18. जगदीश सिंह परिहार: राजस्थान के ज्योतिबा फूले
श्री जगदीश सिंह जी परिहार का नाम न केवल राजस्थान वरन राष्ट्रीय स्तर पर वर्तमान समाज के गणमान्य व्यक्तियों में लिया जाता है। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन सामाजिक कुरीतियों को मिटाने तथा शिक्षा के विकास हेतु न्यौछावर कर दिया। जोधपुर के सेठ श्री भीकमदास रामभगत जी परिहार तिवरी वालों के यहाँ सबसे छोटे लाड़ले बेटे के रूप में आपका जन्म 21 अगस्त 1935 को जोधपुर में हुआ। जोधपुर विश्वविद्यालय से सन् 1956 वाणिज्य विषय में स्नातक डिग्री हासिल कर स्थानीय राजनीति की ओर अपना रूख अग्रसर किया। आपकी यह विचारधारा है कि आधुनिक युग में स्वच्छ राजनीति ही वह माध्यम है जिसके द्वारा न केवल समाज को वृहद स्तर पर संगठित कर उन्हें अपने मौलिक अधिकारों के प्रति जागरूक किया जा सकता है वरन् समाज के सर्वांगीण विकास के अन्य मार्ग प्रशस्त किए जा सकते हैं।
उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन में अन्य उन्नत समाजों के विकास के राज को अपनी सूक्ष्म-निरीक्षण शक्ति के माध्यम परखा तथा अपनी उपर्युक्त विचारधारा की सुदृढ़ किया। उनकी इसी बलवती विचारधारा ने समाज में नेतृत्व करने वाली पीढ़ी को जन्म दिया।इस दिशा में राजस्थान में जिनके कई उदहारण आसानी से देखे जा सकते है । किसी भी नवयुवक में नेतृत्व करने की प्रतिभा को पहचानने की विशिष्ट शक्ति आपके भीतर विद्यमान थी । राजस्थान के वर्तमान मुख्यमंत्री श्रीयुत अशोक गहलोत भी आपकी उस प्रतिभा-खोज के जीते-जागते परिणाम है। आपके मन में समाज-सेवा की तीव्र-ललक ने आपको अपनी अर्जित लाखों रूपये की सम्पति के रूप में मिले रातानाड़ा अवस्थित 70000 वर्गफीट भूखंड को समाज के नाम समर्पित कर दिया तथा उस जगह में सेठ श्री भीकमदास परिहार शिक्षासेवा सदन ट्रस्ट की स्थापना कर न केवल अपने पूर्वजों का नाम इतिहास के स्वर्ण-अक्षरों में अंकित करवाया,बल्कि आस-पास के ग्रामीण समाज को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के सुअवसर प्रदान कर अत्यन्त ही सराहनीय योगदान दिया। आपने इस शिक्षा सेवा सदन के निर्माण को लेकर अपने मन की बात को एक बार मेरे सामने इस प्रकार उजागर किया था, " जब मेरे पिताजी के ज्येष्ठ -भ्राता श्री रघुनाथजी परिहार ने जोधपुर में अपने नाम से एक बड़ी धर्मशाला का निर्माण करवाया था, उसी दिन से मेरे मन में पिताजी के नाम से किसी न किसी समाजोपयोगी-कृति का निर्माण करने की इच्छा जन्म ले चुकी थी। चूँकि मैं ग्रामवासियों के पारिवारिक दुःख-दर्द से अच्छी तरह वाकिफ था। उनके बच्चों को शहर में आकर उच्च-शिक्षा प्राप्ति के लिए बहुत कठिन संघर्ष का सामना करना पड़ता था। उनकी मूलभूत आवश्यकता शहर में उचित निवास की थी।यही सोचकर मैंने पिताजी के नाम से उक्त शिक्षा-सेवा सदन खोलने की मन में ठान ली। ईश्वर ने इस पुनीत कार्य में मेरा साथ दिया और धीरे-धीरे कर यह तत्कालीन छोटा-सा सेवा-सदन आज एक भव्य-छात्रावास में बदल गया।"
इस प्रकार उन्होंने विनीत-भाव से समाज सेवा के साथ-साथ अपनी पितृ-भक्ति की एक अद्वितीय मिशाल समाज के समक्ष प्रस्तुत की।
मेरा यह सौभाग्य रहा है कि सन 1988 से 1992 तक मैं भी इस शिक्षा सेवा सदन में रहने वाला, मगनीराम बांगड़ मेमोरिअल अभियांत्रिकी महाविद्यालय के खनन संकाय का छात्र था। इस दौरान छात्रावास में होने वाली संगोष्ठियों,सेमिनारों,वार्षिकोत्सव तथा हवन आदि के कार्यकर्मों में श्री जगदीश सिंह जी के साथ मेरी अक्सर मुलाकातें होती थीं। उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व ने मुझे काफी प्रभावित किया कि एक सेठ परिवार से संबध रखनेवाले व्यक्ति ने सेठ भामाशाह की भाँति धन-संग्रह की पिपासा को तिलांजली देकर सामान्य जीवन-यापन करना स्वीकार किया। सन् 1955 में जब उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया,तबसे लेकर सन् 1975 तक कृषि का कार्य करते रहे। सन् 1975 में जब पहली बार उनको दिल का दौरा पड़ा, तब से कृषि-कर्म को छोड़ कर उन्होंने लघु उद्योग-धंधों की तरफ अपना रूख किया, जिनकी बागडोर आपके योग्य सुपुत्रद्वय सुनील जी व शेखर जी ने संभाली। आज आपकी बाड़मेर में ड़ोलोमाईट की खदानें हैं तथा जोधपुर के बासनी में जगशांति माइन्स एवं मिनरलस नाम से क्रशर-प्लांट है। आजकल सुनील जी भी अपने पिताजी के नक़्शे-कदम पर चल रहे है तथा सामाजिक- गतिविधियों में अत्यंत सक्रिय है। सुनील जी छात्रावास के अतिरिक्त माली संस्थान के अध्यक्ष पद को शोभायमान कर रहे हैं।
