हृदय में तरह-तरह के विचार उद्धेलित कर रही थी, जन्म-मृत्यु के उलझे और अनसुलझे रहस्यों को लेकर, वैराग्य और जीवन की निस्सारता को लेकर।
आशाजी के पिताजी की तस्वीर में मुझे अपने पिता नजर आने लगे थे, शायद कह रहे हो, तुम्हारी साहित्यिक यात्रा का यह पड़ाव मेरी आशीष की बदौलत हो रहा है। कहते-कहते वे धीरे-धीरे दृष्टि से ओझल होने लगते है,मैं उन्हें मन-ही-मन नमस्कार करते हुए यथार्थ में लौट आता हूँ।मुझे लगने लगता है कि कहीं श्री शिवचंद ओझा मेरे पिता के अपररूप तो नहीं? मेरी नीरवता, निस्संगता और आंतरिक उथल-पुथल को देखकर स्थितप्रज्ञ होने का संदेश देने आए हो। क्या पुनर्जन्म होता है? नहीं जानता।
अतीतावलोकन की फांक में से झाँकने के कुछ क्षण बाद जैसे ही मैं बाहरी दुनिया में प्रवेश करता हूँ, तो पाता हूँ अपने आपको आशाजी के सरकारी क्वार्टर में। जहां देश की कोने-कोने से विख्यात साहित्यकार डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्र, श्री पंकज त्रिवेदी, गोविंद शर्माजी, श्रीमती सुरेखा शर्मा, श्रीमती मोनिका गौड़, श्री रवि पुरोहित, श्री प्रह्लाद पारीक सब पधार चुके थे। तहसील ऑफिस के पास ही सटकर लगा हुआ था यह सरकारी क्वार्टर, काफी बड़े आँगन वाला।गेट के बाहर एकाध बोलेरों जीप भी खड़ी थी। मेहमानों की आवाभगत में व्यस्त थी आशाजी, चेहरे पर लिए स्वच्छ स्फित मुस्कान और आत्म-विश्वास की रेखाएँ। शायद उनके माध्यम से उनके पिताजी की पुण्यात्मा ने इस पुनीत कार्य के लिए पूरे देश में सारस्वत काम से जुड़े सभी लोगों को आमंत्रित किया हो।“अतिथि देवो भव:” की तर्ज पर अपने घर में अपने हाथ से भोजन बनाकर सभी को लंच कराने की संतृप्ति के बाद उन्होंने आमंत्रित अतिथियों को जे॰के सीमेंट फैक्ट्री के अतिथि निवास गृह में ठहरने के लिए भेजा।
सिरोही का स्थानीय निवासी होने की नाते अपने घर का प्रोग्राम समझकर मैं पिंडवाड़ा यूथ फाऊंडेशन (पीवाईएफ़) के स्वयंसेवकों के साथ उनके निवास स्थान से एक-दो किलोमीटर दूर स्थित आदर्श विद्या मंदिर में शाम को होने वाले आयोजन की गतिविधियों में शामिल हो गया। अरावली के पहाड़ो के प्राकृतिक-सौंदर्य को समेटे विशाल प्रांगण वाली इस सुंदर भव्य स्कूल के बीचों-बीच बने एक बड़े हॉल के चबूतरे पर तैयारियां की जा रही थी, जिसमें एक तरफ दो-तीन फुट ऊंची संगमरमर की मूर्तिवाली सरस्वती प्रतिमा और दूसरी तरफ भारत माता की प्रतिमा बनी हुई थी। चबूतरे के पीछे स्क्रीन की तरह आर॰सी॰सी॰ की पतली दीवार पर चिपकाई हुई थी,तरकश में तीर लिए वनवासी त्रेतायुगीन राम की सुंदर तस्वीर। यह स्कूल न केवल भारतीय सांस्कृतिक धरोहरों की सरंक्षक है,वरन् भावी पीढ़ियों में संस्कार के बीज बोने का काम कर रही है। यह सभागार ऊपर से हरे रंग की पारदर्शी प्लास्टिक सीटों से ढका हुआ था,जिसमें अस्ताचल को चले सूरज की किरणें हैलोजन लाइट की स्वर्ण रोशनी से मिलकर अत्यंत ही मनमोहक वातावरण का निर्माण कर रही थी, जो दर्शक दीर्घा में बैठे श्रोतागणों तथा मंचासीन अतिथिगणों को मंत्र-मुग्ध कर रही थी। अतिथियों के सम्मान में जमीन पर बिछी हरे रंग की फेल्ट के मध्य बिछाई गई रेड कार्पेट समारोह के आभिजात्य में वृद्धि कर रहा था। इधर अरावली पर्वत-शृंखला में अपने कोणार्क रथ में अपनी रश्मियों को समेटे सूरज अपने घर की ओर प्रस्थान कर रहे थे,उधर धीरे-धीरे समय इतिहास के स्वर्णिम पन्नों की पुस्तक पलटते हुए नजदीक आता जा रहा था श्री शिवचंद ओझा स्मृति में किए जा रहे दो दिवसीय राष्ट्रीय साहित्यकार सम्मेलन के शुभ-उदघाटन को लिपिबद्ध करने के लिए।
प्रथम सत्र(07.05.15, 4॰30 बजे ) : उदघाटन–सत्र
इस सत्र में राजस्थान उच्चतर न्यायिक सेवा सेवा निवृत व वरिष्ठ साहित्यकार मुरलीधर वैष्णव,पंकज त्रिवेदी, डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्र, गोपाल शर्मा जी, श्री प्रकाश कोठारी,डॉ॰ सुधीर सक्सेना,डॉ॰ सुरेखा शर्मा सुशोभित कर रहे थे और भीलवाडा के प्रह्लाद पारीक का प्रखर मंच-संचालन विमुग्ध किए जा रहा था। यह गोधूलि-लग्न देश के कोने-कोने से आए साहित्यकारों,समीक्षकों,गीतकारों,कलाकारों तथा संस्कृतिकर्मियों की उपस्थिति में सरस्वती प्रतिमा के समक्ष सरस्वती वंदना,प्रदीप-प्रज्ज्वलन और राजस्थानी गीत “मोरिया रे झट चौमासो लाग्यो” पर प्रस्तुत राजस्थानी लोक-नृत्य इस सत्र की सुगंध का साक्षी बन रहा था।
त्रिसगुन्धि (साहित्य,संस्कृतिऔर कला) संस्थान की संस्थापिका व अध्यक्षा श्रीमति आशा पांडेय ओझा ने अपने स्वागत भाषण में सभी साहित्यकारों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने दिवगंत पिता के स्मृति में किए जा रहे इस आयोजन को मुख्य उद्देश्य, कार्य-पद्धति तथा वर्तमान युग में भारतीय साहित्य,संस्कृति व कला के उत्थान-उन्नयन पर सारगर्भित विवेचना की। इस सत्र के साहित्यकारों के उद्बोधन के कुछ मुख्य स्मृत अंश इस प्रकार है:-
विश्वगाथा के संपादक,लेखक व कवि पंकज त्रिवेदी(गुजरात)कहते हैं:-
“ .... आशाजी मेरी सगी बहिन के तुल्य है। मैं आभार व्यक्त करता हूँ उनके प्रति, कि उन्होने मुझे इस कार्यक्रम के योग्य समझा। ..”
राजस्थान उच्च-नयायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश श्री मुरलीधर वैष्णव (जोधपुर) का उद्बोधन :-
“.... आशाजी मेरी गाँव की बेटी है। अगर वह चाहती तो अपने पिताजी की पुण्य-स्मृति में एकाध ब्रह्मभोज रख सकती थी। चूंकि ब्रह्म एक सर्जनशील शक्ति है, जो सृष्टि का निर्माण करती है। इस तरह हर साहित्यकार भी सर्जनशील है,अनुसर्जनशील है,अतः प्रत्येक साहित्यकार ब्राह्मण है।इस तरह आशाजी यहाँ एक-एक ब्रह्म भोज नहीं देकर, चार-चार ब्रह्मभोज दे रही है।यह पुण्य-यज्ञ किसी महान पुण्यात्मा के सिवाय सम्पन्न नहीं किया जा सकता है।आशाजी पुण्यात्मा है और उनके पिताजी अवश्य कोई महान आत्मा थे। ....”
“दुनिया इन दिनों” के प्रधान संपादक श्री सुधीर सक्सेना (दिल्ली) के हृदयोदगार इस प्रकार है:-
“...... यह पिंडवाड़ा की धरती सौभाग्यशाली है,जहां राष्ट्रीय स्तर पर इतना बड़ा भव्य कार्यक्रम का आयोजन आशाजी के नेतृत्व में किया जा रहा है,जिसमें देश के कोने-कोने से साहित्यकार पधारे हैं।उत्तराखंड से बुद्धिनाथजी,ओड़िशा से दिनेश माली जी,गुजरात से पंकज त्रिवेदीजी ...“
देश के शीर्षस्थ एकमात्र सक्रिय गीतकार डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) के भावभीने वचन :-
“........ आशाजी से मेरी मुलाक़ात देश में नहीं,बल्कि विदेश की धरती “ताशकंद” में हुई।..... मैं उतराखंड से आ रहा हूँ। जहां एक नहीं,तीन-तीन भगवान विराजते हैं। कैलाश,जो शिव की तपोभूमि है,जहां बड़े-बड़े धाम है,केदारनाथ धाम,बद्रीनाथ धाम। मैं उन सभी भगवानों का आशीर्वाद इस बेटी को अर्पित कर रहा हूँ कि वह खूब फले-फूले और साहित्य की सृजन-भूमि में अनवरत इसी तरह सक्रिय बनी रहे।...”
