13. डॉ॰विमला भण्डारी का काव्य-संसार

गिरते सामाजिक मूल्यों को दर्शाती
पंक्तियाँ कविता “बूढ़ा जाते हैं माँ-बाप” से :-
धीरे-धीरे उनमें चढ़ने लगती है
स्वार्थों की फूफंद
बरगद-सी बाहें फैलाए
आकाशीय जड़े महत्वाकांक्षा की
तोड़ लेती है
सारे सरोकार और
क्षणांश में
बूढ़ा जाते हैं माँ बाप।
इस तरह, दूसरी कविता ‘विश्व सौंदर्य लिप्सा में’
कवयित्री बदलते परिवेश पर भारत के इंडिया बन जाने पर अफसोस व्यक्त करती है। सन
1955 तक स्त्रियाँ घूंघटों में ढकी रहती थी, मगर चालीस साल के लंबे सफर अर्थात
निन्यानवे के आते-आते सब-कुछ विश्व सौंदर्य लिप्सा में उघड़ा हुआ नजर आने लगता है।
कविता में लोकोक्ति ‘नाक की डांडी’ अद्भुत सौंदर्य पैदा कर रही है। सत्ता
और पूंजी के देशी-विदेशी गठबंधन ने मध्यम-वर्गीय इच्छाओं को कुलीनवर्गीय संस्कृति
से जोड़ दिया है।
2॰ नारी शिक्षा के प्रति आज भी राजस्थान
के ग्रामीण परिवारों में अजागरूकता को लेकर उनकी कविता ‘वो लड़कियां’-जिन्हें शिक्षा लाभ लेना चाहिए/वे आज भी
ढ़ोर डंगर हाँकती है/ जंगलों में लकड़ियाँ बीनती हैं/ सूखे कंडे ढोती हैं/ बर्तन
माँजती हैं/ झाड़ू–पोछा करती हैं/ पत्थर काटती हैं/ अक्षय तृतीय पर ब्याह दी जाती
हैं/वे स्कूल जा पाएगी कभी ?
किशोरी कोख से
किल्लोलती
जनमती है फिर
वो लड़कियां
जिन्हें जाना चाहिए था स्कूल
किन्तु कभी नहीं
जा पाएगी वो स्कूल
इसी तरह, उनकी दूसरी कविता ‘लड़कियां’
में हमारे समाज में लड़कियों पर थोपे जा रहे प्रतिबंधों, अनुशासन में रहने के निर्देशों तथा
अपने रिश्तेदारों के आदेशों के अनुपालन करते-करते निढाल होने के बावजूद उन्हें
पोर-पोर तक दिए जाने वाले दुखों के भोगे जाने का यथार्थ चित्रण किया गया है। यथा:-
खुली खिड़की से
झांकना मना
घर की दहलीज
बिना इजाजत के
लांघना है मना
अपने ही घर की छतपर
अकेले घूमना मना
इन दृश्यों की मार्मिकता इनके विलक्षण होने
में नहीं है। ये दृश्य इतने आम हैं कि कविता में दिखने पर साधारणीकृत हो जाते हैं।
इनका मर्म उनकी करुणा में है। कहा जा सकता है कि कवयित्री के मार्मिक चित्र
स्त्री-बिम्बों से संबंधित है। यही उनकी निजता का
साँचा है जिसमें ढलकर बाह्य वास्तविकता कविता का रूप लेती है। उनके मार्मिक-करुण
चित्रों के साथ उनकी कविता की शांत-मंथर-लय और अंतरंग-आत्मीय गूंज का अटूट रिश्ता
है। उनमें स्त्री-अस्तित्व की चेतना है और अपने संसार के प्रति जागरूकता भी है।
अलग-अलग जीवन-दृश्य मिलकर उनकी कविता को एक बड़ा परिदृश्य बनाते हैं।
कवयित्री का एक दूसरा पक्ष भी है आशावादिता
का। ‘तुम
निस्तेज न होना कभी’ कविता में कवयित्री के आशावादिता के
स्वर मुखरित हो रहे हैं कि निराशा के अंधकार में रोशनी हेतु सूरज आने की बिना आशा
किए दीपक का प्रयोग भी पर्याप्त है। ‘आदमी की औकात’ कविता में सपनों के घरौंदे और रेत के
महलों जैसे प्रतीकों में समानता दर्शाते हुए जीवन के उतार-चढ़ाव, सुख-दुख
में यथार्थ धरातल पर उनके संघर्ष को पाठकों के सम्मुख रखने का प्रयास किया है। ‘प्यार’
कविता में प्रेम जैसी संवेदनशील अनुभूति के समझ में आने से पूर्व ही उसके बिखर