आज भी उनके जीवन के 20 साल पुराने संस्मरण मेरे मानस पटल पर तरोताजा हो उठते हैं,जब मैं उन्हें याद करता हूँ। ऐसे ही कुछ वृतांतों का मैं अधोलिखित उल्लेख कर रहा हूँ,जिनसे उनके व्यक्तित्व के गुणों को भलीभाँति समझा जा सकता हैं।
मेरी पहली मुलाकात सन 1988 में भीकमदास परिहार शिक्षा सेवा सदन में हुई।हल्के नीले-रंग की कोट पेण्ट पहने हुए, गौर-वर्ण, मध्यम-कद,भरापूरा-शरीर,हँसमुख-ओजस्वी चेहरे पर एक अद्वितीय प्रभा-मण्डल आसानी से देखा जा सकता था। देखने से ही वे किसी संभ्रान्त कुलीन परिवार से संबंध रखने वाले व्यक्ति नजर आ रहे थे। हॉस्टल के तत्कालीन वार्डेन श्री महेन्द्र सिंह कच्छवाहा पीपाड़ निवासी, ने किसी लड़के को भेजकर सब कमरों में यह संदेश भिजवाया कि हॉस्टल के सेठ जगदीश सिंह जी आए हैं। अतः सभी छात्र जल्दी से जल्दी प्रांगण में एकत्रित हो। हॉस्टल के सभी छात्र हॉस्टल-प्रांगण में दरी बिछाकर बैठे। बीच में एक कुर्सी पर सेठ जी ने अपना आसन ग्रहण किया। उन्होंने सहज भाव से सभी छात्रों का मधुर-स्वर में परिचय लेना प्रारंभ किया। कुछ अंतराल बाद जब मेरी बारी आई तो मुझे एक झिझक अनुभव हो रही थी । यद्यपि मेरे लिए वह एक अनजान आदमी थे, परन्तु उनके नेत्रों में मैनें अपनापन पाया। उन्होंने मेरा नाम, पता, स्थान, शिक्षा, घरेलू परिस्थितियाँ, रूचि-अभिरूचियाँ आदि सभी की जानकारी प्राप्त की। उस समय मैं शौकिया तौर पर कुछ छोटी-छोटी कविताएँ लिखा करता था। मेरे मन में एक हार्दिक इच्छा हुई कि उन्हें मेरी स्वरचित कुछ कविताएँ सुनाऊँ। मन में कुछ हिचकिचाहट का अनुभव हो रहा था। हो सकता है मेरी कविताओं की अपरिपक्वता पर उन्हें हँसना आ जाए या कविता सुनने से इनकार कर दें। फिर भी साहस जुटा कर मैने उनके समक्ष मेरी कविताएँ सुनाने की प्रस्ताव रखा, "सेठ जी मैं आपको मेरी स्वरचित कविताएँ सुनाना चाहता हूँ। क्या आप सुनना पसंद करोगे?"
उन्होंने उस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया और बोले- “बेटे, जरूर सुनाओ। मुझे कविता सुनना अच्छा लगता है, मगर सेठ नाम का उदबोधन मुझे अच्छा नहीं लगता है। मैं तो आप लोगों की तरह ही एक आम-आदमी हूँ। यह बात अलग है किसी जमाने में जोधपुर महाराज ने मेरे पिताजी को सेठ की उपाधि प्रदान की थी क्योंकि उन्होंने एक बार दुर्भिक्ष समय में जोधपुर जनता की राशन-पानी दानकर उनकी मदद की थी। इस प्रकार उनके खुले-दिल से दान करने की प्रवृति से प्रभावित होकर तत्कालीन जोधपुर नरेश ने एकसाथ चार-पांच सोने की चेन पहनने की छूट दी थी तथा उन्हें सेठ कहकर संबोधित किया था। ”
मैंने उनकी बातों को ध्यान-पूर्वक सुना , फिर गम्भीरता से स्वरचित कविताओं का वाचन करने लगा। कविता सुनने के बाद उनके चहरे की प्रसन्न भाव-भंगिमा तथा प्रशंसा के हृदय-उदगार सुनकर मैं फूला नहीं समाया। उन्होंने मेरी सृजनशीलता की खुले मन से तारीफ की। यही वह क्षण था जिससे मैं लेखन कार्य की ओर प्रोत्साहित हुआ। आज उसी घटना का यह परिणाम है कि सन् 1999 में मेरी पहली पुस्तक “न हन्यते” (एक श्रद्धांजलि) प्रकाशित हुई।इन्टरनेट पर मेरा ब्लॉग सरोजिनी साहू की श्रेष्ठ कहानियां काफी प्रसिद्धी अर्जित कर चुका है।
इस प्रकार की यह प्रथम मुलाक़ात मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना थी। उसके उपरांत जब कभी भी छात्रावास में किसी भी विषय पर संगोष्ठी,सेमिनार अथवा कार्यशाला का आयोजन होता था, वे मुझे अपनी कविताएं सुनाने के लिए आमंत्रित करते थे। इससे मेरा उत्साहवर्धन होने का साथ-साथ जोधपुर में मेरी लोकप्रियता में अभिवृद्धि होने लगी। यह इस बात का एक दृष्टांत है,जो सिद्ध करता है कि वे विद्यार्थियों की आत्मा का भलीभांति अध्ययन कर उनकी मनोस्थिति तथा मनोविज्ञान जानने में सिद्धहस्त थे। अच्छे विद्यार्थियों की प्रतिभा को निखरता देख उन्हें हर्ष की अनुभूति होती थी। अपने घर में आने वाली तकनीकी विषयों से संबंधित मासिक पत्रिकाओं को छात्रावास में लाकर रख देते थे, ताकि इच्छुक छात्र उनका लाभ उठा सके। यहाँ तक कि कभी-कभी छात्रावास के लड़कों को दिल्ली के प्रगति-मैदान में लगने वाले औद्योगिक व तकनीकी