और भी कई मंचासीन वक्ताओं में डॉ॰ सुरेखा शर्मा, श्री प्रकाश कोठारी ने भी आशाजी के प्रति सहृदयतापूर्वक आभार व्यक्त करते हुए अपने-अपने विचार व्यक्त किए। प्रह्लाद पारीक जैसे प्रतिभाशाली मंच संचालक की विलक्षण क्षमता देखते ही बनती थी, नपी-तुली भाषा,सुंदर-शैली, आत्म-विश्वास और बीच-बीच में वीर, हास्य, गंभीर व दार्शनिक सभी प्रकार की कविताओं के स्फुट उदाहरण अभी भी मानस-पटल को स्मृति के ‘फ्लैश-बैक’ में ले जाते हुए महसूस होते हैं। उदघाटन-सत्र की समाप्ति के पश्चात पाँच मिनट का टी-ब्रेक।फिर शुरू होता है आशाजी की अद्यतन पुस्तक “वक्त कि शाख से” का लोकार्पण समारोह।
द्वितीय सत्र(07.05.15,6.30 बजे):- लोकार्पण सत्र
मैंने सपने में भी सोचा नहीं था कि इस सत्र में मैं भी सम्मानित अतिथियों की श्रेणी में मंचासीन होकर अपने आपको गौरवानन्वित अनुभव करूंगा। हिन्दी साहित्य जगत में मेरी भूमिका परमाणु के अविभाज्य अंग न्यूट्रान, प्रोटान अथवा इलेक्ट्रान अर्थात् त्रेसरेणु से भी कम है, तब श्री गोविंद शर्माजी,डॉ॰बुद्धिनाथ मिश्र,डॉ॰ विमला भंडारी, मोनिका गौड़,डॉ॰रवि पुरोहित,दिल्ली से पधारे दो अन्य मेहमान राष्ट्रीय सहारा देहली के जर्नलिस्ट श्री संजय सिंह व वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश दीवान और आशाजी जैसे बड़े-बड़े साहित्यकारों के साथ मंच साझा करना मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं था। बुद्धिनाथ जी के करकमलों से उनकी नई कविता-संग्रह ‘वक्त की शाख से’ का विमोचन हुआ। मैं अपने हाथों में किताब रखकर दर्शक दीर्घा को दिखाते समय भीतर ही भीतर गरिमामय अनुभूति को हृदयंगम कर रहा था। किसी ‘पुस्तक विमोचन’ के कार्यक्रम में जीवन में पहली बार किसी बड़े मंच पर अपने आपको उपस्थित पा रहा था। मन ही मन सोच रहा था, क्या मैं इस लायक हूँ? यह तो आशाजी का स्नेह है कि उन्होंने मुझे मंच पर आमंत्रित कर यह स्थान प्रदान किया है, अन्यथा मैंने तो यही सोचा था जब इस पुस्तक पर लिखे मेरे समीक्षात्मक आलेख को पढ़ने की जब बारी आएगी तब मुझे अपने आप दर्शक-दीर्घा से बुलाया जाएगा,पहला पत्र वाचन किया बीकानेर की मोनिका गौड़ ने। कितने सुंदर तरीके से आशाजी की कविताओं के इर्द-गिर्द घूमती हुई उसने आशाजी के चेतना-स्तरों को मुखरित करते हुए आत्म-विश्वास के साथ अपना आलेख पाठ पूरा किया था उन्होंने। उसके बाद मेरी बारी थी। इस बार पता नहीं क्यों, मुझे अपने आप में आत्म-विश्वास की कमी नजर आ रही थी। शायद तीन कारणों से। पहला, मेरा सही नंबर वाला चश्मा ओड़िशा में ही छूट गया था इसलिए पढ़ने में कठिनाई हो रही थी। दूसरा,मेरा आलेख कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया,यहाँ तक कि ओडिया भाषा की कवयित्रियों की काव्यात्मक समदर्शिता भी इसमें संलग्न थी।तीसरा, संस्कृत श्लोकों का भरपूर प्रयोग हुआ। इन तीनों कारणों की वजह से मुझे लग रहा था कि कहीं यह समीक्षा बोझिल न हो जाए और कहीं श्रोतागण इसे नकार न दे। क्योंकि मैंने इस कविता-संग्रह का गहन अध्ययन कर आलेख बनाने में बहुत मेहनत की थी, इसलिए इस अवसर को मैं किसी भी हालत पर हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। दर्शक वीथिका में बैठे साहित्यकारों को मेरा यह पत्र कैसा लगा,यह मैं नहीं कह सकता। मगर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि मंचासीन अतिथियों में डॉ॰ बुद्धिमान मिश्राजी और डॉ॰ विमला भंडारी ने ‘बहुत ही सुंदर समीक्षा’ कहकर मेरा मनोबल बढ़ाया था। मेरे बाद ‘वक्त की शाख पर’ पर डॉ॰रवि पुरोहित,डॉ॰विमला भंडारी,बुद्धिनाथ मिश्र,गोविंद शर्मा,श्री संजय सिंह व जय प्रकाश दीवान ने अपने समीक्षात्मक विचार रखें, जिसे संकलित किया अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री गोविंद शर्माजी ने।
तृतीय सत्र(07.05.15):- अंलकरण सत्र
‘वक्त की शाख से’कविता-संग्रह के लोकार्पण के पश्चात तुरंत सत्र शुरू हुआ डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्र के अलंकरण समारोह का। उन्हें सम्मानित करते समय राजस्थानी साफा पहनाकर,पश्मिना शाल ओढ़ाते हुए श्रीफल व अभिनंदन-पत्र प्रदान किया गया। अभिनंदन-पत्र कुछ इस तरह था:-
इस अलंकरण सत्र का अध्यक्षीय भाषण,पता नहीं,मुझे क्यों थोड़ा-बहुत विरोधाभासी लगा। अध्यक्ष डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्रा ने जब यह कहा, ‘अभिनंदन शूकरी विष्ठा’ अर्थात किसी भी सारस्वत आयोजनों में लीन व्यक्तियों का अभिनंदन करना सूअर की विष्ठा के तुल्य है अर्थात् उनके कहने का अर्थ यह था कि यह अभिनंदन उनके आगे के सारस्वत-पथ प्रशस्त करने के बजाय उसे अवरुद्ध करता हैं। हो सकता है,दार्शनिक तौर पर यह बात सही हो। मगर मेरे मन में विरोधी विचारों के झंझावात पैदा हो रहे थे। एक दशक की दीर्घ साहित्यिक यात्रा तय करने में मेरा यह अनुभव रहा है कि किसी भी नवोदित रचनाकार को अपने लेखन के शुरुआती चार-पाँच साल में अगर कोई पुरस्कार सम्मान या प्रोत्साहन नहीं मिलता है तो उसकी सृजनभूमि के पल्लवित पुष्प मुरझाने शुरू हो जाते है और बीच में ही उसका लेखन-कार्य सर्वदा के लिए बंद हो जाता है। अतः मेरे दृष्टिकोण में त्रिसुगंधी,सलिला,परिकल्पना आदि साहित्यिक पुरस्कार देने वाली संस्थाओं का भी अपना औचित्य है। ये संस्थाएं नवोदित लेखकों को सुदृढ़ बनने के लिए एक मंच प्रदान करती है और साथ ही साथ, स्थापित सृजनधर्मियों द्वारा उन्हें मार्गदर्शन स्वरूप आशीर्वाद देने का एक अवसर भी सुलभ कराती है। एक बात और थी, मैंने अपने आलेख के उपसंहार में समकालीन कवयित्रियों की कविताओं के कथानक, अंतर्वस्तु,कथ्य शैली सभी को ध्यान में रखते हुए अपनी प्रतिक्रिया के तौर पर आशाजी को आने वाले समय की एक ख्याति-लब्ध कवयित्री के रूप में की। जिस तरह अपने जमाने में कभी सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा और अमृता प्रीतम ने आप नाम रोशन किया था, उस तरह वह भी हिन्दी साहित्य जगत में उभरकर आप नाम प्रतिस्थापित करेगी। मगर डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्रा जी ने इस बात को समय के तुलनात्मक दृष्टिकोण में कवयित्रियों के बदलते कथानकों पर दृष्टिपात करते हुए अध्यक्षीय भाषण में कहा कि आधुनिक समय में जितनी विक्षुब्धताएँ है, उन कवयित्रियों के जमाने में नहीं थी। इस वजह से यह तुलना अप्रासंगिक है। मगर मेरा मन तर्क दे रहा था, उनकी रचनाओं ने उस जमाने के सुख-दुख,व्यथा,अंतर्वेदना तथा तत्कालीन सामाजिक प्रवृतियों को उजागर किया, जो तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के सापेक्ष समानुकूल था। मगर आज की कवयित्रियों में आशाजी के स्वर आधुनिक युग के बदलते परिवेश,बदलते सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ राजनीति,भ्रष्टाचार,माता-पिता सभी पर तो कविता-कर्म कर रही है, समय के अनुकूल। हो सकता है, आज के पचास साल बाद जो ख्याति उन कवयित्रियों को मिली आधुनिक इन कवयित्रियों को भी मिल जाए, अपने सतत सर्जन कर्म के कारण। इन्हीं ऊहापोह और वैचारिक अंतर्द्वंद्व के भीतर यह अंलकरण-सत्र समाप्त हुआ।
चतुर्थ सत्र(07.05.15/ 10.30 बजे) : कवि सम्मेलन
इस सम्मेलन में देश के नामी-गिरामी कवियों ने हिस्सा लिया। जिसकी तालिका काफी लंबी है। चालीस से अधिक कवियों में प्रमुख देवमनि पाण्डेय (मुंबई), सागर सूद (पटियाला),प्रह्लाद पारीक (भीलवाडा), डॉ॰ सतीश आचार्य (बांसवाड़ा), सोमप्रसाद साहिल(शिवगंज), विवेक पारीक (झुंझनू), अब्दुल समद रही (सोजत), सामी शम्स (आबूरोड) है। कवि सम्मेलन के सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे, राष्ट्रीय चेतना के प्रख्यात कवि दिनेश सिंदल (जोधपुर) और मंच-संचालन का दायित्व जाने-माने डॉ॰ राम ‘अकेला’(पीपाड़, जोधपुर)। मन में मेरे भी एक ख्वाहिश चीन संस्मरण पर आधारित मेरी कविता ‘मेरे सपनों में हवेनसांग’ सुनाता, मगर यह संभव न हो सका।कवि सम्मेलन की की शुरुआत रात लगभग 11 बजे हुई और यह आयोजन चला रात को दो बजे तक। मेरी मनोस्थिति रस्सा-कस्सी की तरह थी। इधर काव्य-प्रेम मुझे त्रिसुगंधी के कवि-सम्मेलन की तरफ खींच रहा था और उधर सिरोही में विधवा माँ का सानिध्य,जिसे मैं यह कहकर आया था,“रात को ग्यारह बजे तक लौट आऊँगा, माँ!” आखिरकर मैंने काव्य-प्रेम के भावातिरेक को दबाकर घर जाने का निश्चय किया, यह सोचकर कि जीवन रहेगा तो कवि-सम्मेलन हजारों मिलेंगे। अपने अंतिम पड़ाव की ओर अग्रसर माँ का सान्निध्य क्या मेरे लिए किसी कविता से कम था? जिसका बेटा अपने जीवन के तीस सालों से यायावरी जिंदगी जी रहा है? कब तक माँ के साथ रह पाया? इस निर्मम समय में परदेशी आदमी होने की कारण माँ के साथ रहने का अगर यह अवसर हाथ से चला गया तो कोई जरूरी नहीं है कि मैं उनके पास और कभी रह भी पाऊँ। इधर कवि सम्मेलन चलता रहा और उधर मैं बस में घर जाते समय दिनभर के कार्यक्रम व गतिविधियों पर गंभीरता से सोचता रहा कि अगर किसी भी मनुष्य का मनोबल मजबूत हो तो वह दुनिया को किसी भी कार्यक्रम को कितनी सहजता से साकार कर सकता है,जिस तरह आशाजी ने कर दिखाया।
पंचम सत्र(08.05.15,सुबह 9 बजे) : कविता में स्त्री विमर्श पर राष्ट्रीय संगोष्ठी (भाग-1)
सुबह उठते ही नहा-धोकर तैयार हो कर मैं आयोजन-स्थल की ओर छोटे भाई के साथ बाइक पर बैठ कर चला गया। आयोजन-स्थल पर चारों तरफ विगत रात्रिकालीन काव्य आयोजन चर्चा का विषय बना हुआ था। मैं मन ही मन अपनी अनुपस्थिति पर दुख प्रकट कर रहा था। चाय-नाश्ते के बाद ही सही समय पर यह सत्र शुरू हुआ, नौ बजे के आस-पास राजस्थान की प्रथम महिला जेल-अधीक्षक प्रीता भार्गव की अध्यक्षता में। डॉ॰ विमला भंडारी,आशा पांडेय ओझा,डॉ॰ नवीन नंदवाना, डॉ॰ माधव नागदा, डॉ॰सुधीर सक्सेना जैसी धुरंधर हस्तियाँ मंचासीन थी। सर्वप्रथम उदयपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नवीन नंदवाना ने इस विषय पर अपना सारगर्भित पत्र वाचन किया,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर/देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर/वह तोड़ती पत्थर’ से लेकर कविता के क्षेत्र में स्त्री-विमर्श के लिए प्रख्यात कवयित्री स्वर्गीय प्रभा खेतान के कविता-संग्रह“अपरिचित उजाले”, “सीढ़ीया चढ़ती मैं”,”अहिल्या”,“कृष्णाधर्मा मैं” और “हुस्नबानों और अन्य कविताएं” की पंक्तियाँ का उद्दरण देते हुए स्त्री-विमर्श के विभिन्न पक्षों को स्पर्श करते हुए सदन के समक्ष रखा।
1. आखिर कब तक लटकी रहूँ
सारी सारी शाम
सूखते कपड़ों-सी बरामदे में
प्रतीक्षा करूँ तुम्हारे आने की
एक क्षण से दूसरे क्षण तक
2॰ तुम चाहते हो मैं बनूँ
तुम्हारे ड्राइंग-रूम का
कालीन-पर्दा,सोफा,बेड-कवर
फैली रहूँ बिस्तर पर
3॰ मेरे है एक नहीं
तीन मन
एक कविता लिखता है
एक प्यार करता है
और एक केवल अपने लिए जीता है
4. उठो,मेरे साथ मेरी बहन!