जाने की मार्मिक व्यथा और वेदना का परिचय मिलता है। ठीक इसी तरह,‘दरकते
पल’
कविताओं में उन स्मृतियों की धुंध को ‘राख़ के नीचे दबी चिंगारी’, ‘पीले
पत्ते’, ‘झड़ते
फूल’, ‘उघाड़ते
पद-चिन्ह’
जैसे बिंबो का उदाहरण देकर कवयित्री ने न केवल अपने अंतकरण की सुंदरता,
बल्कि पृथिवी की नैसर्गिक सुंदरता के नजदीक होने का अहसास भी कराया है।‘दो
बातें प्रेम की’ कविता में अपनेपन की इबादतें सीखने का आग्रह किया गया है। ‘एक
सूखा गुलाब’ में कवयित्री ने पुरानी किताब और नई किताब को प्रतीक बनाकर अपनी
भूली-बिसरी यादों को ताजा करते हुए वेलेंटाइन-दिन के समय पुरानी किताब के
भीतर रखे गुलाब के सूख जाने जैसी मार्मिक यथार्थ अनुभूतियों को उजागर करने का
सशक्त प्रयास किया है। ‘लाड़ली बिटिया’ कविता में कवयित्री ने अपनी बेटी के
जन्म-दिन पर खुशिया मनाने के बहाने अपने आत्मीय प्रेम या वात्सल्य का अनूठा उदाहरण
प्रस्तुत किया है। बेटी का चेहरा, उसकी आवाज, उसकी आँखें, उसके बाल, सभी अंगों में प्यार को अनुभव करते हुए
उसे अपने जीवन का सहारा बना लिया है। ऐसे ही उनकी दूसरी कविता ‘अब
के बरस’
भी बेटी के जन्मदिन के उपलक्ष में है। इन कविताओं को पढ़ते समय सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
की अपनी पुत्री की स्मृति में लिखी कविता ‘सरोज-स्मृति’ याद आ गई है। चाहे कवि हो या कवयित्री,
चाहे पुरुष हो या नारी दोनों का बेटियों के प्रति एक विचित्र वात्सल्य, अपनापन, स्नेह
व सहानुभूति होती है। इसी तरह ‘कहां खो गए’ कविता में बेटी बनकर अपने माँ के
एकाकीपन व निसंगता को अनुभव करती कवयित्री आधुनिक समाज की हकीकत से सामना करवाती
है कि माँ के नंदलाल, झूलेलाल, बाबूलाल आदि संबोधनों वाले बेटे अब
सामाजिक स्वार्थ और लिप्सा में विलुप्त हो गए है। इसलिए माँ आज अकेली है। नितांत
अकेली।
“तदनुरूप” कविता में कवयित्री डॉ॰ विमला
भंडारी के दार्शनिक स्वर मुखरित होते हैं कि जब आदमी अपने जड़े खोजने के लिए
अतीतावलोकन करने लगता है, तो वहाँ मिलता है उसे केवल घुप्प
अंधेरा, स्मृतियों
के अनगिनत श्वेत-श्याम, धवल-धूसर चलचित्र और सन्नाटे में किसी
एक सुरंग से दूसरी सुरंग में कूच करता अक्लांत अनवरत दौड़ता, अकुलाता
अगड़ाई लेता घुड़सवार। इसी तरह उनकी ‘याद’ कविता में यादों को ‘रोटी’ को
माध्यम बनाकर रूखा सूखा खाकर जीवन बिताने का साधन बताया है। ‘अंधेरे
और उजालों के बीच’ और ‘चंचल मन’ कविताओं में कवयित्री की दार्शनिकता की
झलक स्पष्ट दिखाई देती हैं।
‘तेजाबी प्यार’ कविता में आधुनिक भटके हुए नवयुवकों के
एक तरफा प्यार के कारण अपनी प्रेमिकाओं के चेहरे पर एसिड डालने और उनके रास्ते में
आ रही रुकावटों के ज़िम्मेवार लोगों की हत्या तक कर डालने का मर्मांतक वर्णन किया
हैं। इस तरह ‘रिंगटोन’ कविता में दहेज के दरिंदों द्वारा बेटी
को घोर-यातना देने का मार्मिक विवेचन है, इस कविता में कवयित्री कि नारीवादिता
के स्वर मुखरित होते हैं।
जैसे
:-
बेटी का फोन था
‘मुझे बचा लो माँ’
का रिंगटोन था
कल फिर उन्होंने
मुझे मारा और दुत्कारा
तुम औरत हो
तुम्हारी औकात है ?