मेले में जाने के लिए प्रेरित करते थे। उनके मन में यह धारणा थी कि पता नहीं कब कौन-सा विचार विद्यार्थियों के जीवन में बदलाव ले आए तथा नए उद्योग-धंधो, शिल्पकार्यों को वे स्थापित कर सकें। हमें नए-नए शोधकार्यों के बारे में सोचने की प्रेरणा देते थे। वास्तव में, वह एक महान गुरू की भूमिका निभाते थे तथा मानव निर्माण के सच्चे अभियंता थे। छात्रावास के कार्यालय में बैठकर घंटों-घंटों इस बात पर चिंतन करते थे कि गांवों-गांवो से आए हुए गरीब बच्चों को किस तरह से स्वावंलबी बनाया जाए। कभी किसी नए व्यवसाय के बारे में, तो कभी किसी नई तकनीकी के बारे में तो कभी किसी घरेलू उत्पाद के निर्माण के बारे में एक वैज्ञानिक अथवा उद्योगपति की भांति चिंतन-मनन करते थे। भविष्य के प्रति उनका दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक रहता था।
उनकी पूजापाठ या अन्य भागवत अनुष्ठान में कोई विशेष रूचि नहीं रहती थी। धर्मभीरु तो वह कतई नहीं थे। स्वतंत्र धार्मिक विचारों से ओत-प्रोत होने के बावजूद भी वे कभी-कभी भाग्य को प्रभुत्व देते थे। सही अर्थों में, आस्तिकता उनमें कूट-कूट कर भरी थी। मेहनत और लग्न को पूजा-पाठ से ज्यादा महत्व देते थे। छात्रावास में अपने पिताजी की जयन्ती पर आर्य-समाज का हवन करवाते थे। उनके संपूर्ण परिवार में आर्य-समाज की एक अमिट छाप देखी जा सकती थी। स्वामी दयानंद सरस्वती को अपना आदर्श मानते थे ।एक बार मैं हॉस्टल के कार्यालय में बैठकर एक पौराणिक धार्मिक-पुस्तक पढ़ रहा था, उसी समय संयोगवश वह कार्यालय में आए। मैंने उनको प्रणाम कर अभिवादन किया। उन्होंने मेरा हाल-चाल पूछा तथा पढ़ाई के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। मैने प्रत्युत्तर में यही कहा कि मेरी पढ़ाई अच्छी चल रही है। मेरी बात सुनकर उन्हें संतुष्टि नहीं हुई, क्योंकि वह मुझे कॉलेज में टॉपर के रूप में देखना चाहते थे। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया तथा बड़े ही सहज भाव से समझाते हुए कहा- “बेटे, ये सब धार्मिक पुस्तकें अपने जीवन के उतरार्द्ध में पढ़नी चाहिए। अभी तो आपकी उम्र अपने कॉलेज की पढ़ाई को प्राथमिकता देने की है। कर्म ही पूजा है, इस सिद्धांत में विश्वास करो। बाकी जितने भी कर्मकाण्ड हैं, सारे-के-सारे ढ़कोसले हैं।” उनकी बातें कहने का ढंग इतना तार्किक व प्रभावशील होता था कि कोई भी श्रोतागण सुनते ही मानने के लिए स्वेच्छा से बाध्य हो जाता था। यह उनके नेतृत्व की शक्ति का कमाल था। अपने सच्चे-हृदय से ग्रामवासियों के दुख-दर्द को भाँपकर अपने स्तर पर सुलझाने का प्रयास करते थे। इसी दर्द की अनुभूति के लिए सन् 1960 में जोधपुर के 20 नवयुवकों का दल लेकर उन्होंने सारे राजस्थान का भ्रमण किया तथा जगह-जगह जैसे जोधपुर, जयपुर, अलवर, झुन्झनू इत्यादि पर खेलकूद के कार्यक्रम, संगोष्ठियाँ तथा सभाओं का आयोजन किया। जोधपुर के आस-पास गाँवों जैसे पीपाड़, मथानिया, आसोप, फलोदी आदि के कई ग्राम-मुखिया लोग आपसे सलाह-मशविरा करने आते थे। आपके चरित्र की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि आपको मैंने कभी भी क्रोध के वशीभूत होते नहीं देखा। बड़ी से बड़ी समस्या रही हो शांतिपूर्वक स्थिर-मन से उसका समाधान खोजते थे। इस प्रकार समाज-सुधार के एक मसीहा ने अपना संपूर्ण जीवन निस्वार्थ-भाव से समाज के नाम समर्पित कर दिया।
एक बार हॉस्टल के एक कार्यालय में वह एक पलंग पर शयन कर रहे थे। पास में ही पड़ी हुई थी उनकी हरे रंग की एक डायरी। उनको सोते देख उत्सुकतावश मैंने उस डायरी को उठाया तथा पृष्ठ पलटकर देखने लगा। उस डायरी में कई प्रासंगिक आलेख, कविताएं, दर्शन, महापुरुषों के वचन इत्यादि की पेपर-कटिंग चिपकी हुई थी तथा कुछ लेख उनके स्वरचित थे। डायरी के अंत में कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों के टेलिफोन नंबर लिखे हुए थे। उस डायरी को मैंने ध्यानपूर्वक पढ़ा। पढ़ने पर उनके जीवन की उच्चता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता था कि एक सेठ परिवार में जन्म लेने के बाद भी उनके कोमल-चित्त पर समाज के पिछड़े-वर्गों के उत्थान के लिए एक दर्द, एक व्यथा, एक टीस अंकित थी। जहाँ उनके भाईयों में छात्रावास की विवादित सम्पत्ति को लेकर शीतयुद्ध चल रहा था। जहाँ उस भूखंड को हथियाने के लिए भीतर ही भीतर वसीयत बदलने की साजिशें चल रही थी। जहाँ परिवार के अन्य भाई वहाँ पंच-सितारा होटल खोलने के सपने देख रहे थे। वहाँ यही सबसे छोटा भाई निस्पृहभाव से छात्रावास के पुराने भवन को नया रूप देने के लिए प्रयत्नशील थे। मन में किसी भी प्रकार का न कोई लोभ था, न कोई लालच।बस पूर्वजों के नाम कुछ कर गुजरने की एक चाह थी। उनकी पितृ-भक्ति देखकर मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब की पंक्तियाँ याद आती थी