छोड़ दो,किसी और से मिली मुक्ति का मोह
तोड़ दो,शापग्रस्तता की कारा
तुम अपना उत्तर स्वयं हो अहल्या
ग्रहण करो,वरण की स्वतन्त्रता!
अनामिका,वर्तिका नन्दा,सुधा ॐ ढींगरा,कृष्णा झाखड़ जैसी अनेकानेक महिला कवियित्रियों की कविताओं के दृष्टांत देते हुए उन्होंने स्त्री-विमर्श विषय संबन्धित कई मुद्दो पर प्रकाश डाला। श्रीमती आशा पाण्डेय ओझा ने स्त्री-विमर्श को दर्शाती उनकी बहुचर्चित कविता “तिलचट्टे” का वाचन किया। यह बात अलग है, डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्रा ने इस कविता पर अपनी प्रतिक्रिया दर्शाते हुए कहा था कि यह कविता वास्तव में आजकल के जमाने की स्त्री की मन की व्यथा को अवश्य दर्शाती है।मगर एक बात मैं उनसे अवश्य पूछना चाहूँगा कि असामाजिक तत्वों की संख्या क्या समूचे समाज का सही प्रतिनिधित्व करती है? जो भी हो,कविता की तीक्ष्ण शब्द-शैली और उसके अनुरूप तेज-तर्रार भाव-भंगिमा, भावभिव्यक्ति उस कविता में जान डाल दे रही थी। डॉ॰ विमला भण्डारी ने अपने उदबोधन के शुरुआत प्रीता भार्गव की कविता ‘शाप देती हूँ’ की पंक्ति ‘जहां जवान लड़कियों के नंगे बदन/टाँक दिए जाते है शहर के चौराहों पर/रंगीन पोस्टरों में/मैं उस शहर को/वीरान होने का शाप देती हूँ’ से शुरू कर स्त्री विमर्श संबन्धित अनेकानेक मुद्दो पर प्रकाश डालते हुए अंत में कहा था कि बहुत कम पुरुष लेखक इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। तभी किसी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी पीछे से,“जबतक राजेन्द्र यादव जैसे साहित्यिकार रहेंगे तब तक स्त्री-विमर्श चलता रहेगा।”
मैंने कहा,“ अब राजेन्द्र यादव नहीं रहे ?”
तभी उत्तर आया,“तो क्या हुआ? अपनी औलाद तो छोडकर गए है।”
अचानक मुझे ओडिया भाषा के महान समीक्षक डॉ॰प्रसन्न कुमार बराल की बात याद आ गई,जब मैंने उनका साक्षात्कार लिया था और उन्होने कहा था कि हमें स्त्री-विमर्श, दलित-लेखन अथवा आदिवासी-लेखन के आधार पर साहित्य का वर्गीकरण नहीं करना चाहिए। आगे जाकर यह एक विस्फोट की तरह जातिवाद, प्रांतीयवाद की समस्याओं से जूझ रहे वर्तमान समाज के टुकड़े-टुकड़े कर देगा। साहित्य तो साहित्य होता है,जो जिस चेतना से सृजन करता है,उस स्तर का वह साहित्य हो जाता है। क्या आप किसी के ऊपर अपनी चेतना आरोपित कर साहित्य रचने के लिए बाध्य कर सकते है? नहीं न। यह साहित्य के मठाधीशों द्वारा चलाई जानेवाली एक राजनैतिक प्रक्रिया है अथवा दूसरे शब्दों में,आधी आबादी के सवाल जैसे मुद्दों पर राजनीति करना चाहते है। विचारों में उठ रहे झंझावातों को मैं वही विराम देना चाह रहा था कि सुधीर सक्सेना जी ने विमलाजी के स्त्री-विमर्श पर पुरुष लेखकों की कमी का खंडन करते हुए एक विवादास्पद बयान दे डाला कि हिन्दू देवी-देवताओं में अधिकांश देवता ही है,देवियाँ नगण्य है। शायद वह यह कहना चाह रहे थे कि पौराणिक काल से स्त्री-विमर्श अछूता विषय रहा है और अभी यह एक नई खोज है। पीछे से प्रोफेसर दिनेश चारण इसे गलत बता रहे थे। बाद में कहानी-सत्र के उद्बोधन के समय क्षमा-याचना के साथ उन्होने इस बात का खंडन किया कि राजस्थान की चारण जाति में जन्म लेने के कारण वह यह आसानी से कह सकते है कि राजस्थान की प्रत्येक जाति में एक कुलदेवी अवश्य है। उसकी पूजा,आराधना-अर्चना के बिना यहाँ कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं होता। इस वाद-विवाद,आरोप-प्रत्यारोप के परिवेश में मेरे पास बैठे डॉ॰बुद्धिनाथ मिश्रा जी के चेहरे पर बदलती तिल्ख भाव-भंगिमा भी मेरा ध्यानाकृष्ट कर रही है मानो वह डॉ.दिनेश चारण की बात से सहमति जता रहे हो। वातावरण पूरी तरह सकारात्मक ऊर्जा व उमंग के उत्कर्ष पर था। उसी दौरान डॉ॰ माधव नागदा साहब ने अपनी सहज अभिव्यक्ति में त्रेता-युग से लगाकर कलयुग तक नारियों पर किए गए अत्याचारों का उल्लेख करते हुए मैथेली चरण गुप्त की पंक्तियों में “अबला हाय तेरी यह कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी” पर अपने उद्बोधन का समापन किया। अंत में, प्रीता भार्गव ने संतुलित भाषा का उपयोग करते हुए स्त्री और पुरुष के पारस्पारिक साहचर्य की तुलना जीवन-पथ की एक गाड़ी के दो समान पहियों से की और अपने स्वर में अपनी बहुचर्चित कविता“शाप देती हूँ” का पाठ भी किया।जिसकी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:-
जहां लड़कियां अपंग भिखारिन बनकर
खड़ी रहती है इंतजार में
दूसरों के दर्पणों के सामने
मैं उन सबको
सौ-सौ बार धिक्कार करती हूँ।
जहां लड़कियां इज्जत की अफीम में
सह जाती है सारे बलात्कार
और खिलवाड़
मैं उन बस्तियों के मुखियाओं पर
जालसाजी का दावा करती हूँ ।
जहां जवान लड़कियों के नंगे बदन
टाँक दिए जाते है शहर के चौराहों पर
रंगीन पोस्टरों में
मैं उस शहर को
वीरान होने का शाप देती हूँ।
जहां लड़कियां सृष्टि रचने के बजाए
बन जाती है बिस्तर की सलवट
और मांस के टुकड़े
मैं उन हैवानी बस्तियों को
अपने कलाम से कत्ल करती हूँ।
पंचम सत्र (08.05.15) : कहानी में आंचलिकता का प्रयोग (भाग-2)
कविता में स्त्री-विमर्श के सत्र के तुरंत बाद षष्ठ सत्रह प्रारम्भ हुआ “कहानी में आंचलिकता का प्रयोग”। मंचासीन हुए डॉ॰ दिनेश पांचाल, पंकज त्रिवेदी, डॉ॰ दिनेश चारण, रीना मेनारिया। सर्वप्रथम मैडम रीना मेनारिया ने इस विषय पर अपना व्याख्यान पड़ा, फिर बारी आई डॉ॰ दिनेश चारण की। उन्होने डॉ॰ सुधीर सक्सेना की देवी-देवताओं के संख्या अनुपात का स्त्री-विमर्श से किसी प्रकार के संबंध को खारिज करते हुए कहा कि कहानियों में आंचलिकता का प्रयोग हिन्दी जगत में शुरू हुआ फणिश्वरनाथ ‘रेणु’ के बहुचर्चित व पुरस्कृत उपन्यास “मैला अंचल से”। इस उपन्यास के कुछ पात्रों का उदाहरण देते हुए कुछ आंचलिक शब्दों के उपयोंग पर अपनी सहमति जताई, जो सर्वग्राह्य है। इसके बाद उन्होंने एक कहानी को आधार बनाकर उसमें स्थानिकता के प्रयोग की बात को सामने रखने का अत्यंत ही प्रभावी ढंग से प्रयास किया। इसी दौरान मैंने आशा पाण्डेय ओझा की कहानी “ढिगली” का अङ्ग्रेज़ी में ‘द हिप’ के नाम से अनुवाद किया था,उसमें प्रयुक्त हुए कुछ राजस्थानी वाक्यांशों पर बुद्धिनाथजी की राय जानना चाहा कि अगर यह कहानी ओड़िशा के किसी अंचल में पढ़ी जाती है तो क्या इतनी ही सम्प्रेषणशील रहेगी,जितना राजस्थान की पृष्ठभूमि वाले हिन्दी पाठक के लिए? जबकि डॉ॰ दिनेश पांचाल जैसे विद्वान लेखक कहानी में स्थानीय भाषा के प्रयोग पर उस पृष्ठभूमि की आत्मा बताते हैं।डॉ॰बुद्धिनाथजी ने अपने नजदीकी रिश्तेदार नागार्जुन जैसे राजनैतिक चेतना वाले कवि, जिन्होने हिन्दी भाषा के अतिरिक्त अवधि और मैथिली में भी कविताएं लिखी है,का उदाहरण देते हुए कहा कि स्थानीय भाषा में रचा हुआ साहित्य लोक अंचल विशेष का हो सकता है, मगर हिन्दी-जगत में उस व्यापकता को स्पर्श नहीं कर सकता है। क्या तुम्हारे ओड़िशा या तमिल में हिन्दी जानने का पढ़ने वाली उन राजस्थानी, थिली या अवधि शब्दों को समझ सकेंगे? क्या स्थानीय भाषा का प्रयोग आधुनिक युग में मरती हुई भाषाओं को जिंदा रखने के लिए उचित है? क्या यह स्थानिकता भी भाषावाद को जन्म नहीं देती हैं? शायद तभी इस बात का जिक्र पंकज त्रिवेदी ने अपने उद्बोधन में किया कि मैं भी गुजराती कहानियों,कविताओं और उपन्यास के माध्यम से वहाँ की आंचलिकता को आप सभी के सम्मुख रख सकता हूँ, मगर मुझे इस अवसर पर उचित प्रतीत नहीं हो रहा है। राजस्थानी भाषा की मांग को लेकर आए दिन जोधपुर,जयपुर में हो रहे धरनों के बारे में सुनाई देता है। राजस्थान में पैदा होने के बावजूद भी राजभाषा से जुड़ा खाँटी इंसान होने के कारण मेरी नजरों में केवल हिन्दी एक मात्र ऐसी भाषा है जो हमारे देश को एकता के सूत्र में बांधकर रख सकती है। मेरे मन में कभी-कभी इच्छा होती थी कि संविधान की 22 वी अनुसूची में मान्यता प्राप्त सभी स्थानीय भाषाओं के शब्द भंडार को हिन्दी के शब्दकोश में जोड़कर उसकी विपुलता को बढ़ा दिया जाए है और उससे उत्पन्न देशज भाषा का व्यवहार समस्त देश में होना चाहिए, न कि स्थानीय भाषाओं का। यह बात सत्य है कि त्रिसुगंधी जैसे संस्थानों द्वारा आयोजित किए जा रहे साहित्यिक आयोजनों किसी भी संवेदनशील साहित्यकार के मन में नए-नए विमर्श को जन्म देते हैं, ताकि उचित वातावरण व पृष्ठ पोषकता पाकर अगली पीढ़ी साहित्य सृजन की भूमि पर इन बीजों से नए-नए वृक्ष पैदा करने में मदद मिल सके।