कोई अच्छी कविता अज्ञात दृश्यों की खोज
नहीं करती। वह ज्ञात स्थितियों के अज्ञात मर्म उजागर करती है। उसमें चित्रित
दृश्यों को हम जीवन में साक्षात देखते हैं। फर्क यह होता है कि कविता में देखने के
बाद उन जीवन दृश्यों को हम नई दृष्टि से देखने लगते है। बच्चा गोद में लेकर ‘बस
में चढ़ती’
रघुवीर सहाय की स्त्री हो या ‘छाती से सब्जी का थैला सटाए बिना धक्का
खाए’
संतुलन बनाकर बस पकडनेवाली अनूप सेठी की ‘एक साथ कई स्त्रियाँ’
हों,
वे रोज़मर्रा के ऐसे अनुभव हैं जिनके प्रति कविता हमें एकाएक सजग कर देती हैं।
‘खबर का असर’ कविता में कवयित्री आए दिन अखबारों में
सामूहिक बलात्कार की खबरें पढ़कर इतना भयभीत हो उठती है कि कब,
किस वक्त,
कहां,
कैसे ये घटनाएँ घटित हो जाएगी, सोचकर उसका दिल दहल जाता है। इस कविता
की कुछ पंक्तियाँ;-
स्त्री जात को नहीं रहा
किसी पर अब ऐतबार
प्यार, गली, मोहल्ले
दोस्त, चाँद और छतें
फिल्म, जुल्फ, रूठने
पायल की रुनझुन
इशारों में इशारों की बातें
सब वीरान हो गई
जबसे नई दिल्ली में
और दिल्ली जैसी
कई वारदातें
किस्सा-ए-आम हो गई
अनामिका
ने अपनी पुस्तक “स्त्रीत्व का मानचित्र” में एक जगह लिखा है:-
“अंतर्जगत और बहिर्जगत के द्वन्द्वों और
तनावों के सही आकलन की यह सम्यक दृष्टि जितनी पुरुषों के लिए जरूरी है, उतनी
ही स्त्रियों के लिए भी। पर स्त्रियों का,खास कर तीसरी दुनिया की हम स्त्रियों का, बहिर्जगत
अंतर्जगत पर इतना हावी है कि, कई बार हमें सुध भी नहीं आती, चेतना
भी नहीं होती, कि हमारा कोई अंतर्जगत भी है और उसका होना महत्वपूर्ण है।”
विमलाजी
की ‘’जिंदगी
यहां’
कविता में ऐसे ही स्वरों की पुनरावृत्ति होती है :-
माँ, बहिन, बेटी, बीवी नहीं
सिर्फ औरत बनकर
बिस्तर की सलवटें बनती है जिंदगी यहां
जबकि ‘मैं हूँ एक स्त्री’
कविता में जमाने के अनुरूप नारी-सशक्तिकरण का आव्हान किया है,
जो रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘अबला हाय! यही तेरी कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी’ की रचना-प्रक्रिया के समय का उल्लंघन
करती हुई अपने शक्तिशाली होने का परिचय देती है :-
“मैं कोई बुत नहीं जो गिर जाऊंगी
हाड़ मांस से बना जीवित पिंजर हूँ
कमनीय स्त्री देह हूँ तो क्या हुआ ?