"हजारों हसरतें ऐसी कि ह़र हसरत पर दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले "
अपनी इस इच्छा को साकार करने के लिए विरक्तभाव से उन्होंने छात्रावास के नवीनीकरण के बारे में सोचना प्रारंभ किया तथा जोधपुर के आस-पास के गांव मथानिया,आसोप, फलोदी, पाली, सिरोही, शिवगंज, सुमेरपुर आदि के मुखिया,सरपंच तथा प्रतिष्ठित लोगों को छात्रावास के वार्षिकोत्सव में आमंत्रित किया। इस आयोजन में ऑयल इंडिया लिमिटेड, जोधपुर शाखा के अध्यक्ष सह प्रबंध निदेशक श्री ओ.पी. सैनी, राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री सोहन लाल शांखला, कमलानेहरु महाविद्यालय की प्रोफेसर तारा लक्ष्मण गहलोत तथा राजस्थान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कानसिंह जी परिहार आदि मंचासीन थे। श्री जगदीश सिंह जी ने इस आयोजन के संचालन का दायित्व मुझे सौंपा। इस कार्यक्रम के आयोजन की दूर-दृष्टि वास्तव में छात्रावास के नवनिर्माण के लिए एक सार्थक प्रयास था, जो आगे चलकर इस दिशा में एक नींव की ईंट साबित हुआ। इस कार्यक्रम के सफलता के बाद समाज में इस बात की लहर उठी कि छात्रावास के लिए नए भवन की अत्यंत आवश्यकता है तथा यह सोचा जाने लगा कि अगर सेठ भीकम दास शिक्षा सेवा सदन के पुराना भवन का जीर्णोद्धार किया जाए, साथ ही साथ उसके परिसर की खाली जगह पर नया भवन निर्मित किया जाए तो समाज के जो बच्चे बाहर किराया लेकर रहते हैं, उन्हें रहने के लिए सस्ती सुलभ सुविधा उपलब्ध हो जाएगी।इसके अतिरिक्त,बच्चों में सुसंस्कारित समाज के अंकुर प्रस्फुटित हो सकेंगे। यही सोचकर श्री जगदीश सिंह जी ने अखिल राजस्थान स्तर के कार्यक्रम का आयोजन तत्कालीन जोधपुर के सांसद अशोक गहलोत की अध्यक्षता में छात्रावास के पुराने परिसर में किया। वह छात्रावास के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था। इस बार भी मंच संचालन का दायित्व मुझे सौंपा गया था। दो-तीन घंटे के इस कार्यक्रम में राजस्थान के विभिन्न जगहों से आए हुए भामाशाहों ने देखते-देखते 20 लाख के आस-पास धनराशि दान कर छात्रावास के नवनिर्माण में अपना योगदान दिया। यही थी वह शुरुआत जहाँ शिक्षा सेवा सदन ने एक वैधानिक न्यास का रूप लिया। यद्यपि उनके परिवार में भीतरी मन-मुटाव व वैचारिक मतभेदों के बावजूद भी सन् 1992 में सदन के भूतपूर्व छात्र रह चुके राजस्थान सरकार के प्रतिष्ठित सिविल इंजिनियर श्री पुखराज जी सांखला की देख-रेख में छात्रावास का नया भवन निर्मित होकर हमारे समक्ष मुस्कराहट बिखरते हुए श्री जगदीश सिंह जी परिहार के सपने को मूर्त -रूप दे चुका था। इसी छात्रावास के निर्माण से प्रेरित होकर पड़ोस के अन्य जिलों तथा जगहों जैसे सिरो ही, जालोर, आबुरोड, सुंधामाता में समाज को एकीकरण कर छात्रावास के साथ-साथ धर्मशालाओं का निर्माण कार्य शुरु हुआ। इससे समूचे राजस्थान के शैक्षिक-उत्थान के लिए एक नव-क्रांति का सूत्रपात हुआ। सेठ श्री भीकमदास जी परिहार व तत्पश्चात उनके सुपुत्र श्री जगदीश सिंह जी परिहार के योगदान को याद करें तो छात्रावास की इसी पुनीत धरा ने कई डॉक्टरों,इंजिनियरों,प्रशासनिक-अधिकारियों,शिक्षकों,वकीलों व नेताओं को उत्पन्न कर कई गरीब परिवारों में खुशियों के दीपक जलाए हैं तथा अभी भी समाज में शैक्षिक-उत्थान के लिए दिन दूनी-रात चौगुनी गति से अग्रसर हैं। इस प्रकार महात्मा ज्योतिबा फूले की भांति समाज में शैक्षिक जागरण का संपूर्ण श्रेय श्री जगदीश सिंह जी परिहार को जाता है। अगर उन्हें राजस्थान का ज्योतिबा फूले का श्रेय दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अंत में, इस महान व्यक्तित्व के धनी को श्रद्धा शत-शत नमन करते हुए निम्न पंक्तियां दोहराना चाहूँगा-
हजारों सालों से नरगिस, अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से चमन में एक दीदावर पैदा होता है ।।