सप्तम सत्र(08.05.15):सम्मान-सत्र
त्रिसुगंधी साहित्य,संस्कृति और कला के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करने वाले दो साहित्यकारों,संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों को श्री शिवचंद ओझा कला शिरोमणि के पुरस्कार से सम्मानित करती है, जिसमें 2100/- की नगद धनराशि, अभिनंदन-पत्र, शाल व श्रीफल प्रदान किए जाते हैं और देश के कोने-कोने में साहित्यिक खेमे में अपनी उपस्थित दर्ज कराने वाले आठ साहित्यकारों “त्रिसुगंधी साहित्य रत्न” से सम्मानित किया जाता है। कार्यक्रम के इस सत्र के सम्मान समारोह में श्री शिवचंद ओझा साहित्य शिरोमणि पुरस्कार डॉ नन्द भरद्वाज जी को उनके समग्र लेखन व साहित्य सेवाओं के लिए प्रदान किया गया ।कला क्षेत्र का कला शिरोमणि सम्मान अब तक दस से अधिक देशों में व हिंदुस्तान भर में अपने कथक नृत्य की प्रस्तुती दे चुकी ग्वालियर की नृत्यांगना डॉ समीक्षा शर्मा को प्रदान किया गया। सुधीर सक्सेना जी भोपाल को उनके समग्र लेखन,सम्पादन व साहित्य सेवाओं हेतु देवमणि पाण्डेय जी बोम्बे को उनके फिल्मों व धारावाहिकों में गीत लेखन व समग्र साहित्य सेवाओं के लिए, दिनेश माली जी उड़ीसा को उनके द्वारा किये गए समग्र अनुवाद के लिए,सुरेखा शर्मा गुडगाँव हरियाणा को उनके समग्र साहित्य लेखन पंकज त्रिवेदी जी सुरेन्द्र नगर गुजरात को हिंदी व गुजराती में समान रूप से लेखन व संपादन , सागर सूद जी पटियाला पंजाब उनके समग्र साहित्य लेखन के लिए, मोनिका गौड़जी बीकानेर राजस्थान को उनके समग्र साहित्य लेखन सहित सात वरिष्ठ साहित्यकारों को त्रिसुगंधि साहित्य रत्न सम्मान प्रदान किया गया।कला एवं संस्कृति में विशिष्ट योगदान के लिए डॉ महा सिंह जी पूनिया कुरुक्षेत्र हरियाणा को कला व संस्कृति रत्न सम्मान प्रदान किया गया।डॉ.नवीन नंदवाना उदयपुर, डॉ शकुंतला सरूपरिया उदयपुर,डॉ.दिनेश चारण आबू रोड़ व आदर्श विधा मंदिर विधालय वनवासी कल्याण परिषद पिण्डवाडा का अभिनन्दन किया गया । सारे अतिथियों व प्रतिभागियों को उपरणा,स्मृति चिन्ह व प्रमाण पत्र प्रदान किये गए। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे डॉ बुद्धिनाथ मिश्र व अध्यक्षता की वरिष्ठ साहित्यकार मुरलीधर वैष्णव ने। कार्यक्रम का संचालन किया कवि विवेक पारीक ने।अंत में संस्था अध्यक्ष आशा पाण्डेय ओझा ने सभी पधारे हुए साहित्यकारों व अतिथियों का आभार व्यक्त किया।
यद्यपि साहित्य सर्जन एक अनवरत अंतर्मुखी सारस्वत प्रक्रिया है,मगर उन अंतर्मुखी साहित्यिक गतिविधियों को बहिर्मुखी करने अर्थात उनके प्रचार,प्रसार और उन्नयन की उतनी ही आवश्यकता होती है,जितनी साहित्य सर्जन की। यह संस्थागत काम इतना सरल व सहज नहीं होता है। उसके लिए अगर आवश्यकता होती है तो किसी अंतप्रेरणा की,त्याग की और साथ ही साथ अपने व्यक्तित्त्व में अंतर्निहित नेतृत्व के नैसर्गिक गुणों के विकास की।प्रेरणा का माध्यम कुछ भी हो सकता है। उसके पीछे छूपे उद्देश्य व वैचारिक पृष्ठभूमि को झाँकने पर यह तथ्यसिद्ध हो जाता है कि अधिकतर कारण जो हमारे सामने उभरकर आते है,वे होते हैं-अपने परिजनों खासकर माता-पिता,धर्मपत्नी, प्रेमिका अथवा दोस्त से स्थायी वियोग। इतिहास साक्षी है इस सृजनशील क्रिया का,कभी प्रह्लाद बनकर अपने माता-पिता की सेवा करने का,तो कभी पत्नी की याद में ताजमहल बनाने जैसी विश्व की अनोखी घटनाओं का।मगर साहित्य को लेकर एक बेटी द्वारा अपने दिवगंत पिताजी की स्मृति में राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य,संस्कृति और कला के क्षेत्र में नाम रोशन करने वाले उदीयमान तथा स्थापित साहित्यकारों,संस्कृति-कर्मियों और कलाकारों को एक भव्य साहित्यिक समारोह में परंपरागत राजस्थान संस्कृति के अनुरूप सम्मानित होते देखने तथा अनुभव करने का मुझे अपने जीवन में पहली बार 7 तथा 8 मई,2015 को अवसर प्राप्त हुआ। इस आयोजन की प्रमुख सूत्रधार हिन्दी जगत की सुविख्यात कवयित्री श्रीमती आशा पाण्डेय ओझा थी, जिन्होने अपने दिव्यात्मा पिता स्वर्गीय शिवचंद ओझा (ओसियां वाले) की स्मृति में लिए एक दैविक संकल्प को सिरोही जिले के पिंडवाड़ा तहसील में राष्ट्रीय वनवासी परिषद द्वारा संचालित आदर्श विद्या मंदिर में साकार रूप प्रदान किया।
यद्यपि राजस्थान के सेठ-साहूकारों में यह ट्रेंड रहा है कि वे अपने दिवगंत परिजनों की आत्मा की शांति के लिए प्याऊ बनाना,स्कूल खोलना,हवन करना,उनकी स्मृति में चैरिटेबल ट्रस्ट खोलना या बड़े मंदिरों में ईश्वर के नाम सोना-चाँदी दान देना,अपने समाज में शिक्षा के विस्तार हेतु छात्रावास खोलना अथवा उनके नामों को अमर करने की आकांक्षा में कुछ लोग उनकी पुण्य-स्मृति में खेलकूद जैसे अनेकानेक कार्यक्रम करवाते हैं, मगर साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन ‘यत्र-तत्र यदा-कदा’ही देखने को मिलते है।
इस कार्यक्रम की पहली खास विशेषता थी,एक विवाहिता बेटी द्वारा अपने दिवगंत पिता की स्मृति में राष्ट्रीय स्तरीय आयोजन की रूपरेखा का निर्धारण। जहां भारतीय समाज में बेटी शादी के बाद बहू बन जाती है और उसके सारी जिम्मेदारियाँ नए घर के प्रति समर्पण-भाव से शुरू हो जाती है,सास,ससुर,जेठ,पति,देवर ननद,जेठानी,देवरानी सभी अनजान चेहरों के प्रति वहाँ इतने बड़े आयोजन को सफलतापूर्वक अंतिम रूप देना तो बहुत दूर की बात,उसकी परिकल्पना करना तक अगम्य कार्य हैं।
दूसरी खास बात हैं, किसी बेटी द्वारा पिता की स्मृति में किया जाने वाला आयोजन न केवल आधुनिक भारतीय समाज को पिता के प्रति मान-सम्मान करने की प्रेरणा देता है, बल्कि भ्रूण-हत्या जैसे सामाजिक अपराधों पर प्रतिबंध लगाकर पति-पत्नी द्वारा दोनों परिवारों की सामूहिक जिम्मेदारियाँ उठाने की दिशा में चुनौती भरा पदक्षेप भी।
इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में मुझे सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता ‘सरोज-स्मृति’’ रह रहकर याद आ रही थी,अपनी अठारह वर्षीय युवा पुत्री सरोज के निधन पर कितना मार्मिक शोकगीत रचा था उन्होंने! उस कविता की कुछ मार्मिक पंक्तियाँ आज भी स्मृति-पटल पर तरोताजा है।
मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग बाद जब हुई विकल
दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
कुछ समय के लिए ऐसा लग रहा था मानो वे ही दोनों पुण्य आत्माएँ समय के व्यतिक्रम में आशा और उनके दिवगंत पिता श्री शिवचंद ओझा के रूप में अवतरित हुई हो,‘जर्रे-जर्रे में उन्हें खोजते’ अपने अधूरे अर्पण-तर्पण को पूर्ण करने के लिए शायद एक पुनरावृति के रूप में ‘सरोज स्मृति’ का स्थान ‘शिवचंद स्मृति’ ले रही हो,देश के कोने-कोने से पधारे साहित्यकारों की उपस्थिति में।