मोड दी मैंने समय की सब धाराएँ”
किसी उपकरण को कलात्मक मानना और किसी को न
मानना एक भाववादी तरीका है। भले ही,कलावाद के नाम पर हो या जनवाद के नाम
पर। कवयित्री के प्रयोगों से स्पष्ट है कि न कोई विवरण अकाव्यात्मक होता है,न
बिंब, प्रतीक, सपाटबयानी, मिथक, उपमान, चरित्र
वगैरह काव्यात्मक होते हैं। यह सभी कविता के उपकरण है। उपकरणों को कविता बनाती है
संवेदना। वही विभिन्न उपकरणों में संबंध, संगीत और सार्थकता लाती है।
“कब तक?” कविता में ‘बाय-पास”, ”एरो’, ’स्टॉप’, ’फोरलेन’, ’बैरियर’तथा ‘टोलनाका’ आदि शब्दों के माध्यम से कवयित्री ने
समाज के समक्ष एक प्रश्न खड़ा किया है, आखिर कब तक अपनी मंजिल पाने के लिए एक
औरत ‘टोलनाका’
चुकाती रहेगी? इसी तरह उनकी अन्य नारीवादी कविता ‘हरबार’ में ‘ऐसा क्यों होता है, हरबार
मुझे ही हारना होता है’ का प्रश्न उठाया है। जहां ‘अहसास’
कविता अवसाद की याद दिलाती है, वहीं उनकी कविता ‘समय’
असीम संभावनाओं वाले नए सवेरे के आगमन, “मैं राधा-राधा’
कविता में पथिक से नए इतिहास के निर्माण का आव्हान तथा ‘विज्ञापनी धुएं के संग’
कविता संचार-क्रान्ति के प्रभाव से आधुनिक समाज के विज्ञापनों के प्रति बदलते रुख
पर प्रहार है।
कवयित्री लंबे समय से पत्रकारिता से जुड़ी
हुई हैं और यौवनावस्था से ही सक्रिय राजनीति में हिस्सा ले रही हैं। उनकी प्रखर
राजनैतिक चेतना लगातार उनके लेखन को तराश रही है और यही कारण है कि वह अपने
राजनैतिक परिवेश से अभी भी पूरी तरह संपृक्त हैं। विमला भण्डारी की कविताएं
यथार्थवादी है, सामाजिक दृश्यों से सीधा सरोकार रखने वाली। केदारनाथ सिंह
सामाजिक दृश्यों का सामना नहीं करते, उनकी ओर पीठ करके उनका अनुभव करते हैं।
इसलिए वे माध्यम संवेगों और अमूर्तताओं के कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं।
जबकि विमला भण्डारी सामाजिक दृश्यों का खुली आँख से सामना करती है, जिनके
सारे दृश्य उनके निजी-आभ्यंतर के निर्मल साँचे में ढलकर आते हैं। जिस अर्थ में ‘व्यक्तिगत
ही राजनीतिक’ होता है, उस अर्थ में विमलाजी का काव्य-संसार ‘व्यक्तिगत ही सामाजिक’
है! यह एक संयोग नहीं, परिघटना है। ‘जब भी बोल’ कविता में कवयित्री ने हर नागरिक से
जनहित में बोलने का आग्रह किया है:- –
अरे! कुछ तो बोल
जब भी बोल
जनहित में बोल
‘जनहित’ का यहां उन्होंने व्यापक अर्थ समझाया
है अर्थात किसानों, मजदूरों, अबलाओं, कृशकायों, भूखे-नंगों के हित में आवाज उठाने वाले
मार्क्सदी स्वर इस कविता में साफ सुनाई पड़ते हैं। जनहित के लिए वह प्रेरणा देती
है।यथा:-
देखना एक दिन
न पद होगा
न होगा राज
मन की मन में रह जाएगी
तब कौन करेगा काज
जब भी बोल
जनहित में बोल।
इसी शृंखला में ‘गांव में सरकार आई’
कविता में आधुनिक लोकतन्त्र व प्रशासन से गांवों में धीमी गति से चल रहे
विकास-कार्यों पर दृष्टिपात करते हुए व्यंगात्मक तरीके ने करारी चोट की है। कुछ
पंक्तियाँ देखिए :-
सब की सब
कह रही है
गांवों में सरकार आई है
पपडाएँ होंठ, धुंधली नजर
मुख अब अस्ताचल की ओर है
निगोड़ी सब निपटे तो मेरा नंबर आए
प्रशासन गांवों की ओर है
राजनीति आधुनिक जीवन-प्रक्रिया का ढांचा
है। वह समाज से बाजार तक पूरे जीवन को नियंत्रित करती है। इसीलिए हर प्रकार का
संघर्ष एक मोर्चा राजनीति है। समाज और बाजार के विरोधी खिंचाव में राजनीति
निर्विकार नहीं करती। वह एक न एक ओर झुकती है। इसीलिए वह सत्ता को कायम रखने की
विद्या है,
उसे बदलने की विद्या भी है। हमारे समय की प्रभावशाली राजनीति बाजारवाद के अनुरूप
ढल गई है। जिस तरह डॉ॰ विमला भंडारी का कथा-संसार वैविध्यपूर्ण है,
ठीक इसी तरह कविताओं को भी रचनाकार की कलम ने सीमित नहीं रखा है। सलूम्बर, नागौर, बूंदी, मेवाड़
आदि छोटे-बड़े ठिकानों, रियासतों के वीर राजपूतों द्वारा अपने
आन-बान शान की रक्षा के लिए प्राणों को न्यौछावर तक कर देने की गौरवशाली अतीत
परंपरा को विमला जी ने अपनी रचनाओं का केंद्र बिन्दु बनाया। उनकी कविताओं ‘अंतराल’
और ‘अब
शेष कहां?’