श्री जगदीश सिंह जी परिहार का नाम न केवल राजस्थान वरन राष्ट्रीय स्तर पर वर्तमान समाज के गणमान्य व्यक्तियों में लिया जाता है। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन सामाजिक कुरीतियों को मिटाने तथा शिक्षा के विकास हेतु न्यौछावर कर दिया। जोधपुर के सेठ श्री भीकमदास रामभगत जी परिहार तिवरी वालों के यहाँ सबसे छोटे लाड़ले बेटे के रूप में आपका जन्म 21 अगस्त 1935 को जोधपुर में हुआ। जोधपुर विश्वविद्यालय से सन् 1956 वाणिज्य विषय में स्नातक डिग्री हासिल कर स्थानीय राजनीति की ओर अपना रूख अग्रसर किया। आपकी यह विचारधारा है कि आधुनिक युग में स्वच्छ राजनीति ही वह माध्यम है जिसके द्वारा न केवल समाज को वृहद स्तर पर संगठित कर उन्हें अपने मौलिक अधिकारों के प्रति जागरूक किया जा सकता है वरन् समाज के सर्वांगीण विकास के अन्य मार्ग प्रशस्त किए जा सकते हैं।
उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन में अन्य उन्नत समाजों के विकास के राज को अपनी सूक्ष्म-निरीक्षण शक्ति के माध्यम परखा तथा अपनी उपर्युक्त विचारधारा की सुदृढ़ किया। उनकी इसी बलवती विचारधारा ने समाज में नेतृत्व करने वाली पीढ़ी को जन्म दिया।इस दिशा में राजस्थान में जिनके कई उदहारण आसानी से देखे जा सकते है । किसी भी नवयुवक में नेतृत्व करने की प्रतिभा को पहचानने की विशिष्ट शक्ति आपके भीतर विद्यमान थी । राजस्थान के वर्तमान मुख्यमंत्री श्रीयुत अशोक गहलोत भी आपकी उस प्रतिभा-खोज के जीते-जागते परिणाम है। आपके मन में समाज-सेवा की तीव्र-ललक ने आपको अपनी अर्जित लाखों रूपये की सम्पति के रूप में मिले रातानाड़ा अवस्थित 70000 वर्गफीट भूखंड को समाज के नाम समर्पित कर दिया तथा उस जगह में सेठ श्री भीकमदास परिहार शिक्षासेवा सदन ट्रस्ट की स्थापना कर न केवल अपने पूर्वजों का नाम इतिहास के स्वर्ण-अक्षरों में अंकित करवाया,बल्कि आस-पास के ग्रामीण समाज को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के सुअवसर प्रदान कर अत्यन्त ही सराहनीय योगदान दिया। आपने इस शिक्षा सेवा सदन के निर्माण को लेकर अपने मन की बात को एक बार मेरे सामने इस प्रकार उजागर किया था, " जब मेरे पिताजी के ज्येष्ठ -भ्राता श्री रघुनाथजी परिहार ने जोधपुर में अपने नाम से एक बड़ी धर्मशाला का निर्माण करवाया था, उसी दिन से मेरे मन में पिताजी के नाम से किसी न किसी समाजोपयोगी-कृति का निर्माण करने की इच्छा जन्म ले चुकी थी। चूँकि मैं ग्रामवासियों के पारिवारिक दुःख-दर्द से अच्छी तरह वाकिफ था। उनके बच्चों को शहर में आकर उच्च-शिक्षा प्राप्ति के लिए बहुत कठिन संघर्ष का सामना करना पड़ता था। उनकी मूलभूत आवश्यकता शहर में उचित निवास की थी।यही सोचकर मैंने पिताजी के नाम से उक्त शिक्षा-सेवा सदन खोलने की मन में ठान ली। ईश्वर ने इस पुनीत कार्य में मेरा साथ दिया और धीरे-धीरे कर यह तत्कालीन छोटा-सा सेवा-सदन आज एक भव्य-छात्रावास में बदल गया।"
इस प्रकार उन्होंने विनीत-भाव से समाज सेवा के साथ-साथ अपनी पितृ-भक्ति की एक अद्वितीय मिशाल समाज के समक्ष प्रस्तुत की।
मेरा यह सौभाग्य रहा है कि सन 1988 से 1992 तक मैं भी इस शिक्षा सेवा सदन में रहने वाला, मगनीराम बांगड़ मेमोरिअल अभियांत्रिकी महाविद्यालय के खनन संकाय का छात्र था। इस दौरान छात्रावास में होने वाली संगोष्ठियों,सेमिनारों,वार्षिकोत्सव तथा हवन आदि के कार्यकर्मों में श्री जगदीश सिंह जी के साथ मेरी अक्सर मुलाकातें होती थीं। उनके उज्ज्वल व्यक्तित्व ने मुझे काफी प्रभावित किया कि एक सेठ परिवार से संबध रखनेवाले व्यक्ति ने सेठ भामाशाह की भाँति धन-संग्रह की पिपासा को तिलांजली देकर सामान्य जीवन-यापन करना स्वीकार किया। सन् 1955 में जब उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया,तबसे लेकर सन् 1975 तक कृषि का कार्य करते रहे। सन् 1975 में जब पहली बार उनको दिल का दौरा पड़ा, तब से कृषि-कर्म को छोड़ कर उन्होंने लघु उद्योग-धंधों की तरफ अपना रूख किया, जिनकी बागडोर आपके योग्य सुपुत्रद्वय सुनील जी व शेखर जी ने संभाली। आज आपकी बाड़मेर में ड़ोलोमाईट की खदानें हैं तथा जोधपुर के बासनी में जगशांति माइन्स एवं मिनरलस नाम से क्रशर-प्लांट है। आजकल सुनील जी भी अपने पिताजी के नक़्शे-कदम पर चल रहे है तथा सामाजिक- गतिविधियों में अत्यंत सक्रिय है। सुनील जी छात्रावास के अतिरिक्त माली संस्थान के अध्यक्ष पद को शोभायमान कर रहे हैं।