ऐसे भी श्री शिवचंद ओझा स्मृति के इस आयोजन को मैं अपने लिए एक दैविक कृपा के रूप में अनुभव कर रहा था।जैसे तुलसीदास जी के रामचरित मानस की उक्ति “अब मो भा भरोस हनुमंता, बिनु हरिकृपा मिले नहीं संता” मेरे ऊपर चरितार्थ होने जा रही हो मेरे लिए, चार विशेष कारणों से। पहला,यह आयोजन पिंडवाडा गांव में होने जा रहा था, जो मेरी जन्मभूमि सिरोही जिले की एक तहसील है। और कहना भी क्या जब,”जननी और जन्मभूमि स्वर्गादापि गरियसी”! दूसरा, त्रिसुगंधी संस्थान की आयोजिका कवयित्री श्रीमती आशा पांडेय ओझा ने मुझे इस अवसर पर उनके नूतन कविता-संग्रह ‘वक्त की शाख से” पर आलेख-वाचन करने का एक गौरवशाली अवसर प्रदान किया था। तीसरा,डॉ॰ नन्द भारद्वाज साहब (जयपुर),डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्र, (देहरादून), डॉ॰ पंकज त्रिवेदी (गुजरात),डॉ॰ सुधीर सक्सेना(दिल्ली) और डॉ॰ विमला भंडारी (उदयपुर) जैसे उत्कृष्ट साहित्यकारों से बहुत दिनों बाद मिलने के साथ-साथ कई सम्मानित होने वाले नए चेहरों में श्री देवमनि पांडेय (फिल्मी गीति लेखक), श्रीमती समीक्षा (अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कथक डांसर), श्री सागर सूद और श्री महासिंह पूनिया जी आदि से भी भेंटवार्ता करने का एक सुलभ अवसर मैं खोना नहीं चाहता था।और अंतिम चौथा कारण, जो मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण था, 8 मई की वह तारीख-जो मुझे अपने अतीत की ओर खींच रही थी। सन 1997 में जिस दिन मेरे पिताजी मुझे हमेशा के लिए अकेला छोड़कर भगवान के घर चले गए थे और एक साल बाद वहीं दिन अर्थात 8 मई 1998 को मैंने उनकी स्मृति में एक लघुकाय पुस्तक “न हन्यते” अपने पैसो से झारसुगुड़ा(ओड़िशा) की एक प्रिंटिंग प्रेस से छपवाकर सिरोही के राम झरोखा मैदान की एक भव्य धर्मसभा में सिरोही के भूतपूर्व नरेश रघुवीर सिंहजी तथा आंबेश्वर स्थित योगाश्रम के महाराज श्री शंभूनाथ जी के करकमलों द्वारा विमोचन करवाया था। अब आप अंदाज लगा सकते है, पिंडवाड़ा की धरती पर मेरे लिए थे दोनों दिवस कितने महत्वपूर्ण रहे होंगें।तभी तो ऊपर मैंने कहा,“अब मो भा भरोस हनुमंता, बिनु हरिकृपा मिले नहीं संता”। ‘हरिकृपा’ तो अवश्य है,मुझ जैसे तुच्छ बंदे पर,अन्यथा विविध रूपों में इन विगत स्मृतियों की पुनरावृत्ति क्यों होतीं? हो सकता है,जोग-संजोग ही हो, मगर आपको यह जानकर और ज्यादा अचरज होगा कि 8 मई की तिथि आशाजी के दिवगंत पिता की जन्म-तिथि थी। इस तिथि की समानता भी मेरे हृदय में तरह-तरह के विचार उद्धेलित कर रही थी, जन्म-मृत्यु के उलझे और अनसुलझे रहस्यों को लेकर, वैराग्य और जीवन की निस्सारता को लेकर।
आशाजी के पिताजी की तस्वीर में मुझे अपने पिता नजर आने लगे थे, शायद कह रहे हो, तुम्हारी साहित्यिक यात्रा का यह पड़ाव मेरी आशीष की बदौलत हो रहा है। कहते-कहते वे धीरे-धीरे दृष्टि से ओझल होने लगते है,मैं उन्हें मन-ही-मन नमस्कार करते हुए यथार्थ में लौट आता हूँ।मुझे लगने लगता है कि कहीं श्री शिवचंद ओझा मेरे पिता के अपररूप तो नहीं? मेरी नीरवता, निस्संगता और आंतरिक उथल-पुथल को देखकर स्थितप्रज्ञ होने का संदेश देने आए हो। क्या पुनर्जन्म होता है? नहीं जानता।
अतीतावलोकन की फांक में से झाँकने के कुछ क्षण बाद जैसे ही मैं बाहरी दुनिया में प्रवेश करता हूँ, तो पाता हूँ अपने आपको आशाजी के सरकारी क्वार्टर में। जहां देश की कोने-कोने से विख्यात साहित्यकार डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्र, श्री पंकज त्रिवेदी, गोविंद शर्माजी, श्रीमती सुरेखा शर्मा, श्रीमती मोनिका गौड़, श्री रवि पुरोहित, श्री प्रह्लाद पारीक सब पधार चुके थे। तहसील ऑफिस के पास ही सटकर लगा हुआ था यह सरकारी क्वार्टर, काफी बड़े आँगन वाला।गेट के बाहर एकाध बोलेरों जीप भी खड़ी थी। मेहमानों की आवाभगत में व्यस्त थी आशाजी, चेहरे पर लिए स्वच्छ स्फित मुस्कान और आत्म-विश्वास की रेखाएँ। शायद उनके माध्यम से उनके पिताजी की पुण्यात्मा ने इस पुनीत कार्य के लिए पूरे देश में सारस्वत काम से जुड़े सभी लोगों को आमंत्रित किया हो।“अतिथि देवो भव:” की तर्ज पर अपने घर में अपने हाथ से भोजन बनाकर सभी को लंच कराने की संतृप्ति के बाद उन्होंने आमंत्रित अतिथियों को जे॰के सीमेंट फैक्ट्री के अतिथि निवास गृह में ठहरने के लिए भेजा।
सिरोही का स्थानीय निवासी होने की नाते अपने घर का प्रोग्राम समझकर मैं पिंडवाड़ा यूथ फाऊंडेशन (पीवाईएफ़) के स्वयंसेवकों के साथ उनके निवास स्थान से एक-दो किलोमीटर दूर स्थित आदर्श विद्या मंदिर में शाम को होने वाले आयोजन की गतिविधियों में शामिल हो गया। अरावली के पहाड़ो के प्राकृतिक-सौंदर्य को समेटे विशाल प्रांगण वाली इस सुंदर भव्य स्कूल के बीचों-बीच बने एक बड़े हॉल के चबूतरे पर तैयारियां की जा रही थी, जिसमें एक तरफ दो-तीन फुट ऊंची संगमरमर की मूर्तिवाली सरस्वती प्रतिमा और दूसरी तरफ भारत माता की प्रतिमा बनी हुई थी। चबूतरे के पीछे स्क्रीन की तरह आर॰सी॰सी॰ की पतली दीवार पर चिपकाई हुई थी,तरकश में तीर लिए वनवासी त्रेतायुगीन राम की सुंदर तस्वीर। यह स्कूल न केवल भारतीय सांस्कृतिक धरोहरों की सरंक्षक है,वरन् भावी पीढ़ियों में संस्कार के बीज बोने का काम कर रही है। यह सभागार ऊपर से हरे रंग की पारदर्शी प्लास्टिक सीटों से ढका हुआ था,जिसमें अस्ताचल को चले सूरज की किरणें हैलोजन लाइट की स्वर्ण रोशनी से मिलकर अत्यंत ही मनमोहक वातावरण का निर्माण कर रही थी, जो दर्शक दीर्घा में बैठे श्रोतागणों तथा मंचासीन अतिथिगणों को मंत्र-मुग्ध कर रही थी। अतिथियों के सम्मान में जमीन पर बिछी हरे रंग की फेल्ट के मध्य बिछाई गई रेड कार्पेट समारोह के आभिजात्य में वृद्धि कर रहा था। इधर अरावली पर्वत-शृंखला में अपने कोणार्क रथ में अपनी रश्मियों को समेटे सूरज अपने घर की ओर प्रस्थान कर रहे थे,उधर धीरे-धीरे समय इतिहास के स्वर्णिम पन्नों की पुस्तक पलटते हुए नजदीक आता जा रहा था श्री शिवचंद ओझा स्मृति में किए जा रहे दो दिवसीय राष्ट्रीय साहित्यकार सम्मेलन के शुभ-उदघाटन को लिपिबद्ध करने के लिए।
प्रथम सत्र(07.05.15, 4॰30 बजे ) : उदघाटन–सत्र
इस सत्र में राजस्थान उच्चतर न्यायिक सेवा सेवा निवृत व वरिष्ठ साहित्यकार मुरलीधर वैष्णव,पंकज त्रिवेदी, डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्र, गोपाल शर्मा जी, श्री प्रकाश कोठारी,डॉ॰ सुधीर सक्सेना,डॉ॰ सुरेखा शर्मा सुशोभित कर रहे थे और भीलवाडा के प्रह्लाद पारीक का प्रखर मंच-संचालन विमुग्ध किए जा रहा था। यह गोधूलि-लग्न देश के कोने-कोने से आए साहित्यकारों,समीक्षकों,गीतकारों,कलाकारों तथा संस्कृतिकर्मियों की उपस्थिति में सरस्वती प्रतिमा के समक्ष सरस्वती वंदना,प्रदीप-प्रज्ज्वलन और राजस्थानी गीत “मोरिया रे झट चौमासो लाग्यो” पर प्रस्तुत राजस्थानी लोक-नृत्य इस सत्र की सुगंध का साक्षी बन रहा था।
त्रिसगुन्धि (साहित्य,संस्कृतिऔर कला) संस्थान की संस्थापिका व अध्यक्षा श्रीमति आशा पांडेय ओझा ने अपने स्वागत भाषण में सभी साहित्यकारों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने दिवगंत पिता के स्मृति में किए जा रहे इस आयोजन को मुख्य उद्देश्य, कार्य-पद्धति तथा वर्तमान युग में भारतीय साहित्य,संस्कृति व कला के उत्थान-उन्नयन पर सारगर्भित विवेचना की। इस सत्र के साहित्यकारों के उद्बोधन के कुछ मुख्य स्मृत अंश इस प्रकार है:-
विश्वगाथा के संपादक,लेखक व कवि पंकज त्रिवेदी(गुजरात)कहते हैं:-
“ .... आशाजी मेरी सगी बहिन के तुल्य है। मैं आभार व्यक्त करता हूँ उनके प्रति, कि उन्होने मुझे इस कार्यक्रम के योग्य समझा। ..”