में अपने गांव के प्रति मोह तथा अतीत को याद करते हुए वह कहती है:-
किन्तु
जलाकर
खुद को
धुआं बनकर उड जाएँ
ऐसे बिरले
अब शेष कहां !
लेखिका की ख्याति पूरे देश में बाल
साहित्यकार की तौर पर है। बाल साहित्य में विशेष योगदान के लिए उन्हे केंद्रीय
साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ, तब यह कैसे हो सकता है कि उनका कविता
ससार भी बाल जगत से विछिन्न रह जाता। जीवन की विविध उलझनों, आजीविका
के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों, जीवन की विविध व्यस्तताओं और पारिवारिक
दायित्व-निर्वहन की आपाधापी के बीच भी विमला जी ने बाल-साहित्य पर लगातार लिखे हुए
अपनी कलम की स्याही को सूखने से बचाया आज भी उनका रुझान बाल-साहित्य पर विशेष है।
उनकी बाल-कविता जैसे ‘फोटू तुम्हारे’,
‘मस्त है छोटू राम’, ‘उफ
! ये बच्चे’, ‘माफ करो भाई’, ‘घर धर्मशाला हो जाए’
ने हिंदी-जगत में विशिष्ट ख्याति अर्जित की है। ‘इसी सदी का चाँद’
कविता में कवयित्री ने लिंग-भेद के कारण हो रहे भेदभाव, ‘सत्या’ कविता में गिरते सामाजिक मानदंडों पर
करारा प्रहार करते हुए ‘यह सत्य भी क्या है?’
की कसौटी का आकलन, ‘हे गणतंत्र!’ में देश प्रेम के जज़्बात तथा मन की
फुनगियों पर चिडिया बन आशाओं का संचार करने का अनुरोध है।
‘जलधारा’ कविता में किसी भी इंसान के इंद्रधनुषी
जीवन-प्रवाह में नित नए आने वाले परिवर्तनों तथा उन्हें रोकने व बांधने के व्यर्थ
प्रयासों का उल्लेख मिलता है। इन परिवर्तनों का आत्मसात करते हुए अनवरत आगे बढ़ते
जाने का संदेश है, जबतक कि इस शरीर में प्राण न रहें। गीता के कर्मयोगी बनने के
संदेश का आह्वान है इस कविता में।
यदि हम एक रचनाकार की बहुत सारी कहानियां
और कविताएं एक साथ पढ़ते हैं तो उसकी मानसिक बनावट और उसके चिंतन, विचारधारा
और रुझान का पता लग जाता है। उनका समग्र साहित्य पढ़ने के बाद कुछ बातें अवश्य उनके
बारे में कहने कि स्थिति में स्वयं को पाता हूँ। पहला-विमलाजी अपने समाज के निचले व
मध्यम वर्ग में गहरी रुचि लेती है। दूसरा– जहां भी शोषण होता है वह विचलित हो उठती
है। तीसरा- एक नारी होने के कारण हमारे समाज में महिलाओं पर हो रही घरेलू हिंसा व
यातनाओं के कारणों का अच्छी तरह समझ सकती है। चार- समाज का लगभग हर तबका अपने से
कमजोर तबके का शोषण करता है।पांचवा-इतना सब-कुछ होते हुए भी लेखिका/कवयित्री इस
ज़िंदगी और समाज से पलायन करने के पक्ष में
नहीं है। उनकी दृष्टि आदर्शवादी है।
विमला भण्डारी के काव्य संसार की झलक से हम आश्वस्त हो सकते हैं
कि जिस गहन-चिंतन और नए प्रयोगों के साथ अपने अंतरंग-कोमल स्वर से बाल-साहित्य को
समृद्ध किया हैं, उन्हीं स्वरों को मधुर संगीत देकर अपने काव्य-संसार को भी
सुशोभित किया है।
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