आज भी उनके जीवन के 20 साल पुराने संस्मरण मेरे मानस पटल पर तरोताजा हो उठते हैं,जब मैं उन्हें याद करता हूँ। ऐसे ही कुछ वृतांतों का मैं अधोलिखित उल्लेख कर रहा हूँ,जिनसे उनके व्यक्तित्व के गुणों को भलीभाँति समझा जा सकता हैं।
मेरी पहली मुलाकात सन 1988 में भीकमदास परिहार शिक्षा सेवा सदन में हुई।हल्के नीले-रंग की कोट पेण्ट पहने हुए, गौर-वर्ण, मध्यम-कद,भरापूरा-शरीर,हँसमुख-ओजस्वी चेहरे पर एक अद्वितीय प्रभा-मण्डल आसानी से देखा जा सकता था। देखने से ही वे किसी संभ्रान्त कुलीन परिवार से संबंध रखने वाले व्यक्ति नजर आ रहे थे। हॉस्टल के तत्कालीन वार्डेन श्री महेन्द्र सिंह कच्छवाहा पीपाड़ निवासी, ने किसी लड़के को भेजकर सब कमरों में यह संदेश भिजवाया कि हॉस्टल के सेठ जगदीश सिंह जी आए हैं। अतः सभी छात्र जल्दी से जल्दी प्रांगण में एकत्रित हो। हॉस्टल के सभी छात्र हॉस्टल-प्रांगण में दरी बिछाकर बैठे। बीच में एक कुर्सी पर सेठ जी ने अपना आसन ग्रहण किया। उन्होंने सहज भाव से सभी छात्रों का मधुर-स्वर में परिचय लेना प्रारंभ किया। कुछ अंतराल बाद जब मेरी बारी आई तो मुझे एक झिझक अनुभव हो रही थी । यद्यपि मेरे लिए वह एक अनजान आदमी थे, परन्तु उनके नेत्रों में मैनें अपनापन पाया। उन्होंने मेरा नाम, पता, स्थान, शिक्षा, घरेलू परिस्थितियाँ, रूचि-अभिरूचियाँ आदि सभी की जानकारी प्राप्त की। उस समय मैं शौकिया तौर पर कुछ छोटी-छोटी कविताएँ लिखा करता था। मेरे मन में एक हार्दिक इच्छा हुई कि उन्हें मेरी स्वरचित कुछ कविताएँ सुनाऊँ। मन में कुछ हिचकिचाहट का अनुभव हो रहा था। हो सकता है मेरी कविताओं की अपरिपक्वता पर उन्हें हँसना आ जाए या कविता सुनने से इनकार कर दें। फिर भी साहस जुटा कर मैने उनके समक्ष मेरी कविताएँ सुनाने की प्रस्ताव रखा, "सेठ जी मैं आपको मेरी स्वरचित कविताएँ सुनाना चाहता हूँ। क्या आप सुनना पसंद करोगे?"
उन्होंने उस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया और बोले- “बेटे, जरूर सुनाओ। मुझे कविता सुनना अच्छा लगता है, मगर सेठ नाम का उदबोधन मुझे अच्छा नहीं लगता है। मैं तो आप लोगों की तरह ही एक आम-आदमी हूँ। यह बात अलग है किसी जमाने में जोधपुर महाराज ने मेरे पिताजी को सेठ की उपाधि प्रदान की थी क्योंकि उन्होंने एक बार दुर्भिक्ष समय में जोधपुर जनता की राशन-पानी दानकर उनकी मदद की थी। इस प्रकार उनके खुले-दिल से दान करने की प्रवृति से प्रभावित होकर तत्कालीन जोधपुर नरेश ने एकसाथ चार-पांच सोने की चेन पहनने की छूट दी थी तथा उन्हें सेठ कहकर संबोधित किया था। ”
मैंने उनकी बातों को ध्यान-पूर्वक सुना , फिर गम्भीरता से स्वरचित कविताओं का वाचन करने लगा। कविता सुनने के बाद उनके चहरे की प्रसन्न भाव-भंगिमा तथा प्रशंसा के हृदय-उदगार सुनकर मैं फूला नहीं समाया। उन्होंने मेरी सृजनशीलता की खुले मन से तारीफ की। यही वह क्षण था जिससे मैं लेखन कार्य की ओर प्रोत्साहित हुआ। आज उसी घटना का यह परिणाम है कि सन् 1999 में मेरी पहली पुस्तक “न हन्यते” (एक श्रद्धांजलि) प्रकाशित हुई।इन्टरनेट पर मेरा ब्लॉग सरोजिनी साहू की श्रेष्ठ कहानियां काफी प्रसिद्धी अर्जित कर चुका है।
इस प्रकार की यह प्रथम मुलाक़ात मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना थी। उसके उपरांत जब कभी भी छात्रावास में किसी भी विषय पर संगोष्ठी,सेमिनार अथवा कार्यशाला का आयोजन होता था, वे मुझे अपनी कविताएं सुनाने के लिए आमंत्रित करते थे। इससे मेरा उत्साहवर्धन होने का साथ-साथ जोधपुर में मेरी लोकप्रियता में अभिवृद्धि होने लगी। यह इस बात का एक दृष्टांत है,जो सिद्ध करता है कि वे विद्यार्थियों की आत्मा का भलीभांति अध्ययन कर उनकी मनोस्थिति तथा मनोविज्ञान जानने में सिद्धहस्त थे। अच्छे विद्यार्थियों की प्रतिभा को निखरता देख उन्हें हर्ष की अनुभूति होती थी। अपने घर में आने वाली तकनीकी विषयों से संबंधित मासिक पत्रिकाओं को छात्रावास में लाकर रख देते थे, ताकि इच्छुक छात्र उनका लाभ उठा सके। यहाँ तक कि कभी-कभी छात्रावास के लड़कों को दिल्ली के प्रगति-मैदान में लगने वाले औद्योगिक व तकनीकी मेले में जाने के लिए प्रेरित करते थे। उनके मन में यह