राजस्थान उच्च-नयायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश श्री मुरलीधर वैष्णव (जोधपुर) का उद्बोधन :-
“.... आशाजी मेरी गाँव की बेटी है। अगर वह चाहती तो अपने पिताजी की पुण्य-स्मृति में एकाध ब्रह्मभोज रख सकती थी। चूंकि ब्रह्म एक सर्जनशील शक्ति है, जो सृष्टि का निर्माण करती है। इस तरह हर साहित्यकार भी सर्जनशील है,अनुसर्जनशील है,अतः प्रत्येक साहित्यकार ब्राह्मण है।इस तरह आशाजी यहाँ एक-एक ब्रह्म भोज नहीं देकर, चार-चार ब्रह्मभोज दे रही है।यह पुण्य-यज्ञ किसी महान पुण्यात्मा के सिवाय सम्पन्न नहीं किया जा सकता है।आशाजी पुण्यात्मा है और उनके पिताजी अवश्य कोई महान आत्मा थे। ....”
“दुनिया इन दिनों” के प्रधान संपादक श्री सुधीर सक्सेना (दिल्ली) के हृदयोदगार इस प्रकार है:-
“...... यह पिंडवाड़ा की धरती सौभाग्यशाली है,जहां राष्ट्रीय स्तर पर इतना बड़ा भव्य कार्यक्रम का आयोजन आशाजी के नेतृत्व में किया जा रहा है,जिसमें देश के कोने-कोने से साहित्यकार पधारे हैं।उत्तराखंड से बुद्धिनाथजी,ओड़िशा से दिनेश माली जी,गुजरात से पंकज त्रिवेदीजी ...“
देश के शीर्षस्थ एकमात्र सक्रिय गीतकार डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्र (देहरादून) के भावभीने वचन :-
“........ आशाजी से मेरी मुलाक़ात देश में नहीं,बल्कि विदेश की धरती “ताशकंद” में हुई।..... मैं उतराखंड से आ रहा हूँ। जहां एक नहीं,तीन-तीन भगवान विराजते हैं। कैलाश,जो शिव की तपोभूमि है,जहां बड़े-बड़े धाम है,केदारनाथ धाम,बद्रीनाथ धाम। मैं उन सभी भगवानों का आशीर्वाद इस बेटी को अर्पित कर रहा हूँ कि वह खूब फले-फूले और साहित्य की सृजन-भूमि में अनवरत इसी तरह सक्रिय बनी रहे।...”
और भी कई मंचासीन वक्ताओं में डॉ॰ सुरेखा शर्मा, श्री प्रकाश कोठारी ने भी आशाजी के प्रति सहृदयतापूर्वक आभार व्यक्त करते हुए अपने-अपने विचार व्यक्त किए। प्रह्लाद पारीक जैसे प्रतिभाशाली मंच संचालक की विलक्षण क्षमता देखते ही बनती थी, नपी-तुली भाषा,सुंदर-शैली, आत्म-विश्वास और बीच-बीच में वीर, हास्य, गंभीर व दार्शनिक सभी प्रकार की कविताओं के स्फुट उदाहरण अभी भी मानस-पटल को स्मृति के ‘फ्लैश-बैक’ में ले जाते हुए महसूस होते हैं। उदघाटन-सत्र की समाप्ति के पश्चात पाँच मिनट का टी-ब्रेक।फिर शुरू होता है आशाजी की अद्यतन पुस्तक “वक्त कि शाख से” का लोकार्पण समारोह।
द्वितीय सत्र(07.05.15,6.30 बजे):- लोकार्पण सत्र
मैंने सपने में भी सोचा नहीं था कि इस सत्र में मैं भी सम्मानित अतिथियों की श्रेणी में मंचासीन होकर अपने आपको गौरवानन्वित अनुभव करूंगा। हिन्दी साहित्य जगत में मेरी भूमिका परमाणु के अविभाज्य अंग न्यूट्रान, प्रोटान अथवा इलेक्ट्रान अर्थात् त्रेसरेणु से भी कम है, तब श्री गोविंद शर्माजी,डॉ॰बुद्धिनाथ मिश्र,डॉ॰ विमला भंडारी, मोनिका गौड़,डॉ॰रवि पुरोहित,दिल्ली से पधारे दो अन्य मेहमान राष्ट्रीय सहारा देहली के जर्नलिस्ट श्री संजय सिंह व वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश दीवान और आशाजी जैसे बड़े-बड़े साहित्यकारों के साथ मंच साझा करना मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं था। बुद्धिनाथ जी के करकमलों से उनकी नई कविता-संग्रह ‘वक्त की शाख से’ का विमोचन हुआ। मैं अपने हाथों में किताब रखकर दर्शक दीर्घा को दिखाते समय भीतर ही भीतर गरिमामय अनुभूति को हृदयंगम कर रहा था। किसी ‘पुस्तक विमोचन’ के कार्यक्रम में जीवन में पहली बार किसी बड़े मंच पर अपने आपको उपस्थित पा रहा था। मन ही मन सोच रहा था, क्या मैं इस लायक हूँ? यह तो आशाजी का स्नेह है कि उन्होंने मुझे मंच पर आमंत्रित कर यह स्थान प्रदान किया है, अन्यथा मैंने तो यही सोचा था जब इस पुस्तक पर लिखे मेरे समीक्षात्मक आलेख को पढ़ने की जब बारी आएगी तब मुझे अपने आप दर्शक-दीर्घा से बुलाया जाएगा,पहला पत्र वाचन किया बीकानेर की मोनिका गौड़ ने। कितने सुंदर तरीके से आशाजी की कविताओं के इर्द-गिर्द घूमती हुई उसने आशाजी के चेतना-स्तरों को मुखरित करते हुए आत्म-विश्वास के साथ अपना आलेख पाठ पूरा किया था उन्होंने। उसके बाद मेरी बारी थी। इस बार पता नहीं क्यों, मुझे अपने आप में आत्म-विश्वास की कमी नजर आ रही थी। शायद तीन कारणों से। पहला, मेरा सही नंबर वाला चश्मा ओड़िशा में ही छूट गया था इसलिए पढ़ने में कठिनाई हो रही थी। दूसरा,मेरा आलेख कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया,यहाँ तक कि ओडिया भाषा की कवयित्रियों की काव्यात्मक समदर्शिता भी इसमें संलग्न थी।तीसरा, संस्कृत श्लोकों का भरपूर प्रयोग हुआ। इन तीनों कारणों की वजह से मुझे लग रहा था कि कहीं यह समीक्षा बोझिल न हो जाए और कहीं श्रोतागण इसे नकार न दे। क्योंकि मैंने इस कविता-संग्रह का गहन अध्ययन कर आलेख बनाने में बहुत मेहनत की थी, इसलिए इस अवसर को मैं किसी भी हालत पर हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। दर्शक वीथिका में बैठे साहित्यकारों को मेरा यह पत्र कैसा लगा,यह मैं नहीं कह सकता। मगर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि मंचासीन अतिथियों में डॉ॰ बुद्धिमान मिश्राजी और डॉ॰ विमला भंडारी ने ‘बहुत ही सुंदर समीक्षा’ कहकर मेरा मनोबल बढ़ाया था। मेरे बाद ‘वक्त की शाख पर’ पर डॉ॰रवि पुरोहित,डॉ॰विमला भंडारी,बुद्धिनाथ मिश्र,गोविंद शर्मा,श्री संजय सिंह व जय प्रकाश दीवान ने अपने समीक्षात्मक विचार रखें, जिसे संकलित किया अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री गोविंद शर्माजी ने।
तृतीय सत्र(07.05.15):- अंलकरण सत्र
‘वक्त की शाख से’कविता-संग्रह के लोकार्पण के पश्चात तुरंत सत्र शुरू हुआ डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्र के अलंकरण समारोह का। उन्हें सम्मानित करते समय राजस्थानी साफा पहनाकर,पश्मिना शाल ओढ़ाते हुए श्रीफल व अभिनंदन-पत्र प्रदान किया गया। अभिनंदन-पत्र कुछ इस तरह था:-
इस अलंकरण सत्र का अध्यक्षीय भाषण,पता नहीं,मुझे क्यों थोड़ा-बहुत विरोधाभासी लगा। अध्यक्ष डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्रा ने जब यह कहा, ‘अभिनंदन शूकरी विष्ठा’ अर्थात किसी भी सारस्वत आयोजनों में लीन व्यक्तियों का अभिनंदन करना सूअर की विष्ठा के तुल्य है अर्थात् उनके कहने का अर्थ यह था कि यह अभिनंदन उनके आगे के सारस्वत-पथ प्रशस्त करने के बजाय उसे अवरुद्ध करता हैं। हो सकता है,दार्शनिक तौर पर यह बात सही हो। मगर मेरे मन में विरोधी विचारों के झंझावात पैदा हो रहे थे। एक दशक की दीर्घ साहित्यिक यात्रा तय करने में मेरा यह अनुभव रहा है कि किसी भी नवोदित रचनाकार को अपने लेखन के शुरुआती चार-पाँच साल में अगर कोई पुरस्कार सम्मान या प्रोत्साहन नहीं मिलता है तो उसकी सृजनभूमि के पल्लवित पुष्प मुरझाने शुरू हो जाते है और बीच में ही उसका लेखन-कार्य सर्वदा के लिए बंद हो जाता है। अतः मेरे दृष्टिकोण में त्रिसुगंधी,सलिला,परिकल्पना आदि साहित्यिक पुरस्कार देने वाली संस्थाओं का भी अपना औचित्य है। ये संस्थाएं नवोदित लेखकों को सुदृढ़ बनने के लिए एक मंच प्रदान करती है और साथ ही साथ, स्थापित सृजनधर्मियों द्वारा उन्हें मार्गदर्शन स्वरूप आशीर्वाद देने का एक अवसर भी सुलभ कराती है। एक बात और थी, मैंने अपने आलेख के उपसंहार में समकालीन कवयित्रियों की कविताओं के कथानक, अंतर्वस्तु,कथ्य शैली सभी को ध्यान में रखते हुए अपनी प्रतिक्रिया के तौर पर आशाजी को आने वाले समय की एक ख्याति-लब्ध कवयित्री के रूप में की। जिस तरह अपने जमाने में कभी सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा और अमृता प्रीतम ने आप नाम रोशन किया था, उस तरह वह भी हिन्दी साहित्य जगत में उभरकर आप नाम प्रतिस्थापित करेगी। मगर डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्रा जी ने इस बात को समय के तुलनात्मक दृष्टिकोण में कवयित्रियों के बदलते कथानकों पर दृष्टिपात करते हुए अध्यक्षीय भाषण में कहा कि आधुनिक समय में जितनी विक्षुब्धताएँ है, उन कवयित्रियों के जमाने में नहीं थी। इस वजह से यह तुलना अप्रासंगिक है। मगर मेरा मन तर्क दे रहा था, उनकी रचनाओं ने उस जमाने के सुख-दुख,व्यथा,अंतर्वेदना तथा तत्कालीन सामाजिक प्रवृतियों को उजागर किया, जो तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के सापेक्ष समानुकूल था। मगर आज की कवयित्रियों में आशाजी के स्वर आधुनिक युग के बदलते परिवेश,बदलते सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ राजनीति,भ्रष्टाचार,माता-पिता सभी पर तो कविता-कर्म कर रही है, समय के अनुकूल। हो सकता है, आज के पचास साल बाद जो ख्याति उन कवयित्रियों को मिली आधुनिक इन कवयित्रियों को भी मिल जाए, अपने सतत सर्जन कर्म के कारण। इन्हीं ऊहापोह और वैचारिक अंतर्द्वंद्व के भीतर यह अंलकरण-सत्र समाप्त हुआ।
चतुर्थ सत्र(07.05.15/ 10.30 बजे) : कवि सम्मेलन
इस सम्मेलन में देश के नामी-गिरामी कवियों ने हिस्सा लिया। जिसकी तालिका काफी लंबी है। चालीस से अधिक कवियों में प्रमुख देवमनि पाण्डेय (मुंबई), सागर सूद (पटियाला),प्रह्लाद पारीक (भीलवाडा), डॉ॰ सतीश आचार्य (बांसवाड़ा), सोमप्रसाद साहिल(शिवगंज), विवेक पारीक (झुंझनू), अब्दुल समद रही (सोजत), सामी शम्स (आबूरोड) है। कवि सम्मेलन के सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे, राष्ट्रीय चेतना के प्रख्यात कवि दिनेश सिंदल (जोधपुर) और मंच-संचालन का दायित्व जाने-माने डॉ॰ राम ‘अकेला’(पीपाड़, जोधपुर)। मन में मेरे भी एक ख्वाहिश चीन संस्मरण पर आधारित मेरी कविता ‘मेरे सपनों में हवेनसांग’ सुनाता, मगर यह संभव न हो सका।कवि सम्मेलन की की शुरुआत रात लगभग 11 बजे हुई और यह आयोजन चला रात को दो बजे तक। मेरी मनोस्थिति रस्सा-कस्सी की तरह थी। इधर काव्य-प्रेम मुझे त्रिसुगंधी के कवि-सम्मेलन की तरफ खींच रहा था और उधर सिरोही में विधवा माँ का सानिध्य,जिसे मैं यह कहकर आया था,“रात को ग्यारह बजे तक लौट आऊँगा, माँ!” आखिरकर मैंने काव्य-प्रेम के भावातिरेक को दबाकर घर जाने का निश्चय किया, यह सोचकर कि जीवन रहेगा तो कवि-सम्मेलन हजारों मिलेंगे। अपने अंतिम पड़ाव की ओर अग्रसर माँ का सान्निध्य क्या मेरे लिए किसी कविता से कम था? जिसका बेटा अपने जीवन के तीस सालों से यायावरी जिंदगी जी रहा है? कब तक माँ के साथ रह पाया? इस निर्मम समय में परदेशी आदमी होने की कारण माँ के साथ रहने का अगर यह अवसर हाथ से चला गया तो कोई जरूरी नहीं है कि मैं उनके पास और कभी रह भी पाऊँ। इधर कवि सम्मेलन चलता रहा और उधर मैं बस में घर जाते समय दिनभर के कार्यक्रम व गतिविधियों पर गंभीरता से सोचता रहा कि अगर किसी भी मनुष्य का मनोबल मजबूत हो तो वह दुनिया को किसी भी कार्यक्रम को कितनी सहजता से साकार कर सकता है,जिस तरह आशाजी ने कर दिखाया।
पंचम सत्र(08.05.15,सुबह 9 बजे) : कविता में स्त्री विमर्श पर राष्ट्रीय संगोष्ठी (भाग-1)
सुबह उठते ही नहा-धोकर तैयार हो कर मैं आयोजन-स्थल की ओर छोटे भाई के साथ बाइक पर बैठ कर चला गया। आयोजन-स्थल पर चारों तरफ विगत रात्रिकालीन काव्य आयोजन चर्चा का विषय बना हुआ था। मैं मन ही मन अपनी अनुपस्थिति पर दुख प्रकट कर रहा था। चाय-नाश्ते के बाद ही सही समय पर यह सत्र शुरू हुआ, नौ बजे के आस-पास राजस्थान की प्रथम महिला जेल-अधीक्षक प्रीता भार्गव की अध्यक्षता में। डॉ॰ विमला भंडारी,आशा पांडेय ओझा,डॉ॰ नवीन नंदवाना, डॉ॰ माधव नागदा, डॉ॰सुधीर सक्सेना जैसी धुरंधर हस्तियाँ मंचासीन थी। सर्वप्रथम उदयपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नवीन नंदवाना ने इस विषय पर अपना सारगर्भित पत्र वाचन किया,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर/देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर/वह तोड़ती पत्थर’ से लेकर कविता के क्षेत्र में स्त्री-विमर्श के लिए प्रख्यात कवयित्री स्वर्गीय प्रभा खेतान के कविता-संग्रह“अपरिचित उजाले”, “सीढ़ीया चढ़ती मैं”,”अहिल्या”,“कृष्णाधर्मा मैं” और “हुस्नबानों और अन्य कविताएं” की पंक्तियाँ का उद्दरण देते हुए स्त्री-विमर्श के विभिन्न पक्षों को स्पर्श करते हुए सदन के समक्ष रखा।
1. आखिर कब तक लटकी रहूँ
सारी सारी शाम
सूखते कपड़ों-सी बरामदे में
प्रतीक्षा करूँ तुम्हारे आने की
एक क्षण से दूसरे क्षण तक
2॰ तुम चाहते हो मैं बनूँ
तुम्हारे ड्राइंग-रूम का
कालीन-पर्दा,सोफा,बेड-कवर
फैली रहूँ बिस्तर पर
3॰ मेरे है एक नहीं
तीन मन
एक कविता लिखता है
एक प्यार करता है
और एक केवल अपने लिए जीता है
4. उठो,मेरे साथ मेरी बहन!
छोड़ दो,किसी और से मिली मुक्ति का मोह
तोड़ दो,शापग्रस्तता की कारा
तुम अपना उत्तर स्वयं हो अहल्या
ग्रहण करो,वरण की स्वतन्त्रता!
अनामिका,वर्तिका नन्दा,सुधा ॐ ढींगरा,कृष्णा झाखड़ जैसी अनेकानेक महिला कवियित्रियों की कविताओं के दृष्टांत देते हुए उन्होंने स्त्री-विमर्श विषय संबन्धित कई मुद्दो पर प्रकाश डाला। श्रीमती आशा पाण्डेय ओझा ने स्त्री-विमर्श को दर्शाती उनकी बहुचर्चित कविता “तिलचट्टे” का वाचन किया। यह बात अलग है, डॉ॰ बुद्धिनाथ मिश्रा ने इस कविता पर अपनी प्रतिक्रिया दर्शाते हुए कहा था कि यह कविता वास्तव में आजकल के जमाने की स्त्री की मन की व्यथा को अवश्य दर्शाती है।मगर एक बात मैं उनसे अवश्य पूछना चाहूँगा कि असामाजिक तत्वों की संख्या क्या समूचे समाज का सही प्रतिनिधित्व करती है? जो भी हो,कविता की तीक्ष्ण शब्द-शैली और उसके अनुरूप तेज-तर्रार भाव-भंगिमा, भावभिव्यक्ति उस कविता में जान डाल दे रही थी। डॉ॰ विमला भण्डारी ने अपने उदबोधन के शुरुआत प्रीता भार्गव की कविता ‘शाप देती हूँ’ की पंक्ति ‘जहां जवान लड़कियों के नंगे बदन/टाँक दिए जाते है शहर के चौराहों पर/रंगीन पोस्टरों में/मैं उस शहर को/वीरान होने का शाप देती हूँ’ से शुरू कर स्त्री विमर्श संबन्धित अनेकानेक मुद्दो पर प्रकाश डालते हुए अंत में कहा था कि बहुत कम पुरुष लेखक इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। तभी किसी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी पीछे से,“जबतक राजेन्द्र यादव जैसे साहित्यिकार रहेंगे तब तक स्त्री-विमर्श चलता रहेगा।”
मैंने कहा,“ अब राजेन्द्र यादव नहीं रहे ?”