धारणा थी कि पता नहीं कब कौन-सा विचार विद्यार्थियों के जीवन में बदलाव ले आए तथा नए उद्योग-धंधो, शिल्पकार्यों को वे स्थापित कर सकें। हमें नए-नए शोधकार्यों के बारे में सोचने की प्रेरणा देते थे। वास्तव में, वह एक महान गुरू की भूमिका निभाते थे तथा मानव निर्माण के सच्चे अभियंता थे। छात्रावास के कार्यालय में बैठकर घंटों-घंटों इस बात पर चिंतन करते थे कि गांवों-गांवो से आए हुए गरीब बच्चों को किस तरह से स्वावंलबी बनाया जाए। कभी किसी नए व्यवसाय के बारे में, तो कभी किसी नई तकनीकी के बारे में तो कभी किसी घरेलू उत्पाद के निर्माण के बारे में एक वैज्ञानिक अथवा उद्योगपति की भांति चिंतन-मनन करते थे। भविष्य के प्रति उनका दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक रहता था।
उनकी पूजापाठ या अन्य भागवत अनुष्ठान में कोई विशेष रूचि नहीं रहती थी। धर्मभीरु तो वह कतई नहीं थे। स्वतंत्र धार्मिक विचारों से ओत-प्रोत होने के बावजूद भी वे कभी-कभी भाग्य को प्रभुत्व देते थे। सही अर्थों में, आस्तिकता उनमें कूट-कूट कर भरी थी। मेहनत और लग्न को पूजा-पाठ से ज्यादा महत्व देते थे। छात्रावास में अपने पिताजी की जयन्ती पर आर्य-समाज का हवन करवाते थे। उनके संपूर्ण परिवार में आर्य-समाज की एक अमिट छाप देखी जा सकती थी। स्वामी दयानंद सरस्वती को अपना आदर्श मानते थे ।एक बार मैं हॉस्टल के कार्यालय में बैठकर एक पौराणिक धार्मिक-पुस्तक पढ़ रहा था, उसी समय संयोगवश वह कार्यालय में आए। मैंने उनको प्रणाम कर अभिवादन किया। उन्होंने मेरा हाल-चाल पूछा तथा पढ़ाई के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। मैने प्रत्युत्तर में यही कहा कि मेरी पढ़ाई अच्छी चल रही है। मेरी बात सुनकर उन्हें संतुष्टि नहीं हुई, क्योंकि वह मुझे कॉलेज में टॉपर के रूप में देखना चाहते थे। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया तथा बड़े ही सहज भाव से समझाते हुए कहा- “बेटे, ये सब धार्मिक पुस्तकें अपने जीवन के उतरार्द्ध में पढ़नी चाहिए। अभी तो आपकी उम्र अपने कॉलेज की पढ़ाई को प्राथमिकता देने की है। कर्म ही पूजा है, इस सिद्धांत में विश्वास करो। बाकी जितने भी कर्मकाण्ड हैं, सारे-के-सारे ढ़कोसले हैं।” उनकी बातें कहने का ढंग इतना तार्किक व प्रभावशील होता था कि कोई भी श्रोतागण सुनते ही मानने के लिए स्वेच्छा से बाध्य हो जाता था। यह उनके नेतृत्व की शक्ति का कमाल था। अपने सच्चे-हृदय से ग्रामवासियों के दुख-दर्द को भाँपकर अपने स्तर पर सुलझाने का प्रयास करते थे। इसी दर्द की अनुभूति के लिए सन् 1960 में जोधपुर के 20 नवयुवकों का दल लेकर उन्होंने सारे राजस्थान का भ्रमण किया तथा जगह-जगह जैसे जोधपुर, जयपुर, अलवर, झुन्झनू इत्यादि पर खेलकूद के कार्यक्रम, संगोष्ठियाँ तथा सभाओं का आयोजन किया। जोधपुर के आस-पास गाँवों जैसे पीपाड़, मथानिया, आसोप, फलोदी आदि के कई ग्राम-मुखिया लोग आपसे सलाह-मशविरा करने आते थे। आपके चरित्र की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि आपको मैंने कभी भी क्रोध के वशीभूत होते नहीं देखा। बड़ी से बड़ी समस्या रही हो शांतिपूर्वक स्थिर-मन से उसका समाधान खोजते थे। इस प्रकार समाज-सुधार के एक मसीहा ने अपना संपूर्ण जीवन निस्वार्थ-भाव से समाज के नाम समर्पित कर दिया।
एक बार हॉस्टल के एक कार्यालय में वह एक पलंग पर शयन कर रहे थे। पास में ही पड़ी हुई थी उनकी हरे रंग की एक डायरी। उनको सोते देख उत्सुकतावश मैंने उस डायरी को उठाया तथा पृष्ठ पलटकर देखने लगा। उस डायरी में कई प्रासंगिक आलेख, कविताएं, दर्शन, महापुरुषों के वचन इत्यादि की पेपर-कटिंग चिपकी हुई थी तथा कुछ लेख उनके स्वरचित थे। डायरी के अंत में कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों के टेलिफोन नंबर लिखे हुए थे। उस डायरी को मैंने ध्यानपूर्वक पढ़ा। पढ़ने पर उनके जीवन की उच्चता का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता था कि एक सेठ परिवार में जन्म लेने के बाद भी उनके कोमल-चित्त पर समाज के पिछड़े-वर्गों के उत्थान के लिए एक दर्द, एक व्यथा, एक टीस अंकित थी। जहाँ उनके भाईयों में छात्रावास की विवादित सम्पत्ति को लेकर शीतयुद्ध चल रहा था। जहाँ उस भूखंड को हथियाने के लिए भीतर ही भीतर वसीयत बदलने की साजिशें चल रही थी। जहाँ परिवार के अन्य भाई वहाँ पंच-सितारा होटल खोलने के सपने देख रहे थे। वहाँ यही सबसे छोटा भाई निस्पृहभाव से छात्रावास के पुराने भवन को नया रूप देने के लिए प्रयत्नशील थे। मन में किसी भी प्रकार का न कोई लोभ था, न कोई लालच।बस पूर्वजों के नाम कुछ कर गुजरने की एक चाह थी। उनकी पितृ-भक्ति देखकर मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब की पंक्तियाँ याद आती थी