तभी उत्तर आया,“तो क्या हुआ? अपनी औलाद तो छोडकर गए है।”
अचानक मुझे ओडिया भाषा के महान समीक्षक डॉ॰प्रसन्न कुमार बराल की बात याद आ गई,जब मैंने उनका साक्षात्कार लिया था और उन्होने कहा था कि हमें स्त्री-विमर्श, दलित-लेखन अथवा आदिवासी-लेखन के आधार पर साहित्य का वर्गीकरण नहीं करना चाहिए। आगे जाकर यह एक विस्फोट की तरह जातिवाद, प्रांतीयवाद की समस्याओं से जूझ रहे वर्तमान समाज के टुकड़े-टुकड़े कर देगा। साहित्य तो साहित्य होता है,जो जिस चेतना से सृजन करता है,उस स्तर का वह साहित्य हो जाता है। क्या आप किसी के ऊपर अपनी चेतना आरोपित कर साहित्य रचने के लिए बाध्य कर सकते है? नहीं न। यह साहित्य के मठाधीशों द्वारा चलाई जानेवाली एक राजनैतिक प्रक्रिया है अथवा दूसरे शब्दों में,आधी आबादी के सवाल जैसे मुद्दों पर राजनीति करना चाहते है। विचारों में उठ रहे झंझावातों को मैं वही विराम देना चाह रहा था कि सुधीर सक्सेना जी ने विमलाजी के स्त्री-विमर्श पर पुरुष लेखकों की कमी का खंडन करते हुए एक विवादास्पद बयान दे डाला कि हिन्दू देवी-देवताओं में अधिकांश देवता ही है,देवियाँ नगण्य है। शायद वह यह कहना चाह रहे थे कि पौराणिक काल से स्त्री-विमर्श अछूता विषय रहा है और अभी यह एक नई खोज है। पीछे से प्रोफेसर दिनेश चारण इसे गलत बता रहे थे। बाद में कहानी-सत्र के उद्बोधन के समय क्षमा-याचना के साथ उन्होने इस बात का खंडन किया कि राजस्थान की चारण जाति में जन्म लेने के कारण वह यह आसानी से कह सकते है कि राजस्थान की प्रत्येक जाति में एक कुलदेवी अवश्य है। उसकी पूजा,आराधना-अर्चना के बिना यहाँ कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं होता। इस वाद-विवाद,आरोप-प्रत्यारोप के परिवेश में मेरे पास बैठे डॉ॰बुद्धिनाथ मिश्रा जी के चेहरे पर बदलती तिल्ख भाव-भंगिमा भी मेरा ध्यानाकृष्ट कर रही है मानो वह डॉ.दिनेश चारण की बात से सहमति जता रहे हो। वातावरण पूरी तरह सकारात्मक ऊर्जा व उमंग के उत्कर्ष पर था। उसी दौरान डॉ॰ माधव नागदा साहब ने अपनी सहज अभिव्यक्ति में त्रेता-युग से लगाकर कलयुग तक नारियों पर किए गए अत्याचारों का उल्लेख करते हुए मैथेली चरण गुप्त की पंक्तियों में “अबला हाय तेरी यह कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी” पर अपने उद्बोधन का समापन किया। अंत में, प्रीता भार्गव ने संतुलित भाषा का उपयोग करते हुए स्त्री और पुरुष के पारस्पारिक साहचर्य की तुलना जीवन-पथ की एक गाड़ी के दो समान पहियों से की और अपने स्वर में अपनी बहुचर्चित कविता“शाप देती हूँ” का पाठ भी किया।जिसकी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:-
जहां लड़कियां अपंग भिखारिन बनकर
खड़ी रहती है इंतजार में
दूसरों के दर्पणों के सामने
मैं उन सबको
सौ-सौ बार धिक्कार करती हूँ।
जहां लड़कियां इज्जत की अफीम में
सह जाती है सारे बलात्कार
और खिलवाड़
मैं उन बस्तियों के मुखियाओं पर
जालसाजी का दावा करती हूँ ।
जहां जवान लड़कियों के नंगे बदन
टाँक दिए जाते है शहर के चौराहों पर
रंगीन पोस्टरों में
मैं उस शहर को
वीरान होने का शाप देती हूँ।
जहां लड़कियां सृष्टि रचने के बजाए
बन जाती है बिस्तर की सलवट
और मांस के टुकड़े
मैं उन हैवानी बस्तियों को
अपने कलाम से कत्ल करती हूँ।
पंचम सत्र (08.05.15) : कहानी में आंचलिकता का प्रयोग (भाग-2)
कविता में स्त्री-विमर्श के सत्र के तुरंत बाद षष्ठ सत्रह प्रारम्भ हुआ “कहानी में आंचलिकता का प्रयोग”। मंचासीन हुए डॉ॰ दिनेश पांचाल, पंकज त्रिवेदी, डॉ॰ दिनेश चारण, रीना मेनारिया। सर्वप्रथम मैडम रीना मेनारिया ने इस विषय पर अपना व्याख्यान पड़ा, फिर बारी आई डॉ॰ दिनेश चारण की। उन्होने डॉ॰ सुधीर सक्सेना की देवी-देवताओं के संख्या अनुपात का स्त्री-विमर्श से किसी प्रकार के संबंध को खारिज करते हुए कहा कि कहानियों में आंचलिकता का प्रयोग हिन्दी जगत में शुरू हुआ फणिश्वरनाथ ‘रेणु’ के बहुचर्चित व पुरस्कृत उपन्यास “मैला अंचल से”। इस उपन्यास के कुछ पात्रों का उदाहरण देते हुए कुछ आंचलिक शब्दों के उपयोंग पर अपनी सहमति जताई, जो सर्वग्राह्य है। इसके बाद उन्होंने एक कहानी को आधार बनाकर उसमें स्थानिकता के प्रयोग की बात को सामने रखने का अत्यंत ही प्रभावी ढंग से प्रयास किया। इसी दौरान मैंने आशा पाण्डेय ओझा की कहानी “ढिगली” का अङ्ग्रेज़ी में ‘द हिप’ के नाम से अनुवाद किया था,उसमें प्रयुक्त हुए कुछ राजस्थानी वाक्यांशों पर बुद्धिनाथजी की राय जानना चाहा कि अगर यह कहानी ओड़िशा के किसी अंचल में पढ़ी जाती है तो क्या इतनी ही सम्प्रेषणशील रहेगी,जितना राजस्थान की पृष्ठभूमि वाले हिन्दी पाठक के लिए? जबकि डॉ॰ दिनेश पांचाल जैसे विद्वान लेखक कहानी में स्थानीय भाषा के प्रयोग पर उस पृष्ठभूमि की आत्मा बताते हैं।डॉ॰बुद्धिनाथजी ने अपने नजदीकी रिश्तेदार नागार्जुन जैसे राजनैतिक चेतना वाले कवि, जिन्होने हिन्दी भाषा के अतिरिक्त अवधि और मैथिली में भी कविताएं लिखी है,का उदाहरण देते हुए कहा कि स्थानीय भाषा में रचा हुआ साहित्य लोक अंचल विशेष का हो सकता है, मगर हिन्दी-जगत में उस व्यापकता को स्पर्श नहीं कर सकता है। क्या तुम्हारे ओड़िशा या तमिल में हिन्दी जानने का पढ़ने वाली उन राजस्थानी, थिली या अवधि शब्दों को समझ सकेंगे? क्या स्थानीय भाषा का प्रयोग आधुनिक युग में मरती हुई भाषाओं को जिंदा रखने के लिए उचित है? क्या यह स्थानिकता भी भाषावाद को जन्म नहीं देती हैं? शायद तभी इस बात का जिक्र पंकज त्रिवेदी ने अपने उद्बोधन में किया कि मैं भी गुजराती कहानियों,कविताओं और उपन्यास के माध्यम से वहाँ की आंचलिकता को आप सभी के सम्मुख रख सकता हूँ, मगर मुझे इस अवसर पर उचित प्रतीत नहीं हो रहा है। राजस्थानी भाषा की मांग को लेकर आए दिन जोधपुर,जयपुर में हो रहे धरनों के बारे में सुनाई देता है। राजस्थान में पैदा होने के बावजूद भी राजभाषा से जुड़ा खाँटी इंसान होने के कारण मेरी नजरों में केवल हिन्दी एक मात्र ऐसी भाषा है जो हमारे देश को एकता के सूत्र में बांधकर रख सकती है। मेरे मन में कभी-कभी इच्छा होती थी कि संविधान की 22 वी अनुसूची में मान्यता प्राप्त सभी स्थानीय भाषाओं के शब्द भंडार को हिन्दी के शब्दकोश में जोड़कर उसकी विपुलता को बढ़ा दिया जाए है और उससे उत्पन्न देशज भाषा का व्यवहार समस्त देश में होना चाहिए, न कि स्थानीय भाषाओं का। यह बात सत्य है कि त्रिसुगंधी जैसे संस्थानों द्वारा आयोजित किए जा रहे साहित्यिक आयोजनों किसी भी संवेदनशील साहित्यकार के मन में नए-नए विमर्श को जन्म देते हैं, ताकि उचित वातावरण व पृष्ठ पोषकता पाकर अगली पीढ़ी साहित्य सृजन की भूमि पर इन बीजों से नए-नए वृक्ष पैदा करने में मदद मिल सके।
सप्तम सत्र(08.05.15):सम्मान-सत्र
त्रिसुगंधी साहित्य,संस्कृति और कला के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करने वाले दो साहित्यकारों,संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों को श्री शिवचंद ओझा कला शिरोमणि के पुरस्कार से सम्मानित करती है, जिसमें 2100/- की नगद धनराशि, अभिनंदन-पत्र, शाल व श्रीफल प्रदान किए जाते हैं और देश के कोने-कोने में साहित्यिक खेमे में अपनी उपस्थित दर्ज कराने वाले आठ साहित्यकारों “त्रिसुगंधी साहित्य रत्न” से सम्मानित किया जाता है। कार्यक्रम के इस सत्र के सम्मान समारोह में श्री शिवचंद ओझा साहित्य शिरोमणि पुरस्कार डॉ नन्द भरद्वाज जी को उनके समग्र लेखन व साहित्य सेवाओं के लिए प्रदान किया गया ।कला क्षेत्र का कला शिरोमणि सम्मान अब तक दस से अधिक देशों में व हिंदुस्तान भर में अपने कथक नृत्य की प्रस्तुती दे चुकी ग्वालियर की नृत्यांगना डॉ समीक्षा शर्मा को प्रदान किया गया। सुधीर सक्सेना जी भोपाल को उनके समग्र लेखन,सम्पादन व साहित्य सेवाओं हेतु देवमणि पाण्डेय जी बोम्बे को उनके फिल्मों व धारावाहिकों में गीत लेखन व समग्र साहित्य सेवाओं के लिए, दिनेश माली जी उड़ीसा को उनके द्वारा किये गए समग्र अनुवाद के लिए,सुरेखा शर्मा गुडगाँव हरियाणा को उनके समग्र साहित्य लेखन पंकज त्रिवेदी जी सुरेन्द्र नगर गुजरात को हिंदी व गुजराती में समान रूप से लेखन व संपादन , सागर सूद जी पटियाला पंजाब उनके समग्र साहित्य लेखन के लिए, मोनिका गौड़जी बीकानेर राजस्थान को उनके समग्र साहित्य लेखन सहित सात वरिष्ठ साहित्यकारों को त्रिसुगंधि साहित्य रत्न सम्मान प्रदान किया गया।कला एवं संस्कृति में विशिष्ट योगदान के लिए डॉ महा सिंह जी पूनिया कुरुक्षेत्र हरियाणा को कला व संस्कृति रत्न सम्मान प्रदान किया गया।डॉ.नवीन नंदवाना उदयपुर, डॉ शकुंतला सरूपरिया उदयपुर,डॉ.दिनेश चारण आबू रोड़ व आदर्श विधा मंदिर विधालय वनवासी कल्याण परिषद पिण्डवाडा का अभिनन्दन किया गया । सारे अतिथियों व प्रतिभागियों को उपरणा,स्मृति चिन्ह व प्रमाण पत्र प्रदान किये गए। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे डॉ बुद्धिनाथ मिश्र व अध्यक्षता की वरिष्ठ साहित्यकार मुरलीधर वैष्णव ने। कार्यक्रम का संचालन किया कवि विवेक पारीक ने।अंत में संस्था अध्यक्ष आशा पाण्डेय ओझा ने सभी पधारे हुए साहित्यकारों व अतिथियों का आभार व्यक्त किया।
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