"हजारों हसरतें ऐसी कि ह़र हसरत पर दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले "
अपनी इस इच्छा को साकार करने के लिए विरक्तभाव से उन्होंने छात्रावास के नवीनीकरण के बारे में सोचना प्रारंभ किया तथा जोधपुर के आस-पास के गांव मथानिया,आसोप, फलोदी, पाली, सिरोही, शिवगंज, सुमेरपुर आदि के मुखिया,सरपंच तथा प्रतिष्ठित लोगों को छात्रावास के वार्षिकोत्सव में आमंत्रित किया। इस आयोजन में ऑयल इंडिया लिमिटेड, जोधपुर शाखा के अध्यक्ष सह प्रबंध निदेशक श्री ओ.पी. सैनी, राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री सोहन लाल शांखला, कमलानेहरु महाविद्यालय की प्रोफेसर तारा लक्ष्मण गहलोत तथा राजस्थान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कानसिंह जी परिहार आदि मंचासीन थे। श्री जगदीश सिंह जी ने इस आयोजन के संचालन का दायित्व मुझे सौंपा। इस कार्यक्रम के आयोजन की दूर-दृष्टि वास्तव में छात्रावास के नवनिर्माण के लिए एक सार्थक प्रयास था, जो आगे चलकर इस दिशा में एक नींव की ईंट साबित हुआ। इस कार्यक्रम के सफलता के बाद समाज में इस बात की लहर उठी कि छात्रावास के लिए नए भवन की अत्यंत आवश्यकता है तथा यह सोचा जाने लगा कि अगर सेठ भीकम दास शिक्षा सेवा सदन के पुराना भवन का जीर्णोद्धार किया जाए, साथ ही साथ उसके परिसर की खाली जगह पर नया भवन निर्मित किया जाए तो समाज के जो बच्चे बाहर किराया लेकर रहते हैं, उन्हें रहने के लिए सस्ती सुलभ सुविधा उपलब्ध हो जाएगी।इसके अतिरिक्त,बच्चों में सुसंस्कारित समाज के अंकुर प्रस्फुटित हो सकेंगे। यही सोचकर श्री जगदीश सिंह जी ने अखिल राजस्थान स्तर के कार्यक्रम का आयोजन तत्कालीन जोधपुर के सांसद अशोक गहलोत की अध्यक्षता में छात्रावास के पुराने परिसर में किया। वह छात्रावास के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था। इस बार भी मंच संचालन का दायित्व मुझे सौंपा गया था। दो-तीन घंटे के इस कार्यक्रम में राजस्थान के विभिन्न जगहों से आए हुए भामाशाहों ने देखते-देखते 20 लाख के आस-पास धनराशि दान कर छात्रावास के नवनिर्माण में अपना योगदान दिया। यही थी वह शुरुआत जहाँ शिक्षा सेवा सदन ने एक वैधानिक न्यास का रूप लिया। यद्यपि उनके परिवार में भीतरी मन-मुटाव व वैचारिक मतभेदों के बावजूद भी सन् 1992 में सदन के भूतपूर्व छात्र रह चुके राजस्थान सरकार के प्रतिष्ठित सिविल इंजिनियर श्री पुखराज जी सांखला की देख-रेख में छात्रावास का नया भवन निर्मित होकर हमारे समक्ष मुस्कराहट बिखरते हुए श्री जगदीश सिंह जी परिहार के सपने को मूर्त -रूप दे चुका था। इसी छात्रावास के निर्माण से प्रेरित होकर पड़ोस के अन्य जिलों तथा जगहों जैसे सिरो ही, जालोर, आबुरोड, सुंधामाता में समाज को एकीकरण कर छात्रावास के साथ-साथ धर्मशालाओं का निर्माण कार्य शुरु हुआ। इससे समूचे राजस्थान के शैक्षिक-उत्थान के लिए एक नव-क्रांति का सूत्रपात हुआ। सेठ श्री भीकमदास जी परिहार व तत्पश्चात उनके सुपुत्र श्री जगदीश सिंह जी परिहार के योगदान को याद करें तो छात्रावास की इसी पुनीत धरा ने कई डॉक्टरों,इंजिनियरों,प्रशासनिक-अधिकारियों,शिक्षकों,वकीलों व नेताओं को उत्पन्न कर कई गरीब परिवारों में खुशियों के दीपक जलाए हैं तथा अभी भी समाज में शैक्षिक-उत्थान के लिए दिन दूनी-रात चौगुनी गति से अग्रसर हैं। इस प्रकार महात्मा ज्योतिबा फूले की भांति समाज में शैक्षिक जागरण का संपूर्ण श्रेय श्री जगदीश सिंह जी परिहार को जाता है। अगर उन्हें राजस्थान का ज्योतिबा फूले का श्रेय दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अंत में, इस महान व्यक्तित्व के धनी को श्रद्धा शत-शत नमन करते हुए निम्न पंक्तियां दोहराना चाहूँगा-
हजारों सालों से नरगिस, अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से चमन में एक दीदावर पैदा होता है ।।
Comments
Post a Comment